प्रवीण कुमार झा
दीनदयाल जी के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सुत्र है – “भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।” “वसुधैव कुटुम्बकम” हमारी सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मो को समान अधिकार प्राप्त हैं। दुनिया की नजर भारत की विशाल जनसंख्या और उसके बाजार पर है। इस बाजार के बल पर भारत का विकास तेजी से हो सकेगा और भारत विकसीत देशों की श्रेणी में खड़ा होगा। ग्रामीण विकास से ही भारत के विकसीत होने की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत कृषि प्रधान देश आज भी है। अधिकांश आबादी कृषि या उससे संबंधित रोजगार से जुड़ी है। पंचवर्षीय योजनाओं में गांवों को ध्यान में रखकर नीतियां तय की गयीं है। सम्पूर्ण भारत के गांवों में गरीबी, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सम्मानजनक जीवन स्तर आदि के लिए आज मोदी सरकार प्रयासरत भी हैं। मोदी सरकार ने स्मार्ट शहरों के साथ ही स्मार्ट गांव बनाने का निर्णय लिया है। जो एक नई पहल है। दीन दयाल उपाध्याय जी के विचार और दर्शन आज भी प्रासंगिक है। जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता दीनदयाल जी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टी प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। वैश्वीकरण के दौर तथा बदले हुए परिवेश में मीडिया एक उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है। हिन्दी का विशाल बाजार निवेशकों को लुभाता रहा है। तमाम देशी-विदेशी निवेशक हिन्दी मीडिया में निवेश को उत्सुक दिख रहे हैं। मीडिया के व्यवसाय की दृष्टि से यह अच्छा कहा जा सकता है लेकिन बाजार की शक्तियां वही कार्य करेंगी जिससे उनके उत्पाद की बिक्री बढ़ जाए। दीनदयालजी को जनसंघ के आर्थिक नीति के रचनाकार बताया जाता है। आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य समान्य मानव का सुख है या उनका विचार था। विचार–स्वातंत्रय के इस युग में मानव कल्याण के लिए अनेक विचारधारा को पनपने का अवसर मिला है। इसमें साम्यवाद, पूंजीवाद , अन्त्योदय, सर्वोदय आदि मुख्य हैं। किन्तु चराचर जगत को सन्तुलित, स्वस्थ व सुंदर बनाकर मनुष्य मात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन – विज्ञान, जीवन–कला व जीवन–दर्शन है।” “वसुधैव कुटुम्बकम” हमारी सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मो को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति से किसी व्यक्ति ,वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन,रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होता है पर विचार होता है। दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है। भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण में यह स्पष्ट वर्णन है कि हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है। उपाध्यायजी पत्रकार तो थे ही चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जिस धारा में वह भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी जिसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में ही दे दिया था। तभी तो कालीकट अधिवेशन के बाद विश्व भर के मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया।
दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। समस्याओं पर विचार करते हैं। उनका समाधान निकालते हैं। यह तथ्य ही भारत के अनुकूल प्रमाणित होता है। ऐसे में पहली बात यह समझनी होगी कि अन्य विचारों के भांति दीनदयाल उपाध्याय ने कोई वाद नहीं बनाया। एकात्म मानव, अन्त्योदय जैसे विचार वाद की श्रेणी में नहीं आते। यह दर्शन है। जो हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है। यह एकात्म दर्शन है। इसमें समरसता का विचार है। इसमें भेदभाव नहीं है। व्यक्ति का अपना हित स्वभाविक है। लेकिन यही सब कुछ नहीं है। उपभोगवाद से लोक कल्याण संभव नहीं है। इसमें व्यक्ति का भी कल्याण नहीं है। यदि ऐसा होता तो भौतिकवाद की दौड़ में कभी तो व्यक्ति को संतोष मिलता। लेकिन ऐसा नहीं होता। मन कभी संतुष्ट नहीं होता। व्यक्ति प्रारंभिक इकाई मात्र है। लेकिन वह परिवार का हिस्सा मात्र है। परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है। समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है। जीवन यापन के साधन अवश्य होने चाहिए। ये साधन हैं। साध्य नहीं है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो, लेकिन का शुभ होना अनिवार्य है।
दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि आजादी के बाद भारत का विकास का आधार अपनी भारतीय संस्कृति हो न की अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गयी पश्चिमी विचारधारा। हालांकि भारत में लोकतंत्र आजादी के तुरंत बाद स्थापित कर दिया गया था, परंतु दीनदयाल उपाध्याय के मन में यह आशंका थी कि लम्बे वर्षों की गुलामी के बाद भारत ऐसा नहीं कर पायेगा। उनका विचार था कि लोकतंत्र भारत का जन्मसिद्ध अधिकार है न की पश्चिम (अंग्रेजों) का एक उपहार। वे इस बात पर भी बल दिया करते थे कि कर्मचारियों और मजदूरों को भी सरकार की शिकायतों के समाधान पर ध्यान देना चाहिए। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना प्रशासन का कर्तव्य होना चाहिए। उनके अनुसार लोकतंत्र अपनी सीमाओं से परे नहीं जाना चाहिए और जनता की राय उनके विश्वास और धर्म के आलोक में सुनिश्चित करना चाहिए। दीनदयाल द्वारा स्थापित ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पर आधारित राजनितिक दर्शन भारतीय जनसंघ (वर्तमान भारतीय जनता पार्टी) की देन है। उनके अनुसार ‘एकात्म मानववाद’ प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक एकीकृत कार्यक्रम है। उन्होंने कहा कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत पश्चिमी अवधारणाओं जैसे- व्यक्तिवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद पर निर्भर नहीं हो सकता है। उनका विचार था कि भारतीय मेधा पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन महसूस कर रही है, परिणामस्वरूप मौलिक भारतीय विचारधारा के विकास और विस्तार में बहुत बाधा आ रही है। वर्तमान सन्दर्भ में देखा जाए तो मोदी सरकार ने विकासवाद के सिद्धांत पर “सबका साथ और सबका विकास” का नारा दिया है। साथ ही ग्रामीण विकास और सामाजिक समरसता के सम्बन्ध में भारतीय संविधान में सबको सामान अधिकार प्राप्त है। वर्तमान सरकार ने ग्रामीण विकास के संदर्भ में पंडित दीन दयाल उपाध्याय के नाम से ग्राम ज्योति योजना, अन्त्योदय योजना, ग्रामीण कौशल विकास योजना आदि का शुभारम्भ कर ग्रामीण विकास के संदर्भ सभी को स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, आवास, रोजगार आदि को गावों में उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है।
दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र की आत्मा से लेकर जैविक खाद व व्यापार तक पर चिंतन करते हैं। उनके अध्ययन व मनन का दायरा कितना व्यापक था, इसकी कल्पना की जा सकती है। वह लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है, उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है। इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है। लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये। प्रकृति के साथ उच्छृंखलता का व्यवहार नहीं होना चाहिये। खाद्य सुरक्षा की बात अब सामने आई। खाद्य सुरक्षा भारत ही नहीं वरन् वैश्विक समस्या है। जिसको जड़ से समाप्त करना एक बड़ी चुनौती है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, काम के समान अवसर की कमी, किसानों की समस्यायें, आत्महत्या, बिचौलियों के कारण किसानों के लाभ पर डाका, प्रशासनिक उपेक्षा, हल्की राजनीतिक बयानबाजी आदि अनेकों ऐसे विषय हैं जिन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया मोदी सरकार कर रही है। सरकार संसदीय कार्यप्रणाली के द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर एक रास्ता खोल दिया है। दीनदयाल जी ने इस पर बहुत पहले ही विचार कर लिया था। उनके अनुसार हमारा नारा यह होना चाहिये कि कमाने वाला खिलायेगा तथा जो जन्मा सो खायेगा। अर्थात खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है। बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं कर पाता। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम स्तर है।
दीन दयाल जी देश की एकता और अखंडता के लिए सदैव समर्पित रहे। उनका मानता था कि राष्ट्र की निर्धनता और अशिक्षा को दूर किए बिना वास्तविक उन्नति संभव नहीं है। निर्धन और अशिक्षित लोगों की उन्नति के लिए उन्होने अंत्योदय की संकल्पना का सुझाव दिया। उनका कहना था “अनपढ़ और मैले कुचैले लोग हमारे नारायण हैं। हमे इनकी पूजा करनी है यह हमारा सामाजिक दायित्व और धर्म है। आज शिक्षा की व्यवस्था भी चिंता उत्पन्न करती है। एक तरफ महंगी शिक्षा है। इसका लाभ सीमित वर्ग उठा सकता है। दूसरी ओर जहां शिक्षा सस्ती है, उनकी दशा खराब है। वहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं। शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जिनका शिक्षा से कोई मतलब नहीं वह शिक्षण संस्थान के संचालक बन गये। दीनदयाल उपाध्याय को इसका भान था इसलिये उन्होंने लिखा था कि शिक्षा समाज का दायित्व है। बच्चों को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। आज शिक्षा की भांति चिकित्सा की दशा है। यह भी व्यवसाय का रूप धारण कर रही है। दीनदयाल जी निःशुल्क चिकित्सा का सुझाव देते हैं। वह मानते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मानव का विकास करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। इसके विरोध में समाजवादी अर्थव्यवस्था आई। यह भी विफल हुई। इसने पूंजी का स्वामित्व राज्य के हाथों में देकर संतोष कर लिया। दीनदयाल जी का अंत्योदय विचार आज भी प्रासंगिक है। भारत में अनेकवाद अपनाये गये। अब तो वैश्विकरण और उदारीकरण को भी लंबा समय हो गया। लेकिन अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ी है। यह व्यक्तिवादी व उपभोगवादी चिंतन का भी परिणाम है। विकास हुआ, मगर असंतुलित है। सत्ता व समाज दोनों को जिम्मेदारी से काम करने की दीनदयाल उपाध्याय प्रेरणा देते हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर जो व्यक्ति है, उसके उत्थान का प्रयास प्राथमिकता से होनी चाहिये। दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इन्हीं के माध्यम से देश की वर्तमान समस्याओं का समाधान हो सकेगा। समरसता समग्र तरक्की की अनिवार्य शर्त है. इसके लिए शिक्षा और प्रेरणा को हथियार बनाएं। ऐसी शिक्षा दें, जिससे लोग अच्छा इंसान बन सकें। ऐसे लोगों को समरस समाज और उसके लाभ के बारे में बताएं। इसके बाद इन लोगों को समाज को समरस बनाने के लिए प्रेरित करें। आपस में संवाद बढ़ाएं, प्रौद्योगिकी की प्रगति के साथ इसका कम होना दुखद और खतरनाक है। विश्व संवाद केंद्र की पहल सराहनीय है। यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसे आयोजनों में हर संभव सहयोग करेगा।