बाबा योगेन्द्र जन्मशती : जिन्होंने साबित किया कि संसाधनों की भव्यता से नहीं बल्कि “सत्व” से ही संगठन गढ़े जाते हैं।

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वेद प्रकाश

समस्त हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोकर इस राष्ट्र को वैभवसंपन्न बनाने का संघ का अभियान धीरे – धीरे आकार ले रहा था। नागपुर के एक शाखा से प्रारंभ हुई इस यात्रा ने अब समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रवेश कर वहां भी स्थान बनाना शुरू कर दिया था। सामाजिक, धार्मिक, शिक्षा, मजदूर, किसान आदि विविध क्षेत्रों में पहल के बाद कला क्षेत्र की ओर ध्यान गया जहां, साम्यवादी प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में वैचारिक असहमति को “अछूत” और अपराधी सदृश्य समझा जाता था। स्वतंत्रता के बाद भारत के स्वबोध जागरण की बजाय वामपंथी ताकतें कांग्रेसी सत्ता के सहारे सशक्त कला माध्यम द्वारा समाज विखंडन और आत्महीनता दलदल के दुष्चक्र में भारत को जोर – शोर से धकेलने में जुटे हुए थे।

ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच सीतापुर (उ.प्र. ) के तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री योगेंद्र जी को 57 वर्ष की आयु संघ ने कला क्षेत्र में कार्य कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी। तब संघ कार्य की व्याप्ति आज की तरह नहीं थी। योगेन्द्र जी के पास न इस क्षेत्र में कार्यकर्ता थे और न ही कोई पूंजी। बस एक चीज उनके पास थी – सबको जोड़ने वाला कोमल मन और प्रेमभरा हृदय।

बस 1981 के जनवरी में लखनऊ में दसेक कार्यकर्ताओं को इकट्ठा कर कला क्षेत्र में संस्कार भारती की स्थापना की गई और योगेन्द्र जी इसके संस्थापक संगठन मंत्री बनाए गए । 10 जून 2022 को 98 वर्ष की आयु में उनका शरीर पूर्ण हुआ। चार दशक की इस यात्रा में उनके पास संगठन को खड़ा करने के लिए संसाधन था तो केवल राष्ट्रीयता के ज्वाल से भरा हृदय, मन में अडिग संकल्प, घनघोर परिश्रमी स्वभाव और अपने – पराए से इतर सबको समा लेने की मधुरता। बस चल पड़े योगेन्द्र जी। 40 वर्षों की अपनी सांगठनिक अनथक यात्रा में उन्होंने सौ बार से ज्यादा देश को नापा। हजारों स्थानों पर समिति खड़ी की। कई हजार कलाकारों के हृदय को स्पर्श कर उन्होंने कार्य से जोड़ा। असंख्य हृदय को आत्मीयता के स्पर्श से अनुभूत किया। और बन गए सबके प्रिय बाबा योगेन्द्र।

आज बाबाजी की 101 वीं जयंती है। संवादहीनता के इस दौर में आज सबको उनकी कमी खलती है। लगता है कहीं से बाबा आकर बस अपनी खनकदार आवाज में कहेंगे – और बाबा कैसे हैं ? या सबका हाल – चाल लेने को फोन तो अवश्य ही आएगा। पर ऐसा कुछ अब होने वाला है नहीं।

बाबाजी का शरीर इस दुनिया में नहीं है लेकिन, अपने गुणों से आज भी वे हजारों कार्यकर्ताओं में मुझे स्पष्ट दिखते हैं। देशभर में असंख्य कला साधकों व कार्यकर्ताओं को जब संस्कार भारती को सींचते देखता हूं तो मुझे बाबाजी की उपस्थिति सभी जगह दिखती है। क्योंकि उन्हीं के द्वारा सिंचित कार्यकर्ता आज भी संगठन के नींव बन अनवरत कला क्षेत्र को संस्कारक्षम बनाने के अभियान में डटे हुए हैं।

बाबाजी की मधुर वाणी और मोती जैसे अक्षर में लिखे उनके लाखों पत्र आज भी कार्यकर्ताओं में चेतना का संचार करते हैं। क्योंकि वे संस्कार भारती के पदाधिकारी नहीं समस्त कार्यकर्ता / कलासाधक हृदय के अधिकारी थे। टेक्निकल जानकारी से वे लैस नहीं थे पर कार्यकर्ताओं के घर परिवार की वे प्रैक्टिकल चिंता करते थे। कीचड़ में कमल की भांति सादगी, शुचिता और पवित्रता यह उनका विशेषण नहीं बल्कि ऐसा ही था उनका जीवन ।

जैसे पतझड़ के बाद बसंत प्रकृति की स्वाभाविक नियति होती है। ऐसे ही इस राष्ट्रजीवन ने बहुत झंझावतों को सहन कर लिया है। आज वैश्विक क्षितिज पर “सर्वसमावेशी हिंदुत्व” का प्रकटीकरण दुनिया के सुख समृद्धि की एकमात्र गारंटी है। और इस गारंटी को भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्ति ही पूर्ण कर सकेगी। संस्कार भारती इसमें अपनी गिलहरी भूमिका से पीछे नहीं हटेगी।

पुनश्च: बाबा योगेन्द्र जी कला के कोई अध्येता नहीं थे लेकिन अपने जीवन अनुभव की विशाल दृष्टि उनके पास थी। प्रचलित कला जगत में व्यक्ति खड़ा करने की खतरनाक प्रवृत्ति की बजाय वे कहा करते थे –
” हम व्यक्ति खड़ा करने नहीं समाज को जोड़ने निकले हैं, व्यक्ति के अंदर अहंकार का जन्म होता है और समाज के अंदर संस्कार का जन्म होता है। ”
ऐसी विशाल कालादृष्टि के नींव पर संस्कार भारती का भविष्य का मार्ग प्रशस्त होना है।

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