बीच बहस में

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प्रेमकुमार मणि

कल आंबेडकर विषयक मेरे एक पोस्ट पर कुछ मित्रों की आयी प्रतिक्रिया से मैं इस चिन्ता में आ गया कि आज भी हमारे समाज में सोचने का स्तर कितना नीचे है. मेरे पोस्ट में दो बातें थी. एक तो मैंने अमित शाह द्वारा दिए गए आंबेडकर विषयक वक्तव्य पर अपनी राय रखी थी कि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था कि इस तरह देशव्यापी धरना-प्रदर्शन किए जाएँ. इसका मतलब यह भी नहीं था कि उस वक्तव्य का मैं समर्थन कर रहा हूँ. कुछ ऐसी बातें होती हैं कि उसी क्षण उसका जवाब दिया जाय और बात ख़त्म. बतंगड़ बनाने का एक राजनीतिक मकसद होता है. प्रधानमंत्री मोदी जाने कितनी बार नेहरू और दूसरे पर अनर्गल बोल गए हैं. सबका जवाब देना आवश्यक नहीं होता. अमित शाह उत्तेजना में बोल गए. इसपर बवाल काटना अनावश्यक था. मेरा मानना है इससे अंततः भाजपा को लाभ होगा और कांग्रेस को नुकसान. संभव है मेरा आकलन गलत हो. लेकिन मुझे जो अनुभव हुआ उसे सार्वजनिक करने का अधिकार मुझे शायद होना चाहिए.

भाजपा चाहती है कि एक खास तरह का मतदाता-मंडल जो कांग्रेस के पास रहा है, वह हमारे पास आ जाए. इस प्रयास में वह पिछले तीन दशकों से लगी हुई है. इसमें उसे सफलता भी मिली है. हिंदी इलाके के शहरी और ग्रामीण तबके के अभिजन मतदाताओं पर कांग्रेस की पकड़ थी. इस मतदाता-मंडल के साथ दलितों, मुसलमानों और हासिये के अन्य मतदाताओं के साथ उसकी राजनीतिक जुगलबंदी थी. इतने भर से वह सत्ता में आ जाती थी. इस मतदाता-मंडल में बड़े स्तर पर सेंध रामजन्मभूमि आंदोलन में लगा. भाजपा ने पहले दौर में सवर्णों के गंवार मतदाताओं को आकर्षित किया. यह कांग्रेस का वोटबैंक था. परिणाम 1989 के लोकसभा चुनाव में आया. 1984 में केवल 02 सीटें हासिल करने वाली भाजपा अब केंद्र में सरकार बनाने और बिगाड़ने की स्थिति में थी. उसके बाद उसका रैखिक विकास होता गया. कारण सब जानते हैं. मंडल कमीशन का प्रसंग जब आया तब कांग्रेस नेता राजीव गाँधी असमंजस में थे. भाजपा ने सीधे तौर पर उसका विरोध नहीं किया, लेकिन जन्मभूमि मामले को लेकर सोमनाथ यात्रा निकाली और ऐसी स्थितियां पैदा कर दी कि विश्वनाथ प्रताप सरकार से समर्थन वापस लेने का उसका औचित्य सिद्ध हो सके. यह सब लालकृष्ण आडवाणी की रणनीति थी. इससे कांग्रेस के शहरी और अभिजन सवर्ण मतदाता भी भाजपा के नजदीक हुए. इस दौर में वाजपेयी कुछ समय केलिए भाजपा में उपेक्षित अनुभव कर रहे थे. लेकिन 1996 के चुनाव के पहले आडवाणी ने उन्हें नेता घोषित कर भाजपा आधार को कुछ और मजबूत कर दिया. भाजपा के नये मतदाताओं को नेहरू का प्रतिरूप चाहिए था. वाजपेयी के रूप में वह मिला. नेहरू अपने दौर में अच्छों के बीच अधिक अच्छे थे, वाजपेयी बुरोँ के बीच कम बुरे. हिन्दू मध्य वर्ग ने उन्हें हरी झंडी दे दी. 1996 में तेरह रोज और 1998 से 2004 तक वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार रही. 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग की सरकार रही. तब मोदी आये, जिन्होंने भाजपा के मंच से खुलेआम अपने पिछड़ी जाति के होने का उद्घोष किया. इस अभियान में लालू मुलायम कांशी राम सब की छवि मोदी में देखी जा सकती थी जैसे वाजपेयी में नेहरू की छवि देखी जा सकती थी. यह संघ की नयी राजनीति थी. अनार्य विजय की रणनीति. इसमें बानर-भालुओं का साथ अपेक्षित था. इसमें उन्हें सफलता मिली. इस तरह तीन दशकों में भाजपा ने हिन्दुओं के सभी पक्षों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की. इसके लिए प्रेम और नफरत, छल-छद्म सब जरूरी था. बिना किसी लोकतान्त्रिक नैतिकता का ख्याल करते हुए भाजपा ने यह सब किया. नतीजा सामने है.

कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई. इस विषय पर मैं पहले लिख चुका हूँ. कांग्रेस गहरे रूप से विचारहीनता की शिकार तो है ही, कुशल नेतृत्व भी उसके पास नहीं है. राहुल गांधी व्यक्ति तौर पर मुझे भले अनुभव होते हैं. कुछ ज्यादा ही भले हैं. उनके लिए मेरे मन में मोह है. लेकिन वह राजनीतिक बिलकुल नहीं हैं. एक व्यक्ति के तौर पर अराजनीतिक होना उसका गुण होता है. लेकिन राजनीति केलिए, जैसा कि मैकियावेली ने अपनी किताब ‘ प्रिंस ‘ में लिखा है, उसका चरित्र कीरोन की तरह होना चाहिए. कीरोन हमारे गणपति की तरह ग्रीक पौराणिकता का देवता है जो आधा मनुष्य और आधा घोडा होता है. मैकियावेली मानता है कि भावी राजा को आधा ही इंसान होना चाहिए.

आंबेडकर प्रसंग पर कांग्रेस ने देशव्यापी धरना प्रदर्शन कर अपनी छीछालेदर की है. कांग्रेस अनेक परिवर्तनों के बाद आज जहाँ है वह आम्बेडकर और नेहरू की सोच को केन्द्रक मान कर आगे बढ़ सकती थी. आंबेडकर और नेहरू में अनेक बिंदुओं पर साम्य है. दोनों लगभग हमउम्र थे. सामाजिक तौर पर एक दलित और दूसरे ब्राह्मण. दोनों अपने दायरे से बाहर आना चाहते हैं. नेहरू को अपने ब्राह्मणत्व से बाहर आने की फ़िक्र है, तो आम्बेडकर को अपने दलितपन से. दोनों की उच्च शिक्षा यूरोप में हुई. इंग्लैंड के संसदीय विकास, अमेरिकी स्वातंत्र्य आंदोलन और फ्रांसीसी क्रांति से दोनों प्रभावित थे. दोनों बुद्ध से भी प्रभावित थे. दोनों साइंटीफिक टेंपरामेंट की वकालत करते थे. यही नहीं भारत की सामाजिक व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन के दोनों हामी थे. यहाँ तक कि गांधीवाद के दोनों आलोचक रहे. व्यक्ति तौर पर नेहरू का गांधी से मोह था. पिता के मित्र होने और कई कारणों से वह उन्हें पिता समान मानते रहे. लेकिन उनके विचारों से अपने मतभेद को कभी छुपाया भी नहीं. नेहरू की आत्मकथा 1936 में ही प्रकाशित हो चुकी थी. इसमें गांधीवाद के प्रति उनकी गहरी अनास्था और उनके जादुई व्यक्तित्व के प्रति उतनी ही आस्था देखी जा सकती है. आंबेडकर को गॉंधी का व्यक्तिगत स्नेह नहीं मिला. लेकिन व्यक्ति गॉंधी के बारे में उनके विचार सम्मानपूर्ण थे. हाँ, उन्हें यह अवश्य महसूस होता रहा कि गॉंधी आधे ही संत हैं. आधे राजनेता हैं. उनकी कामना रही कि काश गॉंधी पूरे तौर पर संत होते. ( गाँधी ने गुरु द्रोण की तरह नेहरू को निष्कंटक रखने केलिए दो एकलव्यों को अंगूठा विहीन किया. एक आंबेडकर और दूसरे सुभाष बोस.)

क्या ही अच्छा होता कांग्रेस एक बड़े खुले अधिवेशन में नेहरू और आम्बेडकर की वैचारिकता को पुनर्जीवित करने, दोनों के बीच विचारसेतु बनाने और उनके सपनों का भारत विकसित करने का संकल्प लेती. जगह-जगह गोष्ठियां आयोजित होती और नए नए लोग जुड़ते. लेकिन कल जिस तरह आम्बेडकर के फोटो प्रदर्शन हुए उससे भक्ति-प्रदर्शन तो होगा, कोई राजनीतिक चेतना नहीं विकसित होगी. अंततः इन सब का लाभ भाजपा और बसपा जैसे दलों को मिलेगा, कांग्रेस को नुकसान के अलावे कुछ दूसरा हासिल नहीं होगा. मेरी इस भावना को मेरे मित्र नहीं समझ सके तो मैं क्या कर सकता हूँ.

(सोशल मीडिया से)

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