ये प्रवृत्ति समाज और राष्ट्र को कहां लेकर जाएगी ?

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व्यक्ति को अक्सर सत्ता और पद अधिक लुभाते हैं । प्रायः ‘पाॅवर’ की हनक -सनक और सत्ता की चाबी को  एक बड़े उद्देश्य के रूप में देखा जाता है। सत्ता की निकटता और कृपा के आकांक्षी के रूप में पूरी मेहनत झोंक दी जाती है। हर व्यक्ति चाहता है कि याकि वह सत्ता के निकट हो जाए याकि उसकी प्रशस्ति पा सके । ऐसे समय में जब राजनीति और सत्ता का दख़ल प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ चुका है । आज सबकुछ राजनीति के चश्मे से देखा और दिखाया जा रहा है ।  आचार विचार व्यवहार सबकुछ राजनीति से ही प्रेरित और पथप्रदर्शित से दिख रहे हैं। इन  भयावह दृश्यों को देखकर ऐसा लगता है मानों सबकुछ राजनीति ही संचालित करेगी । अपने आपको कोई कितना भी निष्पक्ष कहे, चाहे कोई व्यक्ति हो, समूह हो, संगठन हों। याकि प्रबुध्द वर्ग के रूप में स्वयं की श्रेष्ठता की आत्ममुग्धता एवं प्रवञ्चना में डूबे हुए लोग हों ।

सम्भवतः हम सभी अपने वैयक्तिक और सामूहिक दोनों कर्त्तव्यों को भूल चुके हैं।बस कोरी औपचारिकता से ही इतिश्री कर अपनी स्वार्थपरता में डूबे रहना चाहते हैं। क्या यह समय गहरे आत्मावलोकन का नहीं है ? आज हम जिन महापुरुषों को आदर्श के रूप में पूजते हैं ; क्या उनके समय भी यही स्थिति नहीं रही हैं? किन्तु उन्होंने अपने समय में दृढ़तापूर्वक दीर्घकालीन दूरदृष्टि को आत्मसात किया और उसका परिणाम है कि आज हम उन्हें आदर्श के रूप में मानकर चल रहे हैं। हम विचार करें कि मात्र इन सौ वर्षों में ही कितने लोग समाज के आदर्श बन सके ? साथ ही इस पर भी विचार करें कि जो तात्कालिक आदर्श बने क्या वे लम्बे समय तक समाज के आदर्श के रूप में टिके रह सके ?

अपवादस्वरूप कुछ लोग, समूह, संगठन छोड़ दिए जाएं तो अधिकांशतः 99% सभी ‘राजनीति’ की ही शैली में ढले हुए दिखते हैं।  किन्तु जब इस प्रवृत्ति के दूरगामी लाभ हानि पर दृष्टि जाती है तो स्पष्ट दिखता है कि –  सत्ता या पद की निकटता, राजनीति से सञ्चालित होना ; राष्ट्र और समाज को दूरगामी समय में भयंकर हानि पहुंचाने वाले सिध्द होने वाला है।

हालांकि इस प्रवृत्ति से  व्यक्तिगत और सामूहिक स्वार्थों की पूर्ति क्षणिक तौर पर, अल्पकालीन समय तक अवश्य हो सकती है। किन्तु दीर्घकालीन हानि और इसके चलते जिन विकृतियों का उत्पात भविष्य में होगा उसका कोई सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। समाज जीवन की जितनी भयंकर दुर्दशा इससे उत्पन्न होगी ; वह अत्यन्त घातक होने वाली है । साथ ही इससे सामाजिक और सांस्कृतिक अवनति के जो ध्वंस उत्पन्न होंगे वो भविष्य की पीढ़ी को मेरूदण्डविहीन, जड़विहीन कर देने वाले होंगे। भारतीय जन जीवन में सत्ता या राजनीति  का इस ढंग का प्रयोजन कभी नहीं रहा है। सत्ता शासक और राजनीति तो केवल व्यवस्थाओं के सुचारू रूप से संचालन की मात्र एक इकाई ही रहे हैं। लेकिन जो भयावह दृश्य दशकों से भारतीय जन-जीवन को ग्रसता चला जा रहा है।  क्या वह समाज की विचार और कार्य प्रणाली को ही पंगु बनाता हुआ ही नहीं दिख रहा है? क्या इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है? ऐसा दृश्य क्यों निर्मित कर लिया गया है कि सत्ता या राजनीति की निकटता  और प्रशस्ति ही मानक बनकर उभरता चला जा रहा है । क्या ये नवीन मानकीकरण समाज और राष्ट्र के लिए किसी भी प्रकार से हितकारी हैं ? फिर ये दिशाविहीन लाचारी और स्वेच्छाचारिता समाज को कहां लेकर जाएगी ?

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