भारत भूमिमात्र नहीं है, अपितु भारत के लोग ही भारत है, यह बात प्रायः उन पर आक्षेप की शैली में भी कही जाती है, जो राष्ट्र की भूमि को ही राष्ट्र समझते हैं। भूमि तो राष्ट्र है ही, इसमें कोई संशय नहीं, किन्तु उसके आगे—उस भूमि में रहने वाले लोग भी राष्ट्र हैं। कदाचित् यह भी अनुभव में आता है कि यह आक्षेप भी वस्तुतः एक तरह की नारेबाजी में परिणत हो गया है, क्योंकि इनके लिए लोग केवल हाड़-मांस के लोथड़े हैं, जिनका कोई मन या बुद्धि नहीं है। राष्ट्र भूमि भी है, लोग भी हैं, किन्तु शरीरमात्र तक सीमित लोग ही नहीं। उनके तन पर कपड़ा, सिर पर छत और पेट में अन्न की चिन्ता करणीय है ही, साथ-साथ उनके मन और बुद्धि की निजता की भी रक्षा की जानी है। श्रीअरविन्द की राष्ट्रीयता इन तीनों स्तरों को लिए हुए भी है और इसे अतिक्रान्त किये हुए भी है। श्रीअरविन्द का आर्षत्व भारत के दर्शन में है। उनके आर्षत्व में भारत का वेद और लोक—दोनों प्रकाशित हैं। न तो अंग्रेज भारत की भूमि पर अधिकार करके रूक गये थे और न हमारा स्वतन्त्रता आन्दोलन केवल भूमि की मुक्ति का आन्दोलन था। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का आन्दोलन एक साथ उन सभी बन्धनों के विरुद्ध विभिन्न दिशाओं में उठ खड़ा हुआ था, जो अनेक तरह से भारत के देह, मन और प्राणों को जकड़े हुए था। यह आन्दोलन उन बन्धनों के विरुद्ध भी था, जो हमारी अपनी दुर्बलताओं से जन्मे थे और दीर्घावधि से हमारे समाज को जकड़े हुए थे। अंग्रजों ने हमारी दुर्बलताओं का हमारे विरुद्ध उपयोग किया। राष्ट्र (जन) के मन और बुद्धि को औपनिवेशिक विमर्श के तहत फाँसने का जो क्रूर काम योरोपीय प्रज्ञा ने किया, वह अक्षम्य अपराध है।
श्रीअरविन्द उसको समझने और वास्तविकता को प्रकाश में लाने हेतु वेदभाष्य में प्रवृत्त हुए हैं। चूँकि, योरोपीय मनीषा भारत के वेद की व्याख्या करके इसके लोक को अपना उपनिवेश बनाने के षड्यन्त्र—चक्रव्यूह को रच चुकी थी, यह आवश्यक था।
योरोपीय विद्वान् वेद की आलोचना इस रूप में करते हैं कि वह धर्मपुस्तक इसलिए नहीं हो सकता है, क्योंकि उसमें लौकिक विषय आए हैं। वेददृष्टि में भौतिक और अभौतिक का अत्यन्त भेद नहीं है, जबकि वेदेतर दृष्टियों में भौतिक या लौकिक को दिव्य या अलौकिक से पूरी तरह से अलगाया जाता है। वेद और वेदेतर दृष्टि में यह आधारभूत भेद है। श्रीअरविन्द-भाष्य पर प्रथम बात यह कही जानी है कि उनका बोध यह था कि अतीन्द्रिय और इन्द्रियगोचर—एक ही विराट् सत्ता है। ऋषियों के बारे में श्रीअरविन्द का यह कथन प्रमाण है—
“…साथ ही यह आवश्यक नहीं कि उसका बाह्य लौकिक अर्थ केवल पर्दे का ही काम करे, क्योंकि ऋचाएँ उनके निर्माताओं द्वारा शक्ति के ऐसे वचन मानी गयी थीं, जो न केवल आन्तरिक वस्तुओं के लिए किन्तु बाह्य वस्तुओं के लिए भी शक्तिशाली थे। शुद्ध आध्यात्मिक धर्मग्रन्थ तो केवल आध्यात्मिक अर्थों से अपना वास्ता रखता, किन्तु ये प्राचीन रहस्यवादी साथ ही वे भी थे, जिन्हें ‘आकल्टिस्ट’ (गुह्यविद्यावित्) कहना चाहिए। ये ऐसे थे, जिनका विश्वास था कि आन्तर साधनों द्वारा आन्तरिक ही नहीं, बाह्य परिणाम भी उत्पन्न किये जा सकते हैं, विचार और वाणी का ऐसा प्रयोग किया जा सकता है जिससे इसके द्वारा प्रत्येक प्रकार की—स्वयं वेद में प्रचलित मुहावरे में कहें तो ‘मानुषी और दैवी’ दोनों प्रकार की—सिद्धि या सफलता प्राप्त की जा सकती है।”
श्रीअरविन्द की आर्ष दृष्टि से अतीन्द्रिय वेद और इन्द्रियगोचर लोक—दोनों प्रकाशित हैं।
श्रीअरविन्द ने वेद का भाष्य अंग्रेजी में लिखा है, जबकि संस्कृत में भवानी भारती जैसा खण्डकाव्य वह लिख चुके थे। भारत के देह को परास्त कर चुकी योरोपीय प्रज्ञा भारतीयों के अदम्य मन और अपराजेय बुद्धि पर अधिकार कर रही थी। यह अनेक जटिल युक्तियों और चालाकियों से भरा हुआ कार्य था। इसके अनेक चरण थे और जटिलता इतनी थी कि इस कार्य के जो विरुद्ध में थे, उन्हें भी अन्ततः इस सञ्जाल में समेट लिया जा रहा था। अंग्रेज जाति की इस कुत्सित परियोजना में एक महत्त्वपूर्ण चरण था—भारतीय-विचार की विविध दिशाओं में से उसे चुनना, उभारना और प्रोत्साहित करना, जो उनके ‘लक्ष्य की सिद्धि में’ अनुकूल है। वेद पर अंग्रेजों द्वारा करवाये कार्य इन्हीं पूर्वग्रहों से ग्रस्त हैं। वेदार्थ को यहाँ (भारत में) बहुत दृष्टियों से देखा गया है, जबकि अंग्रेज केवल उस सायण भाष्य को ही लेते हैं, जो मुस्लिमों के साथ संघर्ष में उलझे हुए विजयनगर साम्राज्य के मन्त्री आचार्य सायण के नेतृत्व में पण्डितों की एक टीम द्वारा किया गया था। योरोपीय विद्वान् सायण का यथावत् स्वीकार करतें तो अलग बात होती, परन्तु उन्होंने सायणभाष्य के एकदेश का ग्रहण किया। श्रीअरविन्द लिखते हैं—
