भारत को स्वतंत्र हुये सत्तहत्तर वर्ष हो गये हैं पर अभी भी ऐसी जन भावना मुखर नहीं हो सकी जो उन राष्ट्रसेवियों का खुलकर सम्मान करे जिन्होने राज्याश्रय की बिना परवाह किये परतंत्रता के अंधकार के बीच निर्भीकता से लेखन किया और स्वत्व जागरण के लिये जीवन समर्पित कर दिया । वैद्य गुरुदत्त ऐसे ही निर्भीक और राष्ट्रीय अस्मिता के लिये समर्पित लेखक और इतिहासकार थे । जिनका पूरा जीवन सत्य को समर्पित रहा ।
समाजिक जागरण केलिये ऐसा कोई विषय नहीं जिसपर गुरुदत्त जी लेखनी न चली हो । इतिहास, राजनीति और साहित्य की जितनी रचनाएँ गुरुदत्त जी ने समाज को दीं उनको देखकर आश्चर्य होता है कि कोई एक व्यक्ति कैसे इतना व्यापक चिंतनशील हो सकता है । यदि अन्य रचनाओं और आलेख को छोड़कर केवल उपन्यास की बात करें तो उन्होंने अपने जीवन में दो सौ से अधिक उपन्यासों की रचना की । ऐसे विलक्षण विचारक और रचनाकार वैद्य गुरुदत्त का जन्म 8 दिसम्बर 1894 लाहौर के एक अरोड़ी क्षत्रिय परिवार में हुआ । पिता कर्मचन्दजी अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध वैद्य थे । परिवार में आयुर्वेद चिकित्सा का कार्य पीढ़ियों से होता था। इसलिये गुरुदत्त जी ने अपनी शिक्षा के साथ वैद्यक चिकित्सा का ज्ञान सहज हो गया और आगे चलकर उन्होंने आजीविका के लिये यही मार्ग अपनाया । पिता आर्यसमाज से जुड़े थे । माता सुहावी देवी वैष्णवी आस्थाओं के प्रति समर्पित एक विदुषी महिला थीं। इसलिये बहुआयामी आस्था, वैचारिक समन्वय, चिंतन और अध्ययनशीलता गुरुदत्त जी को अपने परिवार के संस्कारों में मिली ।
उनकी पढ़ाई लाहौर में हुई । 1915 में उन्होंने रसायन शास्त्र में एम.एस.सी. किया और नेशनल कालेज में शिक्षक की नौकरी कर ली । दिसम्बर 1917 में गुरुदत्त जी विवाह यशोदादेवी से हुआ । समय के साथ वे पाँच सन्तानों के पिता बने । गुरुदत्त जी ने 1919 में रसायनशास्त्र में शोधकार्य प्रारम्भ किया । पर वह पूरा न हो सका । 1920 में स्वतंत्रता संग्राम तेज हुआ असहयोग आँदोलन का आव्हान हुआ । गुरुदत्तजी भी आँदोलन से जुड़ गये । किसी वे प्रकार गिरफ्तारी से तो बचे पर नौकरी न बचा सके । आँदोलन के दौरान उनका संपर्क लाला लाजपत राय जी से बढ़ा और लाला जी द्वारा आरंभ व्यवसायिक प्रतिष्ठान से गुरुदत्त जी भी जुड़ गए। 1927 में लाहौर छोड़कर उत्तर प्रदेश में अमेठी आ गए। गुरुदत्त जी यहाँ राजपरिवार के उपचार के लिये आये थे लेकिन कुंवर रणंजयसिंह के निजी सचिव के रूप में यहीं कार्य करने लगे । उन्हें यहाँ इतिहास पढ़ने और रजवाड़ों के जीवन का व्यवहारिक अध्ययन करने का अवसर मिला और उनके लेखन में यह विधा भी जुड़ गई। वे अमेठी में दिसम्बर 1931 तक रहे । फिर नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गये । लखनऊ आकर आयुर्वेद चिकित्सा औषधालय आरंभ किया । किन्तु यह औषधालय न चल सका और नवम्बर 1932 में लाहौर लौट आए । लाहौर आकर नया औषधालय खोला । परिवार की पृष्ठभूमि के चलते यहाँ औषधालय अच्छा चलने लगा । फिर भी 1937 में दिल्ली आ गये । दिल्ली में वैद्य आनंद स्वामी का मार्गदर्शन लेकर चिकित्सीय कार्य आरंभ किया । वैद्य आनंद स्वामी मूलतः लाहौर के ही रहने वाले थे, आर्यसमाज से जुड़े थे और लाहौर हिन्दू महासभा के मंत्री भी रहे थे। दिल्ली में स्वामीजी का चिकित्सालय बहुत प्रतिष्ठित था । वे अपना यह औषधालय गुरुदत्त को सौंपकर गाजियाबाद चले गये । गुरुदत्त जी ने इस औषधालय को और उन्नत किया । उन्होने अनेक असाध्य रोगी ठीक किये इससे उनकी ख्याति बढ़ी आर्थिक संपन्नता भी। समय के साथ बड़ा बेटा सत्यपाल भी वैद्य बने और सहयोगी के रूप में चिकित्सकीय कार्य संभालने लगे । इससे गुरुदत्त जी को लेखन में अधिक समय मिलने लगा । दिसम्बर 1965 में पत्नि यशोदा देवी का निधन हो गया।पत्नि के निधन का उनपर गहरा प्रभाव पड़ा । यशोदा देवी पूरी गृहस्थी तो संभालती ही थीं साथ ही उनके लेखकीय कार्य में भी सहयोगी रही । विषय का चयन, सामग्री जुटाने और अशुद्धि सुधारने में भी उनका सहयोग रहता था । इसके बाद उनका चिकित्सालय जाना बहुत कम हो गया था लेकिन लेखन कार्य यथावत रहा ।
