सीताराम जी गोयल भारत के ऐसे विरले विचारकों में से एक हैं जो पहले नास्तिक बने और फिर अपने धर्म में लौटकर क्राँतिकारी साहित्य की रचना की । जिसमें इतिहास के ऐसे पक्ष भी उजागर किये जिनपर चर्चा करना भी साहस की बात थी । उनके लेखन पर याचिकाएँ लगीं और गिरफ्तारी भी हुई । वे उत्कृष्ट विचारक, इतिहासकार, लेखक एवं प्रकाशक थे।”हाऊ आई बीकेम हिंदू”, “द कलकत्ता कुरान पेटिशन” और “द ऋषि ऑफ ए रिसर्जेंट इंडिया” अपने समय की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
सीताराम जी गोयल धर्म को व्यक्तिगत जीवन का आधार मानते थे लेकिन सार्वजनिक जीवन में “धर्मनिरपेक्षता” के पक्षधर थे । लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल हिन्दुधर्म और राष्ट्र की मान्यताओं पर आघात करने की मानसिकता के विरुद्ध थे । इसी विचार ने उनकी धारा मोड़ी और उन्होंने कट्टरपंथ और छद्म वामपंथ पर तीखे प्रहार किये । उन्होंने इस विषय को केंद्र में रखकर “धर्मनिरपेक्षता : देशद्रोह का वैकल्पिक नाम” पुस्तक लिखी । इसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ईसाई मिशनरीज, मार्क्सवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों की युति का विवेचन किया । इस रचना के बाद उनपर साम्प्रदायिक होने के आरोप लगे । तब उन्होंने कहा था कि “यदि सत्य लिखना साम्प्रदायिक होना है तो वे साम्प्रदायिक हैं”। ऐसे क्राँतिकारी लेखक और विचारक सीताराम जी गोयल का जन्म 16 अक्टूबर 1921 को हरियाणा प्राँत के छारा गाँव में हुआ था । परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था लेकिन घर में निर्गुण संत गरीबदास जी का प्रभाव आना जाना था । किसी महामारी के कारण बचपन में ही माता पिता का निधन हो गया और वे अपने ननिहाल कलकत्ता पहुँच गये । वे बचपन से बहुत संघर्षशील और कुशाग्र बुद्धि थे । उन्होंने पढ़ाई के साथ अर्थोपार्जन भी किया । आरंभिक शिक्षा कलकत्ता में हुई और बाद में दिल्ली आ गये । दिल्ली के हिंदू कॉलेज से इतिहास में एमए किया । निर्धारित पाठ्यक्रम के साथ उन्होंने संस्कृत भाषाकी शिक्षा भी ली थी । छात्र जीवन से ही उनमें सामाजिक कार्यों की रुचि भी जाग गई थी। वे आर्य समाज के निर्गुण सिद्धांत के साथ गांधीजी के स्वदेशी एवं हरिजन उद्धार अभियान के भी समर्थन थे । उन्होंने अपने गाँव में उपेक्षित एवं सेवा बस्तियों में काम भी किया ।
छात्र जीवन में उनका संपर्क वामपंथी विचारकों से हुआ और वे इसी धारा में मुड़ गये । 1940 में उनकी पहचान एक सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में गई थी । उनका आरंभिक लेखन इसी धारा पर हुआ । वे बहुत तीखा और आक्रामक लिखते थे। लेकिन 1946 में मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन में नर संहार देखकर उनका मन उद्वेलित हो गया । वह नरसंहार एकतरफा था । उनका मानना था कि साम्यवाद को इस नरसंहार का विरोध करना चाहिए, पर ईसाई और साम्यवादी तंत्र ने उस हिंसा के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाई । यह हिंसा भारत विभाजन तक जारी रही । यहाँ से उनका मन बदला । वे इतिहास के विद्यार्थी रहे थे । उनकी स्मृति में इतिहास के नरसंहारों का विवरण उभर आया । यहीं से उनके विचार और लेखन की धारा बदल गई । अब उनकी गणना वामपंथ विरोधियों में होने लगी । उनके द्वारा 1950 में स्थापित “सोसाइटी फॉर द डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया” संस्था कम्युनिस्ट विरोधी संस्था मानी जाने लगी । इस संस्था ने सोवियत संघ और पीपुल्स रिपब्लिक के अत्याचारों और साम्यवादी चिंतन का तथ्यात्मक विश्लेषण किया और उसके दुष्परिणामों पर एक लेखमाला प्रकाशित की । उन्होंने इसके साथ भारतीय परंपराओं की वैज्ञानिकता एवं मानवीय पक्ष की ओर मुड़े। पर उनके मन से मुस्लिम लीग का डायरेक्ट एक्शन और भारत विभाजन की हिंसा का दंश कभी न निकला । सकारात्मक राष्ट्रीउन्होंने एक पुस्तक ‘मैं हिन्दू क्यों बना ?’ भी लिखी। वामपंथ पर उन्होंने सतत लेखन किया और 1954 में कोलकाता के पुस्तक मेले में अपने वामपंथ विरोधी प्रकाशनों की एक दुकान लगाई। उसके बैनर पर लिखा था – लाल खटमल मारने की दवा यहां मिलती है। “आर्गनाइजर” में उन्होंने सतत लेखन किया । इसमें सभी विषय पर आलेख होते ।