“यूरोपीय विद्वानों ने कर्मकाण्डीय परम्परा को तो सायण से लिया परन्तु अन्य बातों के लिए इसको (सायण को) नीचे धकेल दिया। और वे अपने ढ़ंग से शब्दों की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या को लेकर चलते गये, या अपने ही अनुमानात्मक अर्थों के साथ वैदिक मन्त्रों की व्याख्या करते गये और उन्हें एक नया ही रूप प्रदान कर दिया, जो प्रायशः उच्छृङ्खल तथा कल्पनाप्रसूत था।”
इसका परिणाम किस रूप में सामने आया, इसे श्रीअरविन्द इन शब्दों में बताते हैं—
“वेद में उन्होंने जो कुछ खोजा, वह था भारत का प्रारम्भिक इतिहास, इसका समाज, संस्थाएँ, रीति-रिवाज और उस समय की सभ्यता का चित्र। उन्होंने भाषाओं के विभेद पर आधारित एक मत, एक परिकल्पना को घड़ा कि उत्तर के आर्यों के द्वारा द्राविड भारत पर आक्रमण किया गया था, जिसकी स्वयं भारतीयों में कोई स्मृति या परम्परा नहीं मिलती और जिसका भारत के किसी महाकाव्य या प्रमाणभूत साहित्य में कहीं कुछ उल्लेख तक नहीं पाया जाता।…ये जंगली प्रार्थनाएँ ही बहुप्रशंसित, इतना महिमायुक्त बनाया हुआ और दिव्यत्वारोपित वेद हैं।”
अपने इन पूर्वनिश्चित मन्तव्यों की प्रतिष्ठा के लिए पाश्चात्य प्रज्ञा ने अपनी वेददृष्टि के लिए तीन शास्त्रों का आविष्कार किया—एक, तुलनात्मक भाषाशास्त्र, तुलनात्मक गाथाशास्त्र, तुलनात्मक धर्म का शास्त्र। श्रीअरविन्द इन तीनों शास्त्रों का खण्डन करते हैं कि ये केवल अटकल पर आधारित हैं। श्रीअरविन्द अपने ग्रीक व लैटिन आदि भाषाओं के अध्ययन के आधार बड़ी स्पष्टता से भाषाशास्त्र के निष्कर्षों की व्यर्थता को बतलाते हैं। भारत की भाषायी विविधता और समुदायों की विविधता को ही भारतीयता नाम की किसी वस्तु के होने के विरुद्ध खड़ा करने का काम ये तीन शास्त्र करते हैं। आज हम सर्वत्र छोटी-छोटी अस्मिताओं को लेकर गौरव व द्वेष के उस भावद्वय को सरलता से पहचान सकते हैं, जो हमें बाँटता है तथा राष्ट्रीय दोषों व गुणों के लिए सामूहिक उत्तरदायित्व से मुख मोड़ना सिखाता है। वह इसी का परिणाम है।
फलतः, आधुनिक चिन्तन के आने के बाद वेद को लेकर यह समझ भारतीयों में सहज बन चुकी है कि—
1. मन्त्र के बाद, उपनिषद् उसकी प्रतिक्रिया में आयी है। मन्त्र ब्राह्मण कही जाने वाली जाति की थाति है और उपनिषद् क्षत्रिय नामक जाति की विचारधारा है। ब्राह्मण व क्षत्रिय कही जाने वाली दो जातियों को यहाँ आमने सामने खड़ा किया गया। बाद में उपनिषद् की प्रतिनिधि श्रमणधारा को कह दिया गया और ब्राह्मण-श्रमण विरोध को उभारा गया।
2. उत्तर भारतीय आर्य हैं और द्रविड दक्षिण भारतीय। वेद में कहे हुए दस्यु द्रविड ही हैं। ये दो नस्ल हैं। सवर्ण जातियाँ उत्तर के आर्य हैं और दलित कही जाने वाली जातियाँ दक्षिण के द्रविड हैं। वेद में जो दस्यु पर इन्द्र की विजय है, वह उत्तर भारतीय आर्यों की दक्षिण के द्रविडों पर विजय है। दक्षिण भारत उत्तर के आर्यों का उपनिवेश है। वेद आर्यों की औपनिवेशिकता का दस्तावेज है।
3. वेद के देव ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, यह पुराणों में कहा ही गया है। पाश्चात्य विद्वान् पुराणों को अविश्वसनीय घोषित करते हुए भी वेद के देवों के ऐतिहासिक व्यक्ति होने के उनके मत को प्रामाणिक मत के रूप में महत्त्व देते हैं, क्योंकि यह उनकी परियोजना के अनुकूल है।
श्रीअरविन्द स्पष्ट करते हैं कि वह स्वयं भी वेद के विषय में पाश्चात्य मत को मानने वाले थे, जब तक कि वेद को पढ़ा नहीं था। वह यह भी कहते हैं कि उन्हें वेद को पढ़ने की प्रेरणा दक्षिण भारत के लोक को देखने से मिली।
