द रेलवेमैन के बहाने ‘दास्तान – ए – मौत ‘

PHOTO-2023-11-26-22-48-32.jpg
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 3 दिसम्बर 1984 को हुए मौत के क्रूर ताण्डव यानी ‘भोपाल’ गैस त्रासदी की बरसी निकट ही है। इसी बीच 18 नवम्बर को नेटफ्लिक्स में एक वेबसीरीज आई है। जो बहुत कुछ कह रही है बता रही है। हालांकि यह अंतिम सत्य नहीं है बल्कि भोपाल गैस त्रासदी की दिशा में सत्य का एक बहुत छोटा सिरा है। इसके सहारे बहुत दूर तक जाया जा सकता है बशर्ते हम जाना चाहें। यूं कहें तो ‘बात निकली ही है तो दूर तलक जाएगी’।
मैं अक्सर फ़िल्में कम देख पाता हूं उसमें से भी वेबसीरीज तो बहुत ही कम। लेकिन हाल ही में Netflix  पर रिलीज़ हुई  The Railway Men ( The untold story of Bhopal 1984 ) को देखा तो बस एकटक देखता ही रहा आया।
 इसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद  1984 में देश भर में हुए सिख नरसंहार (दंगे ) के दौरान राजीव गांधी का द्वारा दिए गए बयान – “जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है।” के साथ साथ सिख समुदाय के लोगों के नरसंहार की कहानी की झलक भी दिखती है।यानी दो वीभत्स खूनी मंजर एक साथ सिनेमा के एक पर्दे पर।
इस सीरीज को देखने बाद लगा कि –  हमारा सिनेमा जगत इतने वर्षों तक इस विषय पर खामोश क्यों था ?  हालांकि समाज को भूलने की आदत होती है लेकिन क्या 1984 की त्रासदी किसी भी तरह से भुलाने जैसी थी ? फिर भी कूटरचित और प्रायोजित ढंग से इसका नार्मलाईजेशन कर दिया गया। ताकि कोई सच की ओर आंख भी न फेर सके। लेकिन सच तो एक दिन अवश्य ही सामने आता है चाहे कितना भी समय लग जाए।
इसी सन्दर्भ में यह कहना समीचीन है कि लोग मानें या न माने लेकिन इस देश में  नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये तो जरूर हुआ कि अब लोग खुलकर सत्य कहने और दिखाने लगे हैं। बात चाहे ‘ द काश्मीर फाईल्स की हो याकि द केरला स्टोरी की और अब चाहे द रेलवेमैन की हो। सच अब बड़ी मुखरता के साथ सामने आ रहा है।
ये था कांग्रेस के सत्तानशीं चेहरे का रक्त चरित्र जिसके लिए — जनता के जान की कीमत कुछ भी नहीं थी।  उनके लिए तो जनता कीड़े मकोड़े की तरह मरने के लिए होती है।
इन सबके के बीच खोजी पत्रकार स्व. राजकुमार केसवानी का साहस कांग्रेसी सरकार के सत्तानशीं चेहरे के विरुद्ध – मजबूत दीवार बनकर खड़ा मिलता है। वो सरकार और प्रशासन के दमन के आगे नहीं झुके और
उन्होंने बताया कि पत्रकार और पत्रकारिता क्या होती है।
3 दिसम्बर 1984 मध्यप्रदेश के हिस्से में त्रासदी का इतना भयावह मंजर जिसने भोपाल में हजारों लोगों को मौत का शिकार बना लिया। भोपाल के निरीह लोग कांग्रेस सरकार और एंडरसन के मौत के फरमान के आगे घुटने टेकने को विवश थे। सरकार, कंपनी और प्रशासन के ने जिस तरह से जनता की जान का सौदा कर उन्हें बेमौत  मौत के घाट उतारा था, वह बर्बरता की पराकाष्ठा थी। ऐसे में  इसे आतंक और प्रायोजित हत्या न कहें तो क्या कहें ?
इधर भोपाल के लोग कांग्रेस सरकार और वारेन एंडरसन के गैस त्रासदी के कत्लेआम से मर रहे थे।उधर सरकार अपराधियों को बचाने पर , त्रासदी पर पर्दा डालने पर जुटी हुई थी।  रेलवे से लेकर जितने भी लोग त्रासदी से बचाव के लिए जुटने वाले थे। उन सब पर कांग्रेस की क्रूर सत्ता का प्रहार चल रहा था।
आखिरकार!  वफादारी निभाने वाली कांग्रेस ने यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन को बकायदे प्लेन से सुरक्षित भारत से बाहर भिजवाया था। भोपाल गैस त्रासदी हर वर्ष केवल  फौरी तौर पर श्रद्धांजलि और शोक संवेदना का विषय बन चुका है। जबकि इस पर गहन शोध और उस त्रासदी से जुड़े हुए एक एक गवाह और घटनाक्रम का दस्तावेजीकरण, सिनेमैटोग्राफी होनी चाहिए। ताकि वर्तमान और भविष्य देख सके कि – किस तरह से आम जनता को सरकारें अपने स्वार्थों के लिए काल का ग्रास बना देती हैं।
इन्वेस्टगेटिव पत्रकार – स्व.राजकुमार केसवानी  के सहारे इस कहानी ने हर व्यक्ति को फिर से सोचने के लिए विवश कर दिया है। भोपाल वालो – मध्यप्रदेश वालो जरा! कांग्रेस से पू़ंछिए आम जनता का क्या गुनाह था जो उनकी मौत का सौदा किया गया? वारेन एंडरसन जैसे मौत कै सौदागर को अमेरिका भिजवाने का प्रबंध करने वाले क्या मौत के सौदागर नहीं थे ?
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top