समाज को सिर्फ भाईचारे से ही बचाया जा सकता है। सामाजिक सौहार्द न हो तो हमारी सोसाइटी तार—तार हो जायेगी। उसी कहानी को ताना-बाना में रखते हुए, शॉर्ट फिल्म ‘रंग’ एक सच्ची सीख देती है।
निर्देशक और लेखक ने परिवेश उस समय का रखा है जब मोबाइल युग नहीं था। 90 के दशक में जब लैंड लाइन पाने के लिए भी महीनों टेलीफोन एक्सचेंज के चक्कर लगाने पड़ते थे। उसी दौर की कहानी है रंग।
कहानी है शुरू होती है, एक प्रखंड के अंदर हिंदू मुस्लिम के बीच हुए दंगे से। पहले दंगा हुआ, फिर कर्फ्यू लगा। कुछ दिनो तक कर्फ्यू रहा, फिर उसे हटाया गया। ऐसे माहौल में एक मुस्लिम गांव के एक बच्चे की जिद है स्कूल जाने की। पिता अशरफ डरा हुआ है कि ऐसे माहौल में कैसे जाऊं?
बेटे की जिद के आगे वह मान जाता है और अगले दिन बेटे को लेकर स्कूल के लिये सुबह निकलता है। रास्ते में हिंदुओं का गांव आता है और मुस्लिमों का गांव आता है तो वो आत्मसुरक्षा के लिये अलग अलग रंग के कागज के झंडे का इस्तेमाल करता है। हिन्दूओं के लिए गुलाबी और मुसलमानों के लिए हरा।
जब स्कूल पहुचता है तो अशरफ परेशान है कि जिस मकसद के लिये इतनी कठीनाई उठाकर स्कूल तक आए। वो तो पूरा ही नहीं होगा। दरअसल वे झंडा लाना भूल गया था। फिर पिता गुलाबी और हरे रंग के कागज की मदद से झंडा बनाकर बेटे को देता है, जब झंडा वाला दृश्य सामने आता है फिर दर्शक जान पाते हैं कि वास्तव में वह बच्चा 26 जनवरी के दिन स्कूल की परेड में शामिल होना चाहता था। हाथों में तिरंगा लेकर जन, गन, मन… गुनगुना चाहता था।
– निर्देशक सुनील पाल की शॉर्ट फिल्म रंग एक पिता और बेटे के जरिए इमोशन के ताने बाने के साथ बुनी हुई कहानी है, जो कम समय में आपको उस दुनिया में ले जाती है— जहां से बाहर निकल पाना आसान नहीं।
14 मिनट की फिल्म आज भगवा और हरे के बीच बंट चुके सामाजिक माहौल में उन्हीं दो रंगो को एक साथ लाकर तिरंगे में ढाल देने की बात करती है। ऐसी कहानियां आज के समय की जरूरत है, जिसके जरिए समाज में सौहार्द और एकता का अलख जगाकर दुनिया को और खूबसूरत बनाया जा सके।
हिंदू मुस्लिम दंगे के बीच एक बेटे और उसके पिता की घर से बाहर निकलकर स्कूल तक जाने की जद्दोजहद कहानी का मूल भाव है। निर्देशक सुनील पाल का काम वाकई काबिले तारीफ है।
फिल्म में पिता की भूमिका में अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी ने किरदार की आत्मा को बड़ी खूबसूरती से पर्दे पर उकेर दिया है। भावनात्मक दृश्यों में चेहरे का भाव संप्रेषण मानवेंद्र के संजीदा अभिनय का प्रमाण देता है। बेटे की भूमिका में बाल कलाकार कामरान ने भी कमाल किया है। मां का किरदार अनुरेखा और हैदर की भूमिका रानू ने निभाई है।
फिल्म का एक और पक्ष जो तारीफ का हकदार है वह है इसका खूबसूरत सिनेमैटोग्राफी। डीओपी पीपीसी चक्रवर्ती ने कैमरे से शाम और सुबह के दृश्यों को अच्छा बनाया है। शॉट फिल्म की पटकथा जितेन्द्र नाथ जीतू की है।