श्रीअरविन्द-भाष्य मन्त्र और उपनिषद् में एकतानता, निरन्तरता अर्थात् परम्परा का दर्शन करता है। यहाँ श्रीअरविन्द मन्त्रसंहिताओं से ब्राह्मण (विधि, आरण्यक, उपनिषद्—इस त्रयीरूप ब्राह्मण) को पृथक् तो मानते हैं, किन्तु उसमें वेद की निरन्तरता को देखते हैं। आर्य व द्रविड नस्ल को अस्वीकार करते हुए श्रीअरविन्द-भाष्य इस तरह के किसी इतिहास के वेद में होने का खण्डन करता है। यह अभिमत महर्षि दयानन्द सरस्वती के मत का स्वीकार है। दयानन्द सरस्वती पुराणों के अन्य प्रकार के समस्त महत्त्वों को नहीं जानते होंगे, यह नहीं कहा जा सकता, अपितु यह कहना उचित होगा कि पुराणों द्वारा की गयी वेद-मीमांसा के दूषित और सर्वथा भ्रान्त होने से उन्हें पुराण संसार का “प्रथमं गप्पम्” प्रतीत हुआ। वेद को समझने में सबसे बड़ी बाधा पौराणिक बोध ही है और वे हमारे पतनोन्मुखी काल की रचनाएँ हैं, अतएव उनमें आयी हुई समस्त अच्छाई के बावजूद, वैदिक बोध में बाधकता के कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती उन्हें त्याज्य घोषित करते हैं। अतएव श्रीअरविन्द की वेद के देव के सम्बन्ध में क्या दृष्टि है, यह उनके भाष्य की दृष्टि को जानने की कुञ्जी है—
“…देवता मानवदेह में होने वाले ऐन्द्रियिक व्यापारों के प्रतीक हैं।”
इळा व सरस्वती को श्रीअरविन्द पहले पौराणिक बोध से समझ रहे थे। वह कहते हैं कि तब तक उनके लिए सरस्वती विद्या की देवी थी और इळा चन्द्रवंश की माता थी। वैदिक बोध के पश्चात् इळा, सरस्वती और सरमा उनके लिए अन्तर्ज्ञानमयी बुद्धि के चार स्तरों में से क्रमशः तीन—स्वतः प्रकाश, अन्तः प्रेरणा, अन्तर्ज्ञान की प्रतीक हो जाती हैं। श्रीअरविन्द वेद और श्रुति में यह विवेक करते हैं कि मन्त्रसंहिताएँ ही वेद हैं, जबकि श्रुति में वेद की परम्परा भी शामिल है अर्थात् उपनिषदें भी श्रुति हैं। श्रुति के रूप में भारतीय विचारक मन्त्र से उपनिषद् तक की पूरी परम्परा को अखण्डित रूप में देखते हैं। पश्चिमी विद्वानों की इस धूर्तता को श्रीअरविन्द पकड़ते हैं, जो उपनिषदों के रचयिताओं पर वेद को महिमामण्डित करने का आरोप लगाते हैं। वे यह जतलाना चाहते थे कि वास्तव में तो वेद कहे जाने वाले मन्त्र नगण्य हैं, किन्तु परवर्ती उपनिषत्कारों ने उन पर अपने काल्पनिक अर्थों को चढ़ाकर उन्हें महान् बना रखा है। वेदान्त की दार्शनिक धारा इतनी व्यवस्थित और कुशाग्र है कि उसे निरस्त करना उनके लिए सम्भव नहीं था और न वे इस दार्शनिक धारा के स्रोत उपनिषद् को निरस्त कर पाते थे। फलतः, उपनिषदों के स्वीकार की आड़ में वेद की तुच्छता प्रतिपादित करने के उनके प्रयत्न थे—
“तो क्या वेदविषयक यह परम्परा केवल गप्प और हवाई कल्पना है, या बिल्कुल निराधार बल्कि मूर्खतापूर्ण बात है ? अथवा क्या यह तथ्य है कि वेद के बाद के कुछ मन्त्रों में उच्च विचारों का जो एक केवल क्षुद्र-सा भाग है, उसी के कारण यह परम्परा चली ? क्या उपनिषदों के रचयिताओं ने वैदिक ऋचाओं पर वह अर्थ मढ़ दिया है जो वहाँ असल में कहीं नहीं है, क्या उन्होंने अपनी कल्पना के द्वारा तथा मनमौजी व्याख्या के द्वारा उनमें से वह अर्थ निकाल लिया है ? आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् आग्रह करते हैं कि यह ऐसी ही बात है।”
इतना कहने के बाद श्रीअरविन्द जिस वाक्य को लिखते हैं, वह इनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह वाक्य यह है कि आधुनिक भारतीय मन को भी उन्होंने प्रभावित कर लिया है। पाश्चात्य मत के विपरीत महर्षि अरविन्द के अनुसार वेद ऐतिहासिक सङ्घर्षों के दस्तावेज नहीं हैं और उनमें एक नस्ल के द्वारा दूसरी नस्ल पर विजय नहीं दिखायी गयी है। वेद की पूरी संरचना प्रतीकों में बनी है। भारत में आर्य और द्रविड नामक दो नस्लें नहीं हैं। वेद आर्य नस्ल द्वारा द्रविड़ नस्ल पर विजय की गाथा नहीं है। उपनिषदें एक सातत्य, परम्परा के भीतर हैं, न कि वेद के विरुद्ध विद्रोह। उपनिषद् और मन्त्र एक ही परम्परा है। श्रीअरविन्द की भारतीय संस्कृति को समझने की पूरी दृष्टि इस पूरे वाक्य में समा गयी है—”वेद में एक गुह्य तत्त्व है और वह भारतीय सभ्यता, भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति का मूल स्रोत है।” महर्षि अरविन्द वेद के वचनों को गुह्य वचन (“निण्या वचांसि”) कहते हैं। पाश्चात्य व्याख्याकारों ने जिन मन्त्रों की नस्लवादी व्याख्याएँ कीं, उनके बारे में श्रीअरविन्द का मत हैं—”…कई बार तो अपने प्रतीकों के आन्तरिक अर्थों के विषय में ऋषियों के अपने सुस्पष्ट कथन मिल ही जाते हैं—और यदि हम अर्थपूर्ण कथानकों और रूपकों की व्याख्या उसी अभिप्राय में करें, जिस पर वे बार-बार लौट आते हैं, जैसे वृत्र पर विजय और वृत्रों (वृत्र की शक्तियों) के साथ युद्ध, सूर्य की, जलों की और गौओं की पणियों तथा अन्य दस्युओं से पुनर्मुक्ति, तो सम्पूर्ण ही ऋग्वेद अपने आपको ऐसे सिद्धान्त और साधनाभ्यास की पुस्तक के रूप में प्रकट कर देगा, जो (सिद्धान्त) निगूढ, गुह्य, आध्यात्मिक है… ”
वेद (ऋग्वेद) की यह व्याख्या पद्धति सायणाचार्य से बहुत प्राचीन काल में रही है और यास्क के निरुक्त में इसे देखा जा सकता है। श्रीअरविन्द उपनिषद् (जो कि ब्राह्मण का भाग है) में इस व्याख्या पद्धति को देखते हैं। श्रीअरविन्द इसी परम्परा को ग्रहण करके यज्ञ को समझाते हैं—”हमारा यज्ञ एक यात्रा है, तीर्थयात्रा है और एक युद्ध है—देवों के प्रति गमन है और हम भी उस यात्रा को करते हैं अग्नि को, आन्तरिक ‘ज्वाला’ को अपना मार्गशोधक और नेता (अग्रणी) बनाकर। हमारी मानवीय वस्तुएँ उस रहस्यमय अग्नि के द्वारा अमर सत्ता के अन्दर, बृहद् द्यौ के अन्दर उठायी जाती हैं, उठाकर लायी जाती हैं और दिव्य वस्तुएँ हमारे अन्दर नीचे उतरकर आती हैं।”
यहाँ वेद के “अग्नि, यज्ञ, बृहद् द्यौ” का स्पष्टीकरण हो जाता है। श्रीअरविन्द के भाष्य की यह वह मूलदृष्टि है, जिससे उनके द्वारा किया गया पूरा भाष्य प्रकाशित है। उनके लिए वेदार्थ “रहस्य” है, जबकि पाश्चात्य विद्वानों के लिए ऐतिहासिक काल को जानने का एक दस्तावेज है। हमें यहाँ जानना चाहिए कि वेद का पाश्चात्य दृष्टि से भी अध्ययन भारतीय विद्वानों द्वारा किया गया है। हमारे सामने यह प्रश्न अवश्य आएगा कि क्या रहस्यमूलक वेदार्थ के होते हुए भी क्या उसमें क्या लोक-जीवन नहीं है ? और, यदि है तो क्या पाश्चात्य विद्वानों पर आक्षेप अनुचित नहीं है ? लोक है, लोकजीवन है, किन्तु ऋषि का तात्पर्य वहीं तक नहीं है। ऋषि किसी रहस्यार्थ को प्रतिपादित करते हैं। द सीक्रेट ऑफ वेदाज—यह नाम ही श्रीअरविन्द के वेदभाष्य की वेददृष्टि का परिचायक है।
श्रीअरविन्दभाष्य भारत की औपनिवेशिक व्याख्या का प्रतिरोध करता है। श्रीअरविन्द आर्य और दस्यु के अर्थों की पूरे वेद में पड़ताल करते हैं। इन दो शब्दों की निर्भ्रान्त स्पष्टता उनके भाष्य की महत्तम सिद्धि, कृतकृत्यता है। अक्रतु और अयज्यु पणियों या दस्युओं से सुक्रतु और सुयज्यु आर्यों के भेद के आधार को श्रीअरविन्द ने स्पष्ट जान लिया है और यह दर्शन ही उनका ऋषित्व है। कह सकते हैं कि—आर्यदस्यवोरर्थदर्शनाद् ऋषिः श्रीअरविन्दः। श्रीअरविन्द के अनुसार शब्द (दिव्य शब्द) ब्रह्म है और उसका गायक ब्रह्मा है। जो ब्रह्म अर्थात् शब्द से द्वेष करने वाले हैं, वे ही ब्रह्मद्विष दस्यु या पणि हैं। श्रीअरविन्द लिखते हैं—”और पणियों को हम संभवतः यह समझ सकते हैं कि ये वे शक्तियाँ हैं, जो जीवन की सामान्य अप्रकाशमान इन्द्रिय-क्रियाओं की अधिष्ठात्रियाँ हैं, जिनका सीधा मूल अन्धकारमय अवचेतन भौतिक सत्ता में होता है, न कि दिव्य मन में।”
यह कथन गहन है। रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्श आदि क्रियाएँ ही हमारा जीवन है, जो अप्रकाशमान है—एक प्रवाह में गति करने से। पणियों या दस्युओं का सम्बन्ध इन्हीं से है। इस कथन से आगे लिखते हुए श्रीअरविन्द स्पष्ट करते हैं कि वस्तुतः वेद में आर्य किन्हें कहा गया है—”मनुष्य का सारा संघर्ष इसके लिए है कि वह इस क्रिया को हटाकर इसके स्थान पर मन और प्राण की प्रकाशयुक्त दिव्य क्रिया ले आये जो ऊपर से और मानसिक सत्ता के द्वारा आती है। जो कोई इसके लिए अभीप्सा रखता है, इसके लिए यत्न करता है, युद्ध करता है, यात्रा करता है, जीवन की पहाड़ी पर आरोहण करता है, वह है आर्य।”
यह अर्थदर्शन श्रीअरविन्द का ऋषित्व है।
