नमो बुद्धाये और अंबेडकरवाद की राजनीति निरर्थक क्यों बन गई ?

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आचार्य श्रीहरि

दिल्ली विधान सभा चुनावों के दौरान नमो बुद्धाए और अंबेडकरवाद की राजनीति का बहुत शोर था, एनजीओ टाइप के नमो बुद्धाए और अंबेडकरवाद की राजनीति ने बहुत बवाल काटा था, सक्रियता और अभियान बहुत ही शोरपूर्ण था, इनका दावा था कि नमो बुद्धाए और अंबेडकर को मानने वाले लोग ही जीत तय करेंगे, किसकी सरकार बनेगी यह निर्धारण करेंगे। लेकिन ये दोनों की विसंगतियां यह थी कि इनमें एक मत नहीं था, वे कनफ्यूज भी थे और विभाजित भी थे। नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादी दो धु्रवों पर सवार थे। इनके एक वर्ग अरिवंद केजरीवाल को समर्थन दे रहा था जबकि दूसरे वर्ग कांग्रेस को समर्थन दे रहा था। दोनों वर्गो का समर्थन देने के तर्क बहुत ही विचित्र थे और फर्जी थे। अरविंद केजरीवाल ने दलित छा़त्रवृति और दलित कल्याण की योजनाओं का बंदरबांट किया था, ईमानदारी पूर्वक लागू नहीं किया था, कोई विशेष सुविधाएं नहीं लागू की थी फिर अरविंद केजरीवाल को समर्थन देने की घोषणा की थी जबकि दूसरे वर्ग उस कांग्रेस को समर्थन दिया और जीत की कामना की थी जिस कांग्रेस ने भीमराव अंबेडकर को लोकसभा में एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार नहीं पहुंचने दिया था और अंबेडकर के सपनों का संहार किया था, नेहरू की दलित और संविधान विरोधी भावनाओं से आहत अंबेडकर की पीडा को भी दरकिनार कर दिया। कांग्रेस का समर्थन देते समय नमो बुद्धाए और अबेडकर वादियों ने यह याद तक नहीं किया कि अंबेडकर ने भारतीय संविधान को खुद ही जलाने की इच्छा या विछोह क्यों प्रकट की थी। सबसे बडी बात यह थी कि नमो बुद्धा और अंबेडकरवादियों के निशाने पर भाजपा थी और ये भाजपा के खिलाफ में खडे थे, भाजपा को किसी भी परिस्थिति में दिल्ली नहीं जीतना देना चाहते थे, इसलिए भाजपा के खिलाफ वोट डालने के लिए आह्वाहन भी किया था, इनका एक गुप्त एजेंडा दलित और मुस्लिम समीकरण के बल पर भाजपा का संहार करने के था।

दिल्ली विधान सभा का चुनाव परिणाम क्या कहता है? नमोबुद्धाए और अंबेडकर वादियों की केजरीवाल और कांग्रेस को जीताने की इच्छाए नहीं पूरी हुई। जाहिर तौर पर नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादियों की इच्छाएं पूरी तरह असफल साबित हुई, और इनकी राजनीति शक्ति कमजोर होने का प्रमाण भी मिला। न तो अरविंद केजरीवाल जीत पाया और न ही कांग्रेस अपनी खोयी हुई राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जबरदस्त पराजय हुई है। भाजपा को अरविंद केजरीवाल से दोगुनी से भी ज्यादा सीटें मिली हैं। जबकि कांग्रेस को मात्र दो प्रतिशत वोटो की वृद्धि हुई है। साढे चार प्रतिशत वोट से बढकर साढे छह प्रतिशत वोट कांग्रेस के हुए हैं। लेकिन कांग्रेस के वोट प्रतिषत बढने के कारण जाति है। खासकर कांग्रेस के जाट प्रत्याशियों ने कांग्रेस के वोट प्रतिशत बढाने का काम किया है। कांग्रेस ने जहां-जहां पर जाट प्रत्याशी उतारे थे वहां-वहां पर कांग्रेस को ठीक-ठाक और इज्जत बचाने लायक वोट मिले हैं। जबकि आरक्षित सीटो पर भी भाजपा की सफलता दर अप्रत्याशित है और आश्चर्यचकित करने वाले हैं। कहने का अर्थ यह है कि दिल्ली मे भी दलितों का एक बडा भाग भाजपा को समर्थन दिया है और उनके सामने नमो बुद्धाए या अबेडकरवाद की राजनीतिक पैंतरेबाजी काम नहीं आयी और उन्हें भाजपा को समर्थन देने से रोक भी नयी पायी।

