लोक नाट्य ‘भगत’ के भगत:

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कला और संस्कृति की नई इबारत लिखने में मशगूल है हिमानी चतुर्वेदी

– अनिल शुक्ला

हाल ही में ‘रंगलीला’ की लोक नाट्य ‘भगत’ की वरिष्ठ कलाकार हिमानी चतुर्वेदी को आगरा की सांस्कृतिक संस्था ‘संस्कार भारती कला केंद्र’ ने अपने ‘रंगोदय’ समारोह में महिला लोक कलाकार के ‘स्वरुप चंद सम्मान’ से अभिनंदित किया। हिमानी ‘भगत’ के 4 सौ साल के इतिहस की पहली महिला कलाकार हैं। उनसे पहले की 4 सदी तक हमेशा पुरुष ही ‘भगत’ में महिला भूमिकाओं को अभिनीत करते आये हैं। हिमानी को यह सम्मान दिया जाना आगरा के सांस्कृतिक जगत में उनके लोक अभिनय कौशल को मिलने वाली एक बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति है यद्यपि इस प्राप्ति के लिए उन्हें और समूची ‘रंगलीला’ को कड़ी अग्निपरीक्षा से गुज़रना पड़ा है।
50 साल से लुप्तप्राय हो चली ‘भगत’ के पुनरुद्धार का जब मैंने ढांचा परिकल्पित किया तो उसमें शुरू से ही महिला भूमिकाओं में अभिनेत्रियों को ही उतारे जाने की बात थी। काफी समय बाद सन 2010 में मैंने भगत के अपने गुरु फूलसिंह यादव ख़लीफ़ा से जब इस बात की चर्चा की तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी- “तुम मुझे इन सालों के जूते पड़वाओगे।” ख़लीफ़ा का ‘इन सालों’ से आशय दूसरे अखाड़ों के उनके समकालीन ख़लीफ़ाओं से था। उनमें से ज़्यादातर कितने दकियानूस हैं, ख़लीफ़ा इसे भली भांति जानते थे।
“ख़लीफ़ा आप क्या इन से डरते हो?” मैंने ख़लीफ़ा की चाभी भरी। एकदम से दमक कर उन्होंने कहा-“मैं किसी मादर …….. से नहीं डरता।”
मैं यही चाहता था। इससे पहले भी हम लोग इस विषय में कई बार बातचीत कर चुके थे। ख़लीफ़ा मेरी इस बात से पूर्णतः सहमत थे कि जब महिला अंतरिक्ष में जा सकती है, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की जज बन सकती है और जब वह फिल्म की हीरोइन बन सकती है तो भगत की कलाकार क्यों नहीं बन सकती?


2 दिन बाद ख़लीफ़ा ने मुझसे पूछा-” पर लोंडिया मिलेगी कहाँ से?” मैंने हिमानी का नाम सुझाया। हिमानी मेरी पत्रकारिता और रंगमंच की स्टूडेंट थी। उसका गला बहुत सुरीला था। मुझे विश्वास था कि इसे भगत अभिनेत्री में विकसित किया जा सकता है। वह ‘रंगलीला’ से जुड़ी थी और इस नाते कई बार ख़लीफ़ा फूलसिंह यादव से मिल चुकी थी। खलीफा उसे पसंद करते थे।

“बो तो ठीक है।” उन्होंने पहली स्वीकृत दी।

हिमानी के सामने जब मैंने यह प्रस्ताव रखा तो हड़बड़ा कर उसने कहा-“सर मैं भगत कैसे करुँगी? मैं तो इसकी एबीसीडी भी नहीं जानती।”
“तुम जर्नलिज़्म या मॉडर्न थियेटर की एबीसीडी मम्मी के पेट से सीख कर आयी थीं?” मैंने हड़काते हुए पूछा

“नहीं।”

“यहीं सीखा न ?”

