नेपथ्य के नायकों का प्रतिनिधि दस्तावेज है ‘कोरोनानामा’

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पुस्तक के अध्ययन के पश्चात् यह साफ होता है कि कोरोना संकट के कोपाकुल-काल के दौर में हमारे समाज के वरिष्ठ नागरिकों की भूमिका और उसके विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित बेहद गंभीर चिंतन हुआ है। इसके लिए संपादक के मार्गदर्शन और कौशल के साथ-साथ इस संग्रह में शामिल आठों रिपोर्टरों क्रमश: अमृता मौर्य, डॉ. उपेन्द्र पाण्डेय, दीक्षा मिश्रा, डॉ. अरुण प्रकाश, अर्चना अरोड़ा, अमन तिवारी, अल्पना बिमल और विनय कुमार की गंभीरता, चुनौतियों और संवेदनशीलता को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है

डॉ. पवन विजय

पुस्तक ‘कोरोनानामा: बुजुर्गों की अनकही दास्तान’ अपनी शैली की दृष्टि में रिपोर्ताज है। इसमें वैश्विक महामारी कोविड-19 के दौरान हुए देशव्यापी लाॅकडाउन के कारण उपजी विसंगतियों की आठ विशिष्ट रिपोर्ट्स शामिल हैं, जोकि देश के अलग-अलग हिस्सों से संकलित की गयी हैं।कोरोनानामा कई मायनों में विशेष पुस्तक कही जा सकती है, जिसका हिन्दी साहित्य की यात्रा में भी विशेष अवदान माना जाना चाहिए। इस क्रम में इससे संबंधित सबसे पहली बात तो यह है कि कोरोनानामा जैसा कि अपने शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह कोरोनाकाल का एक सशक्त दस्तावेज सिद्ध है। यह बहुत अच्छा प्रयास माना जाता है कि आप वैश्विक महामारी का सजीव दस्तावेज अपने पास रखें। भारत और खासकर हिन्दी भाषियों के लिए यह एक अच्छी बात है कि उनके पास कोरोनानामा जैसा ग्रंथ उपलब्ध हो गया है, जो हमारी आने वाली पीढ़ियों को इस वैश्विक महामारी का जीवंत सनद प्रस्तुत करेगा। यूँ तो प्राय: वैश्विक महामारी के करुण दस्तावेज संकलित करने की संभावना अधिक होनी चाहिए या रहती है, लेकिन कोरोनानामा के संकलनकर्ता अमित राजपूत की इस दृष्टि की जमकर प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने वैश्विक महामारी के सकारात्मक दस्तावेज हमारे सामने लाकर प्रस्तुत कर दिये।पुस्तक की दूसरी विशेषता यह है कि इस आठ रिपोर्ट्स के संकलन से गठित रिपोर्ताज-संग्रह कोरोनानामा में सभी बुजुर्गों की कहानियाँ हैं। आज के दौर में बुजुर्गों पर केन्द्रित कोई काम कम ही दिखता है और पुस्तक लेखन में खासकर हिन्दी में और भी कम। इसलिए हिन्दी भाषा में बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक तैयार करने के लिए भी इसके संपादक अमित राजपूत न केवल प्रशंसा के पात्र हैं, बल्कि उन्हें इसके लिए बधाई भी दी जानी चाहिए।

पुस्तक लोकार्पण

पुस्तक के अध्ययन के पश्चात् यह साफ होता है कि कोरोना संकट के कोपाकुल-काल के दौर में हमारे समाज के वरिष्ठ नागरिकों की भूमिका और उसके विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित बेहद गंभीर चिंतन हुआ है। इसके लिए संपादक के मार्गदर्शन और कौशल के साथ-साथ इस संग्रह में शामिल आठों रिपोर्टरों क्रमश: अमृता मौर्य, डॉ. उपेन्द्र पाण्डेय, दीक्षा मिश्रा, डॉ. अरुण प्रकाश, अर्चना अरोड़ा, अमन तिवारी, अल्पना बिमल और विनय कुमार की गंभीरता, चुनौतियों और संवेदनशीलता को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। पुस्तक की एकलयता परस्पर सभी रिपोर्टरों और संपादक के आपकी समन्वय की ओर भी ध्यान इंगित कराता है। इस किताब की लयबद्धता और प्रवास इस बात का समर्थन भी करती हैं।संपादक की एक और दृष्टि की ओर मैं आपकी दृष्टि ले चलने का प्रयास करूँगा; और वो है, इन रिपोर्ट्स के पात्रों की खोज और उन्हें संकलन में शामिल किये जाने के निश्चय की निडरता। जी हाँ, किसी भी समाज के किसी भी दौर में नेपथ्य के नायकों का रेखांकन उजले ढंग से कभी नहीं किया गया। किन्तु कोरोनानामा तो नेपथ्य के नायकों का ही मजबूत दस्तावेज है। ऐसे में, इस पुस्तक के उद्देश्य को हम सर्व समाज एवं वर्ग के लिए उपयोगी, अंतिम जन के लिए भी रुचिकर और लोक-कल्याकारी पुस्तक कह हैं। और सरल तरीके से इसे हम यह भी कह सकते हैं कि पुस्तक कोरोनानामा हमारे बुजुर्गों के प्रति हमारी दृष्टि को बदलने वाली और उनके प्रति चिन्तन को हमें प्रेरित करने वाली पुस्तक है। हालाँकि यह इतना आसान भी नहीं है। इसका हल पुस्तक में ही पृष्ठ- 27 में उल्लिखित है कि “परिवार, समाज और सरकार तीनों की जिम्मेदारी बनती है कि वह वरिष्ठ-जनों की सुविधाओं का ख्याल रखें।”बहरहाल, कोरोना के लाॅकडाउन में पुस्तक के संकलनकर्ता और संपादक के प्रयास से समाज के विभिन्न क्षेत्रों और सुदूर गाँवों की रिपोर्टों से पाठकों को रूबरू कराना और वैश्विक बहस में वरिष्ठ-जनों की भूमिका को प्रमुखता से रेखांकित करना बहुत ही महती और बहादुरी का काम किया गया है।एक दिलचस्प बात यह भी है इस पुस्तक की कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक इतिहास में मुख्यधारा में दशकों से रिपोर्ताज नहीं लिखे गये हैं। अमित राजपूत की पुस्तक कोरोनानामा ने इस सूखे को भी समाप्त कर दिया है और हिन्दी साहित्य के विकास में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ दी है। इसी के साथ यह पुस्तक समयानुकूल है और वरिष्ठ-जनों के जीवन पर उपलब्ध हिन्दी-साहित्य में भी अपना एक प्रमुख योगदान देती है। इसकी भाषा ललित और परिमार्जित है। जमीनी स्तर की रिपोर्ट की वैशिष्ट्यता और उसका बोध भी कोरोनानामा को ऊँचा मकाम देता है। एक ओर इसमें शामिल आठ रिपोर्ट हमें सिंगल सिटिंग में बैठकर पढ़ लेने का रोमांच देते हैं, तो इसमें शामिल रिपोर्टों की बेहद सीमित संख्या हमें और जानने व पढ़ने की जिज्ञासा के वास्ते हमें निराश भी कर देती है। बावजूद इसके कोरोनानामा को एक जरूरी पुस्तक के तौर पर रेखांकित किया जाता है।


पुस्तक का नाम: कोरोनानामा: बुजुर्गों की अनकही दास्तान
संपादक: अमित राजपूत
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।
मूल्य: 175 रुपये मात्र/-

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