श्रीअरविन्द-भाष्य पौराणिकों और आर्यसमाज दोनों की वेददृष्टि से प्रत्यग्र और मौलिक है। पौराणिकों के लिए अग्नि यज्ञकुण्ड में जल रही भौतिक अग्नि है तो आर्यसमाजियों के लिए वह (अग्नि) कोई वैज्ञानिक तत्त्व है। श्रीअरविन्द इन दोनों मतों को वेदार्थ नहीं मानते हैं। अग्नि कौन है, इस पर विचार करते हुए वह कहते हैं—”यह यज्ञ की अग्नि नहीं है जो इन सब कार्यों को कर सके, न ही यह कोई भौतिक ज्वाला अथवा भौतिक ताप और प्रकाश का कोई तत्त्व हो सकता है। …यह स्पष्ट है कि हमारे सामने एक रहस्यमय प्रतीकवाद है, जिसमें अग्नि, यज्ञ, होता, ये सब एक गम्भीरतर शिक्षण के केवल बाह्य अलंकारमात्रल हैं और फिर भी ऐसे अलंकार हैं, जिनका अवलम्बन करना और निरंतर अपने सामने रखना आवश्यक समझा गया था।”
“यह (अग्नि) वह दिव्य शक्ति है जो लोकों का निर्माण करती है, वह शक्ति है जो सर्वदा पूर्ण ज्ञान के साथ क्रिया करती है, क्योंकि यह जातवेदस् (जातवेदाः) है, सब जन्मों को जानने वाली है, ‘विश्वानि वयुनानि विद्वान्’—यह सब व्यक्त रूपों और घटनाओं को जानती है अथवा दिव्य बुद्धि के सब रूपों और व्यापारों से यह युक्त है।”
इस विचार की पद्धति से श्रीअरविन्द वेद (ऋग्वेद को ही वह वेद कहते हैं।) के प्रथम सूक्त (अग्निसूक्त) की चार ऋचाओं के अर्थ का तात्पर्य इस रूप में पाते हैं—”अतिमानस और दिव्य ‘सत्य-चेतना’ का विचार, ‘सत्य’ की शक्तियों के रूप में देवताओं का आवाहन, इसलिए कि मर्त्य मन के मिथ्या रूपों में से निकालकर ऊपर उठायें, इस सत्य के अन्दर और इसके द्वारा पूर्ण भद्र और कल्याण की अमर अवस्था को पाना और दिव्य पूर्णता के साधन के रूप में मर्त्य का अमर्त्य के प्रति आभ्यन्तर यज्ञ करना तथा उसके पास जो कुछ है एवं वह अपने आप जो कुछ है, उसका उस यज्ञ में हवि-रूप में उत्सर्ग कर देना। शेष सब वैदिक विचार अपने आध्यात्मिक रूपों में इन्हीं केन्द्रभूत विचारों के चारों तरफ एकत्रित हो जाते हैं।”
ऋत और सत्य के विचार में अग्नि, मित्र, वरुण आदि देवताओं की व्याख्या श्रीअरविन्द भाष्य में हो जाती है। “मित्रं हुवे पूतदक्षं, वरुणं च रिशादसम्। धियं घृताचीं साधन्ता।। (1.2.7)” का भाष्य करते हुए श्रीअरविन्द मित्र के विशेषण पूतदक्ष और वरुण के विशेषण रिशादस पर विचार करते हुए कहते हैं—”दो बाधाएँ आती हैं, जो बुद्धि को ‘सत्य-चेतना’ का पूर्ण और प्रकाशमय दर्पण बनने से रोकती हैं। पहली तो है विवेक या विवेचनाशक्ति की अपवित्रता जिसका परिणाम ‘सत्य’ में गड़बड़ी पड़ जाना होता है। दूसरे वे अनेक कारण या प्रभाव हैं जो ‘सत्य’ के पूर्ण प्रयोग को सीमा में बाँधकर अथवा इसे व्यक्त करने वाले विचारों के सम्बन्धों और सामञ्जस्यों को तोड़कर सत्य की वृद्धि में हस्तक्षेप करते हैं और इस प्रकार, परिणामतः, इसके विषयों में दरिद्रता और मिथ्यापन ले आते हैं। जैसे जैसे देवता वेद में ‘सत्य-चेतना’ से अवतरित हुई उन विश्वव्यापी शक्तियों के प्रतिनिधि हैं जो लोकों के सामंजस्य का और मनुष्य में उसकी वृद्धिशील पूर्णता का निर्माण करती हैं, ठीक वैसे ही जो विरोधी शक्तियां इन उद्देश्यों के विरोध में काम करनेवाले प्रभावों का प्रतिनिधित्व करती हैं वे ‘दस्यु’ और वृत्र है, जो तोड़ना, सीमित करना, रोक रखना और निषेध करना चाहती है। वरुण की वेद में सर्वत्र यह विशेषता दिखलायी गयी है कि वह विशालता तथा पवित्रता की शक्ति है; इसलिए जब वह मनुष्य के अन्दर ‘सत्य’ की जागृत शक्ति के रूप में आकर उपस्थित हो जाता है तब उसके संस्पर्श से वह सब जो दोष, पाप, बुराई के प्रवेश द्वारा स्वभाव को सीमित करनेवाला और क्षति पहुंचानेवाला होता है, विनष्ट हो जाता है। वह रिशादस् है, शत्रुओं का, उन सबका जो वृद्धि को रोकना चाहते हैं, विनाश करनेवाला है। मित्र जो वरुण की तरह ‘प्रकाश’ और ‘सत्य’ की एक शक्ति है, मुख्यतया ‘प्रेम’, ‘आह्लाद’, ‘समस्वरता’ का द्योतक है, जो वैदिक निःश्रेयस् मयस् का आधार हैं। वरुण की पवित्रता के साथ कार्य करता हुआ और उस पवित्रता को विवेक में लाता हुआ वह विवेक को इस योग्य कर देता है कि यह सब बेसुरेपन और गड़बड़ी से मुक्त हो जाये तथा दृढ़ और प्रकाशमय बुद्धि के सही व्यापार को स्थापित कर सके।”