साहित्य साधना से सामाजिक जागरण
उनका रचना संसार असीम है । उपन्यास, संस्मरण, जीवनचरित, इतिहास, धर्म, संस्कृति, विज्ञान, राजनीति और समाजिक ऐसा कोई विषय नहीं जिसपर उनका लेखन न किया हो । उनका लेखन असाधारण है । एक प्रकार की शोध रचनाएँ हैं। ‘धर्म, संस्कृति और ‘वेदमंत्रों के देवता’ लिखकर उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषता का सरल भाषा में विवेचन किया। उन्होंने भगवद्गीता, उपनिषदों और दर्शन-ग्रंथों पर भी भाष्य लिखा। ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ और ‘इतिहास में भारतीय परम्पराएं’ नामक पुस्तकों में उनकी प्रखर प्रतिभा स्पष्ट है । वैद्य गुरुदत्त उन विरले साहित्य शोध कर्ताओं में हैं जिन्होंने कतिपय इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास लेखन की विसंगतियों पर तीखे प्रहार किये । “देश की हत्या” एवं “विश्वासघात” जैसी पुस्तकों में गाँधी जी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनैतिक निर्णयों पर तीखी आलोचना की । ‘विज्ञान और विज्ञान’ तथा ‘सृष्टि-रचना’-जैसी पुस्तकों में भारतीय दर्शन का वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्पष्ट किया । ‘धर्म तथा समाजवाद’ पुस्तक में सामाज जीवन के सामाजिक पक्ष का आदर्श स्पष्ट विवेचन किया । तो “मैं हिन्दू हूँ” और ‘स्व अस्तित्व की रक्षा’, पुस्तकों में मानव के प्राकृतिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुये “कम्यूनिज्म” को एक प्रकार से अप्राकृतिक प्रमाणित किया। ‘धर्मवीर हकीकत राय’, ‘विक्रमादित्य साहसांक’, ‘लुढ़कते पत्थर’, ‘पत्रलता’, ‘पुष्यमित्र’, आदि ऐतिहासिक उपन्यास, ‘वर्तमान दुर्व्यवस्था का समाधान हिन्दू राष्ट्र’, ‘डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अन्तिम यात्रा’, ‘हिन्दुत्व की यात्रा’, ‘भारत में राष्ट्र’, ‘बुद्धि बनाम बहुमत’ जैसी अनेक वैचारिक यथार्थ की कृतियाँ हैं । ये रचनाएँ अनेक प्रकार के भ्रमों को तोड़कर पाठक को झकझौर देतीं हैं ।
गुरुदत्त जी 1921 के असहयोग आन्दोलन से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष तक की घटनाओं के प्रत्यक्षद्रष्टा रहे। जब वे लाहौर नेशनल कॉलेज में हेडमास्टर थे तब सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इनके सबसे प्रिय शिष्य हुआ करते थे । गुरुदत्त जी को क्राँतिकारियों का गुरु भी कहा जाता था । गुरुदत्त जी ने परतंत्र देश की परिस्थतियों, परतंत्रता से मुक्ति का संघर्ष और संघर्ष काल में लिये गये निर्णयों और उनके परिणामों का गहराई से अध्ययन किया। फिर उस पर कलम चलाई । इसलिये उनकी रचनाएँ कालजयी हैं। अनेक रचनाओं पर अंग्रेजी काल में प्रतिबंध भी लगा। स्वतंत्रता आँदोलन में गरम दल के नेताओं से भी उनका व्यक्तिगत संपर्क रहा । उनका संपर्क ही उनके लेखन में घटनाओं के सटीक विश्लेषण में सहायक रहा । इसकी झलक वैद्य गुरुदत्त जी के ‘सदा वत्सले मातृभूमे’ श्रृंखला में लिखे गये चार राजनीतिक उपन्यासों में मिलती है ये उपन्यास हैं ‘विश्वासघात’, देश की हत्या, ‘दासता के नये रूप’ और ‘सदा वत्सले मातृभूमे! इन रचनाओं की पृष्ठभूमि समाचार-पत्रो में छपे तत्कालीन समाचार, नेताओं के वक्तव्य है। उपन्यासों के पात्र राजनीतिक नेता तथा घटनाएं वास्तविक हैं। भारत-विभाजन की विभीषिका का यदि किसी इतिहासकार ने निर्भीक वर्णन किया है तो वे वैद्य गुरुदत्त हैं। भारत विभाजन पर उनकी पुस्तक ‘भारत: गाँधी-नेहरू की छाया में’ उनके प्रखर चिंतन का प्रमाण है।
वैद्य गुरुदत्त बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी है । उनका सम्पूर्ण रचना संसार भारत राष्ट्र, संस्कृति, परंपरा के गौरवमयी अतीत से परिचित कराता है तो राजनीति के विसंगति पूर्ण निर्णयों से भविष्य की सावधानी का संकेत मिलता है ।
जीवन के अंतिम दिनों में शारिरिक रूप से बहुत अशक्त हो गये थे । चलने, सुनने, देखने आदि की सामर्थ्य बहुत कमजोर हो गई थी फिर भी लेखन से लगाव बना रहा । और सतत चिंतन मनन के साथ 8 अप्रैल 1989 को संसार से विदा हुये । पर उनका रचना संसार आज भी समाज की एक धरोहर है ।