“यस सर।”

“तो भगत भी यहीं सीखोगी।”

हिमानी का प्रशिक्षण शुरू हुआ। ख़लीफ़ा उसे भगत की गायकी सिखाते रहे और मैं भगत में अभिनय करना। इस बीच भगत अखाड़ों के पुरातन ख़लीफ़ाओं और उनकी संस्था ‘काव्यकला परिषद’ ने मेरे और ख़लीफ़ा के मंच पर महिला को उतारे जाने के फ़ैसले के विरुद्ध सघन अभियान चलाया। अपनी मूर्खता और अज्ञानता में वे यहाँ तक बढ़े कि उन्होंने बाक़ायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और उसमें कहा कि मैं और ख़लीफ़ा बड़े बदनीयत हैं और लड़कियों को मंच पर उतारने की आड़ में जिस्म फरोशी का धंधा करना चाहते हैं। हम दोनों उनके इन आरोपों से कहाँ निरुत्साहित होने वाले थे।
आख़िरकार 2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद हिमानी को पहली बार भगत ‘कल का इंडिया’ में कल्लू की मां की भूमिका करने को मिली। यह सन 2012 का ‘ताज महोत्सव’ था। ‘ताज महोत्सव’ में भगत की यह पहली एंट्री थी। हमारी भगत के अलावा

उस दिन एक अन्य संस्था का पंजाबी लोक गीतों का प्रोग्राम भी होना था जिसके चलते सूरसदन दर्शकों से खचाखच भरा था। उस दिन की भगत के दो जादू थे जो दर्शकों के सर चढ़कर बोले। एक तो कल्लू की भूमिका में बंसी की शानदार गायकी और दूसरा हिमानी की गायकी और उनका अद्भुत अभिनय।
‘ताज महोत्सव’ के दर्शकों ने हिमानी को एक कामयाब लोक कलाकार के रूप में जैसे हाथों-हाथ लपक लिया। पुरातनपंथी अखाड़ा बड़ा हतोत्साहित हुआ। बाद के सालों में हालांकि उनहोने जब अपनी भगत शुरू की तो झक मार कर लड़कियों को शामिल करने को वे मजबूर थे। हिमानी भगत का लगातार अभ्यास करती रही। अपनी योग्यता और क्षमताओं के बल पर वह ख़लीफ़ा के कलेजे का टुकड़ा बन गयी और मेरी दुलारी बिटिया। इसके बाद उसने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। ‘मेरे बाबुल का बीजना’ भगत में जब वह मंच पर अपनी बेटी को तलाश करते सिसकते हुए आती है तो अनेक दर्शकों के आंसू टपक पड़ते हैं। हिमानी बहुत धैर्य और धीरज वाली कलाकार है। उसके भीतर कला साधक की अटूट भावना भरी है। वह उन उभरते हुए कलाकारों के लिए भी नसीहत है जो अपनी हड़बड़ी में तत्काल सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। बीच में अपनी पढ़ाई और दूसरे निजी वजहों से उसकी भगत कुछ सालों के लिए छूटी रही लेकिन वह वापस लौटी और दुगनी ऊर्जा से फिर जुट गयी। नि:संदेह वह भगत का नेतृत्व सँभालने के लिए तैयार हो जाने वाली ‘रंगलीला’ की दूसरी पीढ़ी की क़तार में सबसे आगे है। वह एमबीए की अपनी पढ़ाई कर चुकी है। पहले उसका इरादा कोर्पोरेट नौकरी का था लेकिन अब उसने अपना व्यवसाय शुरू कर दिया है।

अपने घर के बुज़ुर्गों से उसे सामाजिक संस्कार मिले हैं जिनका वह पालन कर रही है। वह कैलाश मंदिर के किनारे बहने वाली यमुना नदी के तट के आसपास के गाँवों के बच्चों को लेकर एक चेतना अभियान चला रही है ताकि लोग यमुना में प्लास्टिक और कचरा न डालें। अपने भाई जितेंद्र के साथ मिलकर वह दुर्घटनाग्रस्त गायों की चिकित्सा के लिए एक गौ चिकित्सालय भी संचालित करती है।

आने वाले समय में वह ‘रंगलीला’ की नयी भगत में नयी भूमिकाओं में दखेगी। लोक अभिनेत्री का सम्मान प्राप्त होने की ढेरों बधाई। जुग-जुग जियो मेरे लाल! थैंक्यू संस्कार भारती कला केंद्र।

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