वेदार्थ क्या है, यह श्रीअरविन्द-भाष्य के इन कुछ उद्धरणों से हम अनुमान कर सकते हैं। वेदार्थ करने की वह पूरी दृष्टि ही यहाँ निरस्त हो जाती है, जो वेद में ऐतिहासिक संघर्षों की कहानी को आधार बनाकर रची जाती है। वेद हमारे सामने अध्यात्म की गंभीर कृति के रूप में आते हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का प्रथम मन्त्र पाठ्यक्रमों में निर्धारित होने से सुप्रसिद्ध है—अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।। श्रीअरविन्द भाष्य इस मन्त्र के पुरोहितम् को समस्तपद नहीं, अपितु दो पद मानता है। पुरः अर्थात् सम्मुख हितः अर्थात् निहित या रखा हुआ। इन दोनों शब्दों का अर्थ होता है—सामने रखा हुआ अग्नि। इस तरह ऋग्वेद के वेदार्थ पर विचार की मौलिक दृष्टि श्रीअरविन्द भाष्य देता है। किन्तु, हमें यह ध्यान रहना चाहिए कि श्रीअरविन्द पूरे ऋग्वेद पर काम करने की दृष्टि ही देकर गये हैं, उस दृष्टि से करने योग्य कार्य को परवर्ती पीढ़ियों के लिए छोड़ गये हैं।
(2)
श्रीअरविन्द का समग्र बौद्धिक कर्म योरोपीय औपनिवेशिक विमर्श के द्वारा भारतीयों के मन में पैदा हुए वैमनस्य और अविश्वास के मूल कारणों की समझ प्रदान करता है। श्रीअरविन्द का वेदभाष्य हमारे लिए तभी खुल सकेगा, जब हम उनके लोकभाष्य को समझने का यत्न करेंगे। श्रीअरविन्द प्राचीन भारत के नहीं, जीवन्त (वर्तमान) भारत के व्याख्याकार है। भारतीय कला, भारतीय साहित्य, भारतीय सभ्यता और भारतीय शासन व्यवस्था पर लिखे उनके निबन्धों में वेद स्वयं लोक में उतरता है। श्रीअरविन्द जिस अध्यात्म के व्याख्याता हैं, वह जीवन के लिए है, जीवन से परे नहीं। श्रीअरविन्द कहते हैं—”उपनिषदों ने जीवन से इंकार नहीं किया, वरन् वे तो यह मानती थीं कि जगत् शाश्वत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है,…बौद्धधर्म इसके बाद आया और उसने इन प्राचीन शिक्षाओं के एक ही पहलू को ग्रहण कर जीवन की अनित्यता और सनातन की नित्यता के बीच एक तीव्र आध्यात्मिक और बौद्धिक विरोध की सृष्टि की, जिसने वैराग्यवादीय अति को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया और उसे एक सिद्धान्त का रूप दे ड़ाला। परन्तु समन्वयशील हिंदू मन ने इस निषेध के विरुद्ध संघर्ष किया और अन्त में बौद्धधर्म को बहिष्कृत कर दिया।”
बौद्ध मत का भारत से ह्रास क्यों हुआ, यह हमारे लिए यहाँ विवेच्य नहीं है। यहाँ प्रासंगिक है कि श्रीअरविन्द पार्थिव जीवन को स्वीकारते हैं या नहीं, इसकी पड़ताल करना। इस उद्धरण से हम स्पष्ट समझ सकते हैं कि जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टि की पराकाष्ठा तक पहुँचे “वैराग्य” को भी वह अस्वीकार करते हैं। सबसे मुख्य जीवन है। उससे अधिक पवित्र और परम कुछ भी नहीं है। प्रसंगवश, यह भी हमें यहाँ कहना चाहिए कि जीवन को प्रधानता देने से श्रीअरविन्द जीवन्त (वर्तमान) भारत मन के प्रतिनिधि हैं। यदि किसी को श्रीअरविन्द में अतीतबद्धता दिखती है तो यह उनकी दृष्टिहीनता ही है। अथवा जिन्हें अतीत-मुग्धता के कारण श्रीअरविन्द श्रद्धेय व रम्य लगते हों, उनके लिए श्रीअरविन्द का प्रकाश कभी प्राप्तव्य नहीं हो सकता है। श्रीअरविन्द कहते हैं—”यदि वह (जाति/राष्ट्र) केवल मृत युग की शक्तियों को ही स्नेह के साथ संजोये और भविष्य की शक्तियों को अपने से दूर हटा दें, यदि अतीत जीवन को भावी जीवन की अपेक्षा अधिक पसंद करें तो कोई भी चीज अवश्यम्भावी विघटन या विध्वंस से उसकी रक्षा नहीं कर सकेगी, यहाँ तक कि विपुल शक्ति, साधन संपदा और बुद्धि, जीवन के लिए आह्वान करने वाली शत-शत पुकारें और निरन्तर प्रदान किये गये अवसर भी उसे विनाश से नहीं बचा सकेंगे।”
इतनी कठोर और स्पष्ट चेतावनी श्रीअरविन्द देते हैं कि उसका प्रभाव परवर्ती भारत पर होता है और वह अपने जीवन के लिए पूरी नयी संरचना को बनाता है। श्रीअरविन्द के अनुसार जीवन के लिए हमें नये क्रियाशील सत्यों की खोज करनी होती है और वे प्राचीन आदर्श के सीमित सत्य के घेरे में आबद्ध हों, यह आवश्यक नहीं।