दिल्ली विधान सभा चुनाव से पूर्व महराष्ट्र और झारखंड में विधान सभा चुनाव हुए थे। महाराष्ट्र भीमराव अंबेडकर की संघर्षभूमि है। अबेडकर ने महाराष्ट्र के नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाया था। इसलिए कहा जाता है कि महाराष्ट्र में अबेडकर वादियों और नमोबुद्धावाद की उर्वरक भूमि है जहां पर दलितों के अंदर राजनीतिक जागरूकता भी आसमान छूती है। महराष्ट्र विधान सभा चुनावो के दौरान भी दिल्ली विधान सभा की तरह ही उबाल और बवाल की राजनीतिक गर्मी पैदा की गयी थी और भाजपा के खिलाफ न केवल आक्रमकता उत्पन्न की गयी थी बल्कि भाजपा का संहार करने की भी कसमें खायी गयी थी। भाजपा विरोधी गठबंधन के साथ नमो बुद्धाएं और अंबेडकरवादी खडे थे। यह घोषणा भी की गयी थी कि दलित किसी भी स्थिति में भाजपा को सत्ता हासिल नहीं करने देंगे, भाजपा की सत्ता को उखाड फेकेंगे, भाजपा की सत्ता का संहार होना निश्चित है। कांग्रेस भी दलितों के समर्थन से उचक-कूद कर रही थी और जोश में थी। महाराष्ट्र विधान सभा का चुनाव परिणाम आया तब इन सभी के उछल-कूछ करने और बवाल की राजनीति पर कुठराघात हो गया, जनता ने इन्हें नकार दिया और भाजपा की जोरदार और अतुलनीय जीत भी दिला दी। झारंखड में भाजपा का रथ जरूर रूका पर भाजपा के रथ को रोकने वाले कोई दलित नहीं थे बल्कि पिछडे थे जो भाजपा के पिछडे विरोधी राजनीति से खफा थे और भाजपा ने पिछडों के आरक्षण का संहार कर दिया था। हालांकि यह करतूत भाजपा का नहीं बल्कि दलबदलू बाबूलाल मरांडी की थी जिसका दुष्परिणाम भाजपा को झेलना पडा था। हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मिल्कीपुर की कहानी भी उल्लेखनीय है।

अब आइये , काशी राम और मायावती की अंबेडकरवाद और नमो बुद्धाएं राजनीति की शक्ति को देख लें और इस कसौटी पर तुलना कर लें। नमो बुद्धाएं और अंबेडकरवाद की राजनीति को सफलता की चरमसीमा पर पहुंचाने का श्रेय मायावती और काशीराम को जरूर है। एक बार पूर्ण बहमुत और कई बार गठबंधन की सरकार बना कर इसका सत्ता सुख भी मायावती और काशीराम ने लिया है। लेकिन इनकी राजनीति शक्ति स्थायी नहीं रह सकी है। आज उत्तर प्रदेश विधान सभा में बसपा का एक मात्र सदस्य है और वह भी राजपूत जाति का है। संसद में बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में बसपा की उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में कोई भी सफलता नहीं मिली थी।

नमो बुद्धाए और अबंडेकरवाद क्या-दोनों अलग-अलग राजनीतिक श्रेणियां हैं? नमो बुद्धाए की अभिव्यक्ति रखने वाले लोग पूरी तरह से बौद्ध धर्म मे दीक्षित और शीक्षित हो चुके है और उन्हें हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। जबकि अंबेडकरवादी पूरी तरह से हिन्दू धर्म से मुक्त नहीं हुए हैं, कुछ न कुछ संबंध हिन्दू धर्म के साथ उनका हैं। पर दोनों हिन्दू धर्म के खिलाफ बोलने और राजनीतिक शक्ति फैलाने में साथ ही साथ हैं।