महर्षि अरविन्द के विचारों पर आध्यात्मिक, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और रक्षामंत्री कृष्णामेनन की नीतियों और आलोचनात्मक विषय थे । यह लेखमाला बाद में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुई।उन्होंने अपना एक “वाइस ऑफ इंडिया” नाम से प्रकाशन केंद्र भी स्थापित किया । इसके माध्यम से हिन्दी और अंग्रेजी में अपनी तथा अन्य लेखकों की पुस्तकें प्रकाशन का क्रम आरंभ हुआ । उनके प्रकाशन की एक पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग इस्लाम थ्रू हदीस” बहुत चर्चित रही । इसके लेखक राम स्वरूप जी थे । इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा 1987 में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। लेकिन अदालत से उनके पक्ष में निर्णय आया । प्रतिबंध हटा और 1993 में यह पुस्तक पुनः प्रकाशित हुई । सीताराम जी की एक पुस्तक “कॉलिन मेन के निबंध द डेड हैंड ऑफ़ इस्लाम” थी । इस पुस्तक के विरुद्ध भी उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए और 295 ए का मुकदमा दर्ज कराया गया । लेकिन वे अदालत से बरी हुये ।उन्होनें भारतीय इतिहास की वास्तविक घटनाओं सामने लाने का मानों बीड़ा उठा लिया था । इसके साथ हिंदू समाज को कमजोर करने के लिए मार्क्सवाद समर्थक कथित बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों स्थापित मिथकों का तर्क सहित खंडन करके सत्य स्थापित करने का प्रयास किया है । उन्होंने उस समय की राजनीति से संबंधित कई विषयों और भविष्य की चुनौतियों पर भी लेखन किया ।इतिहास सहित इन सभी विषयों पर उन्होंने स्वयं 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनकी सबसे अधिक चर्चित पुस्तक आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए हिंदू मंदिरों की सूची का संकलन थी । ‘हिंदू मंदिर उनका क्या हुआ’ नामक यह संकलन दो खंडों में प्रकाशित हुआ । 1990 में उत्तरप्रदेश की मुलायमसिंह सरकार के दौरान इस पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग भी उठी ।
1993 में सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने राम स्वरूप की पुस्तक हिंदू व्यू ऑफ क्रिश्चियनिटी एंड इस्लाम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की ।अपने समय के सुविख्यात लेखक अरुण शौरी और केएस लाल ने प्रतिबंध की इस मांग कि विरोध किया था। श्री चाँदमल चौपड़ा द्वारा लिखित उनके प्रकाशन की एक पुस्तक “द कलकत्ता कुरान पिटीशन” है । पुस्तक के लेखक श्री चौपड़ा के साथ प्रकाशन के लिये सीताराम जी भी 31 अगस्त 1987 को गिरफ्तार हुये । उन्हें 8 सितंबर तक हिरासत में रखा गया। उनके द्वारा लिखित या प्रकाशित आलेख एवं पुस्तकों में “चीन विवाद; हम किस पर विश्वास करें?, “सोसाइटी फॉर डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया” “माइंड मर्डर इन माओ-लैंड” “चीन में कम्युनिस्ट पार्टी: राजद्रोह पर एक अध्ययन” लाल भाई या पीला गुलाम” भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी” “मुस्लिम अलगाववाद: कारण और परिणाम” “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”, “धर्मनिरपेक्ष धर्मतंत्र बनाम उदार लोकतंत्र” “ईसाई मिशनरी गतिविधियों पर नियोगी समिति की रिपोर्ट, “मिशनरियों के विध्वंस और धर्मांतरण” जैसे विषयों पर भी हैं । इनके अतिरिक्त उन्होंने हिंदू समाज को भविष्य की चुनौतियों से सावधान करने केलिये भी उन्होंने पुस्तक लिखी । इन विषयों पर अन्य इतिहासकारों, विचारकों, विद्वानों और वैज्ञानिकों से भी संपर्क करके उन्होंने अपने प्रकाशन “वॉयस ऑफ इंडिया” प्रकाशित किया । ये पुस्तक हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हैं । वे पाठकों को अपने प्रकाशन की ये पुस्तकें केवल लागत मूल्य पर ही उपलब्ध कराते थे ।
अपने लेखन से सतत राष्ट्रभाव जाग्रत करने वाले सीताराम जी गोयल 3 दिसम्बर 2003 को संसार से विदा हुये । उनका लेखन और उनका प्रकाशन आज भी सजीव है । इन दिनों यदि भारतीय मंदिरों को पुनर्प्रतिठित करने की बात उठ रही है तो इसमें सीताराम गोयल जैसे शोध कर्ताओं का ही योगदान है ।