श्रीअरविन्द एक कल्पना हमें देते हैं कि दार्शनिक युग के एक ग्रीक और उपनिषत्काल के एक भारतीय को यदि इस समय लाया जाएं तो उन दोनों की अपने अपने विश्व के प्रति क्या प्रतिक्रियाएँ होंगी। ग्रीक की प्रतिक्रिया का अनुमान वह इस तरह करते है कि वह तीन प्रकार से प्रतिक्रिया देगा। पहली प्रतिक्रिया आश्चर्यचकित होकर सराहना की होगी, दूसरी प्रतिक्रिया में वह पहले की भाँति विस्मित और मुग्ध न होकर अभिभूत और विमूढ़ होगा। तीसरी प्रतिक्रिया में वह मुँह फेर लेगा। श्रीअरविन्द कहते हैं कि बुद्धि की अपरिमित प्राप्तियों, मन के विस्तार, जिज्ञासा की अक्षय प्रवृत्ति और अनंत सिद्धान्तों की रचना करने और विवरण देने की शक्ति से आश्चर्यचकित रह जाएगा और विज्ञान की उन्नति, आविष्कारों, यंत्रों की सूक्ष्मता और आविष्कारों की अद्भुत-कर्मा शक्ति की सराहना करेगा, परन्तु आधुनिक जीवन की विराट् हलचल पर वह मुग्ध नहीं होगा, उससे विमूढ होगा एवं इसकी कुरूपता, असभ्यता, इसके विकृत बाह्य उपयोगितावाद, प्राणिक भोगों के लिए कलह-कोलाहल आदि को देखकर वह घृणा से मुँह मोड़ लेगा।
श्रीअरविन्द कहते हैं कि यदि उपनिषत्काल, बौद्धकाल या परवर्ती उच्च साहित्यिक युग के भारतीय को आधुनिक भारत में लाया जाएं तो उसे और भी अधिक विषादकारी अनुभव होगा—” उसे यह देखकर आश्चर्य होगा कि जब इन लोगों को प्रेरित करने, ऊँचे उठाने तथा और भी महत्तर पूर्णता एवं आत्म-अतिक्रमण की ओर ले चलने के लिये इतना अधिक मौजूद था तब भला कैसे ये इस निःशक्त और जड़ अस्तव्यस्तता में आ गिरे और,…यह देखेगा कि मेरी जाति भूतकाल के बाह्य आचारों, खोखली और जीर्ण-शीर्ण वस्तुओं से चिपकी हुई है और अपने उदात्ततर तत्त्वों का नौ-दशांश खो बैठी है।… जो महान् सभ्यता अपने को अवस्थाओं के अनुकूल बनाने में पटु थी, जो दूसरों से ग्रहण की हुई वस्तु को आत्मसात् करने और फिर उससे दसगुना प्रतिदान करने की क्षमता रखती थी, उस सभ्यता के स्थान पर वह एक ऐसी असहाय सभ्यता को देखेगा जो बाह्य जगत् की शक्तियों को और विरोधी परिस्थिति के दबाव को निष्क्रिय भाव से या केवल कुछ एक निष्प्रभावी आकस्मिक प्रतिक्रियाओं के साथ सहन करती है।”
श्रीअरविन्द जैसा सत्यान्वेषी ऋषि अच्छी तरह जानता है कि “यह दावा करना सर्वथा निरर्थक है कि प्राचीन युग की, यहाँ तक कि उसके अत्यंत गौरवमय काल की भी, सभी वस्तुएँ पूर्ण रूप से सराहनीय थीं और वे मानव मन एवं आत्मा की परमोच्च कोटि की प्राप्तियाँ थीं।… न तो हमें अपने अधःपतन, की झूठी बड़ाई करनी चाहिये या उसपर मुलम्मा ही चढ़ाना चाहिये और न ही विदेशियों की वाहवाही लूटने के लिये अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मारनी चाहिये, बल्कि हमें अपनी असली दुर्बलता तथा इसके मूल कारणों की ओर ध्यान देना चाहिये, पर साथ ही अपने शक्तिदायी तत्त्वों एवं अपनी स्थायी शक्यताओं पर और अपना नव-निर्माण करने की अपनी क्रियाशील प्रेरणाओं पर हमें और भी दृढ़ मनोयोग के साथ अपनी दृष्टि गड़ानी चाहिये।”
श्रीअरविन्द की आर्षदृष्टि सर्वस्वीकार या सर्वनकार की अविवेकिता, अनोचनात्मक दृष्टि से सहमत नहीं है। वह विचार और उसके निर्णयानुसार ग्रहण और त्याग की दृष्टि को महत्त्व देती है। श्रीअरविन्द ने भारत के लिए जो “मार्ग” खोजा है, वह है—”हम जो कुछ है और जो कुछ बन सकते हैं एवं जो कुछ बन सकने का हमें यत्न करना चाहिए—इन दोनों के बीच की बड़ी भारी खाई को हमें देखना-समझना होगा। परन्तु यह हमें किसी प्रकार के अनुत्साह के भाव के साथ या अपने अस्तित्व से या अपनी आत्मा के सत्य के इनकार करने की वृत्ति को लेकर नहीं करना होगा, बल्कि यह देखने के लिए करना होगा कि हमें अभी कितनी दूर तक प्रगति करनी है।…अज्ञानपूर्ण पाश्चात्य आलोचना के विरुद्ध अपनी संस्कृति के समर्थन करने और आधुनिक युग के भीषण दबाव से इसकी रक्षा करने का साहस सबसे पहली वस्तु है, परन्तु इसके साथ ही अपनी संस्कृति की भूलों को, किसी यूरोपियन दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अपने निजी दृष्टिकोण से स्वीकार करने का साहस भी होना चाहिए। अवनति या विकृति से संबंधित समस्त बातों को एक ओर छोड़ देने पर भी हमारे जीवन-संबंधी सिद्धांतों और सामाजिक प्रथाओं में कुछ ऐसी चीजें हैं जो अपने- आपमें भ्रांत हैं, उनमें से कुछ एक तो समर्थन के भी योग्य नहीं हैं, वे हमारे जातीय जीवन को दुर्बल करनेवाली, हमारी सभ्यता को नीचे गिरानेवाली तथा हमारी संस्कृति की प्रतिष्ठा नष्ट करनेवाली हैं। उन चीजों से हमें किसी प्रकार के कुतर्क