अंबेडकरवादियों को हिन्दू धर्म से विछोह तो समझ आता है, क्योंकि उन्हें प्रताडित किया गया और आज भी कुछ न कुछ प्रताड़ना का वे शिकार हैं। जबकि नमो बुद्धाए कहने वाले लोगों का हिन्दू धर्म से विछोह समझ में नहीं आता है? नमो बुद्धाएं कहने वाले हिन्दू धर्म को गालियां क्यों बकते हैं, हिन्दू धर्म की आलोचना का शिकार क्यों बनाते हैं? नमो बुद्धाए हो या फिर अंबेडकरवादी हमेशा हिन्दुओं की आलोचना और अपमान का शिकार बनाने से पीछे नहीं रहते हैं। उग्र हिन्दू विरोधी की मानसिकता इनकी आत्मघाती हो गयी, ये राजनीति से अलग-थलग पडने लगे। मायावती आज की राजनीति में असहाय और निरर्थक हो गचल। नेश्राम और प्रकाश अंबेडकर जैसे नेता भी अप्रासंगिक हो गये, आज की राजनीति मेे इनकी कोई गिनती तक नहीं है। दलित इन्हें एनजीओ छाप, गिरोहबाज और मुस्लिम समर्थक मान कर खारिज करते हैं? अनसुना करते हैं।

संविधान समाप्त होने का डर फैलाना भी दलितों की संपूर्ण एकता सुनिश्चित नहीं कर सका। मोदी विरोध में संविधान को हथकंडा बनाया गया और नरेन्द्र मोदी को अंबेडकर विरोधी कहने और साबित करने के सभी प्रयास विफल हो गये। लोकसभा चुनावों में धक्का खाने के बाद भी नरेन्द्र मोदी और भाजपा की शक्ति बढी है और वे अनिवार्य तौर पर अपनी शक्ति बनायें रखने की कोशिश की है। इनमें इन्हें सफलता भी मिली है। इसके अलावा भाजपा ने दलितों को कल्याणकारी योजनाओं से जोड कर और आरक्षण मे सिर्फ एक जाति के विकास का प्रश्न बना कर भी अपनी जगह बनायी है।

यादव और मुस्लिम समीकरण का हस्र से नमो बुद्धाए और अंबेडकरवादियों ने कुछ नहीं सीखा है। बिहार में लालू का परिवार पिछले 20 सालों से सत्ता से बाहर है, अखिलेश यादव पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। यादव और मुस्लिम समीकरण अब सत्ता से बाहर होने का राजनीतिक प्रमाण बन गया है। दलित और मुस्लिम समीकरण भी कैसे जीवंत और शक्तिशाली बन सकता है? मुस्लिम कभी भी अपनी कीमत पर दलित को समर्थन दे नहीं सकते हैं। मुस्लिम संस्थानों जैसे अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया में दलितों का कोई आरक्षण नहीं है। कोई मुस्लिम नेता यह प्रश्न नहीं उठाता कि दलितों और पिछडों को मुस्लिम संस्थानों में आरक्षण क्यों नहीं मिलता है। मुस्लिम वर्ग उसी को समर्थन देते हैं जो भाजपा को हराने के लिए शक्ति रखते हैं। रावन इसीलिए सांसद चुना गया क्योंकि समाजवादी पार्टी का समर्थन था। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का समर्थन नहीं होता तो फिर मुस्लिम कभी भी रावण का समर्थन नहीं करते।

डग्र हिन्दू विरोधी गोलबंदी से एनजीओ छाप दलित राजनीति को नुकसान ही है। मुस्लिमों के साथ समीकरण बनाना नमो बुद्धाए और अबंडकरवादियों के लिए नुकसानकुन और घाटे का सौदा है। जब तक पिछडे मुस्लिम समर्थक नहीं बनेंगे तब तक इनके लिए कोई संभावना नहीं है। पिछडा वर्ग अपने धर्म और भाजपा में समर्थन बनाये रखे हुए हैं। पिछडों की राजनीति का सफल प्रबंधन भाजपा ने किया है। हिन्दू विरोध के उग्र वाद को ये छोडेंगे नहीं और मुस्लिमों के साथ समीकरण की मानसिकता भी छोडेंगे नहीं फिर भारत की सत्ता राजनीति मे इनके निरर्थक रहने की ही उम्मीद बनती है। आज की सत्ता राजनीति में ये निरर्थक ही तो हैं।

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