के द्वारा इन्कार न करके उन्हें स्वीकार करना चाहिये। अस्पृश्यों के साथ हम जो व्यवहार करते हैं उसमें हमें ऐसी चीजों का एक ज्वलंत दृष्टांत मिल सकता है। कुछ लोग ऐसे हैं जो इसे यह कहकर क्षम्य समझेंगे कि भूतकाल की अवस्था में इस भूल का होना अनिवार्य ही था और कुछ ऐसे हैं जो यह युक्ति देते हैं कि उस समय जो अच्छे-से-अच्छा समाधान हो सकता था वह यही था। फिर कुछ ऐसे भी हैं जो इसे उचित सिद्ध करना चाहेंगे और, चाहे किन्हीं संशोधनों के साथ, हमारे सामाजिक संघठन के आवश्यक अंग के रूप में इसे बनाये रखना चाहेंगे। इसके लिये कुछ बहाना था तो सही पर वह इसे जारी रखने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता। हां, इसके पक्ष में जो तर्क उपस्थित किया जाता है वह अत्यंत विवादास्पद है। एक ऐसा समाधान जो जाति के छठवें भाग को स्थायी अपमान, सतत अपवित्रता, आंतर और बाह्य जीवन की अस्वच्छता और क्रूर पशुसम जीवन से ऊपर उठाने के बजाय उसे शेष जाति से अलग करने का दंड देता है, कोई समाधान नहीं है, बल्कि अपनी दुर्बलता को स्वीकार करना है, और वह समाज की देह तथा इसके समष्टिगत आध्यात्मिक, बौद्धिक, नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिये एक स्थायी घाव है। जो समाज संघटन हमारे कुछ मनुष्य-भाइयों और देशवासियों की अवनति का स्थायी नियम बनाकर ही जीवित रह सकता है वह स्वयमेव दूषित ठहरता है और क्षीण एवं अस्तव्यस्त होना ही उसके भाग्य में बदा होता है।”
वर्ण व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को वह हमारे समाज के सबसे बड़ी अव्यवस्था मानते हैं और यह भी कहते हैं कि वैदिक जीवन के बाद के सहस्र वर्षों पश्चात् पौराणिक युग में उसकी जो व्याख्या की गयी, वह आर्थिक व्याख्या थी और उसमें वैदिक जीवन का कोई तत्त्व नहीं शेष नहीं रहा। यह केवल एक निदर्शन है। कला, सभ्यता, साहित्य और जीवन पर समग्रता से वह विचार करते हैं। न केवल भारत राष्ट्र में मानसिक विभाजन के कारणों की पहचान श्रीअरविन्द करवाते हैं, अपितु वह पूरे विश्व में व्याप्त विभाजक दृष्टि की पहचान करते हैं। आज हम स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं कि जिसे वैज्ञानिकता कहा गया, वह प्रौद्योगिकी हमारे जीवन से भी बड़ी हो जाने से राक्षसी हो चुकी है और इस अन्तहीन राग या लालसा से आज हम विश्वयुद्ध के कगार पर हैं। लाखों या करोड़ों लोगों के जीवन के मूल्य पर पूँजी जोड़ने की होड़ थम नहीं रही है। दिखलायी पड़ते युद्धों की दहलाने वाली भीषणता तो है ही, उनसे भी अधिक क्रूर और भीषण वे सूक्ष्म और गुप्त षड्यन्त्र हैं, जिनकी व्याख्या भी करना सम्भव नहीं है। विश्व के पास आज कौनसी मूल दृष्टि है, जो इस विभाजन और विनाश का कारण है। तथा वह कौनसी दृष्टि हो सकती है, जिससे हम यान्त्रिक हो रहे जीवन को मनुष्य जीवन बना सकें, यह गवेषणीय है। श्रीअरविन्द “मनुष्य—दास या या स्वतन्त्र ?” नामक निबन्ध में मनुष्य की दासता और स्वतन्त्रता के मूल कारणों की खोज करते हुए राक्षस की तरह विशालकाय हो रहे भौतिकवाद की काट बताते हैं—”..ज़ड-तत्त्व की उत्पत्ति मन से हुई है, न कि मन की उत्पत्ति जड-तत्त्व से। यह योग की निश्चयात्मक खोज है और भौतिकवाद की अन्तिम काट है।”
आलेख में लम्बे लम्बे उद्धरण, जो कि मेरी अक्षमता तो है ही, साथ-साथ विवशता भी, कि जहाँ श्रीअरविन्द भारत को गंभीरता से देखने, पहचानने का प्रयत्न करते हैं और उस पर लिखते हैं, वहाँ भारत ने उनके लेखन को ठीक से देखने, पहचानने का प्रयत्न किया है, यह नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः, श्रीअरविन्द के समग्र जीवन में अन्विति है। उनकी क्रान्तिकारी होकर लड़ी गयी लड़ाई से लेखन के माध्यम से लड़ी गयी लड़ाई भिन्न नहीं है। उनका वेदभाष्य और अन्य समस्त लेखन, उनके जीवन में एकान्वित है। कोई भी पारम्परिक प्रज्ञा का धनी पण्डित पूछें कि श्रीअरविन्द को ऋषि कहा जाता है तो वह किन सूक्तों या किन मन्त्रों के द्रष्टा हैं तो उत्तर होगा कि श्रीअरविन्द भारतीय लोक और भारतीय वेद—इन दो मन्त्रों के द्रष्टा हैं। श्रीअरविन्द समस्त, पूर्ण भारत के ऋषि हैं।
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