रमेश शर्मा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास बलिदानों से भरा है । क्राँतिकारी लेखक सागरमल गोपा को जेल में इसलिये जलाकर मार डाला गया था कि उन्होंने अपने ओजस्वी साहित्य से जन जागरण अभियान चलाया था ।
सागरमल गोपा मूलतः राजस्थान की जैसलमेर रियासत के थे । उनका जन्म तीन नवम्बर 1900 को जैसलमेर में हुआ था । उनकी आरंभिक शिक्षा जैसलमेर में हुई । उन्होंने संस्कृत और हिन्दी के साथ अंग्रेजी की शिक्षा भी ली । वे बहुत कुशाग्र बुद्धि थे । स्मरण शक्ति भी असामान्य थी ।
उनके पूर्वज रियासत के राजगुरु रहे हैं। पिता अखैराज गोपा भी रियासत के दरबारी थे । उन दिनों जैसलमेर में महरावल जवाहर सिंह का शासन था । पर जवाहर सिंह नाम के महरावल थे रियासत का शासन वहाँ तैनात अंग्रेज पॉलिटिकल एजेंट के इशारे पर चलता था । अंग्रेजों का प्रमुख काम जनता का शोषण करके अधिक से अधिक राजस्व बसूली था । इस वसूली के लिये रियासत के सिपाही पूरी रियासत में भीषण अत्याचार कर रहे थे ।
इस वातावरण से किशोर वय सागरमल को प्रभावित किया । समय के साथ युवा हुये । जब वे केवल अठारह वर्ष के थे तब 1918 में उन्होंने जैसलमेर में एक सभा की जिसमें अंग्रेजीराज की तो आलोचना की ही । इसके साथ इस अत्याचार में सहभागी होने केलिये महरावल की भी आलोचना की और इन अत्याचारों केलिये राजा को ही दोषी माना । इसके साथ अपने मित्रों से मिलकर एक पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें कुछ राष्ट्रवादी साहित्य और समाचारपत्र मंगाना आरंभ किये जिससे जन जागरण पैदा हो । इसके साथ जैसलमेर रायासत में वसूली के लिये हो रहे अत्याचारों पर एक पुस्तिका “जैसलमेर का गुण्डाराज” भी तैयार की और इसे वितरित करना आरंभ किया । इससे अंग्रेज पॉलिटिकल एजेंट और राजा दोनों कुपित हुये । महरावल ने गिरफ्तारी के आदेश दिया । युवा सागरमल बंदी बना लिये गये । पिता ने राजा से रिहाई की विनती की । राजा सहमत तो हुये पर जैसलमेर से निष्कासन की शर्त पर । पिता ने सहमति दे दी । पिता ने सागरमलजी को रिहा होते ही परिवार सहित नागपुर भेज दिया । यह 1920 का वर्ष था । सागरमल नागपुर आ गये पर यहाँ भी शांत न बैठे । 1921 में असहयोग आँदोलन आरंभ हुआ तो सहभागी हुये और गिरफ्तार कर लिये गये । उन्हे छै माह की सजा हुई । रिहा होकर पुनः जन जाग्रति और लेखन में ही जुट गये । उन्होने दिल्ली से प्रकाशित “विजय” एवं वर्धा से प्रकाशित “राजस्थान केसरी” में जैसलमेर सहित देशभर में राजनीतिक एवं सामाजिक सुधारों पर लेख लिखे ।
सागरमल गोपाजी ने रघुनाथसिंह मेहता के साथ मिलकर जैसलमेर में माहेश्वरी नवयुवक मंडल की स्थापना की । रघुनाथ सिंह जैसलमेर में ही रहते थे जबकि सागरमल जी नागपुर में रहकर ही इस संस्था से जुड़े थे । यह संस्था गुप्त रूप से राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचारार्थ राष्ट्रीय साहित्य वितरण एवं राष्ट्रीय भावना जागृत करने का कार्य कर रही थी ।
महारावल ने इस संस्था पर प्रतिबंध लगाकर पुस्तकालय जब्त कर लिया और रघुनाथसिंह मेहता को गिरफ्तार कर लिया गया ।
सागरमल गोपा ने नागपुर में रहकर ही जैसलमेर प्रजामंडल की स्थापना की संस्था प्रजामंडल काँग्रेस की ही ईकाई थी जो उन क्षेत्रों में सक्रिय थी जहाँ अंग्रेजों का सीधा शासन नहीं था । रियासती राज था पर अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित। जैसलमेर प्रजा मंडल ने नागरिक अधिकारों और सम्मान जनक जीवन के अधिकार के लिये अनेक अभियान चलाये । और राजनीतिक सुधारों की भी मांग की ।
1938 में जैसलमेर से उनके पिता के निधन का समाचार आया । वे जैसलमेर पहुँचे। पिता के अंतिम संस्कार कर वहीं रहने लगे । और स्वतंत्रता आँदोलन के लिये जन जागरण का अभियान आरंभ किया । 25 मई 1941 में बंदी बना लिये गये । उनपर निष्कासन आदेश का उल्लंघन करने और राजद्रोह का आरोप लगा । छो वर्ष की सजा दी गई। सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयनारायण व्यास जी ने इनकी रिहाई के लिये काँग्रेस के वरिष्ठ नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू जी से भी संपर्क किया । पर सफलता नहीं मिली । जेल में सागरमल जी के दो ही कार्य थे एक लेखन कार्य और दूसरा जेल अधिकारियों के अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना । इससे उनपर जेल अधिकारियों की भृकुटी सदैव तनी रहती। जेल के भीतर उनपर अमानुषिक अत्याचार हुये । 4 अप्रैल 1946 को थानेदार गुमान सिंह ने उन्हे बाँधकर घासलेट डाला और आग लगा दी । और सागरमल जी का बलिदान हुआ ।
भारत सरकार ने 1986 में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया और एक नहर का नाम भी उनके नाम पर रखा गया ।
सागरमल जी का पूरा जीवन सामाजिक जागरण के लिये समर्पित रहा । लेखन कार्य से भी और सभा संगोष्ठियों के माध्यम से भी । उन्होंने भारत भर के समाचारपत्रों में जैसलमेर के हालात लिखे । उनकी तीन पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाया गया उनमें “जैसलमेर का गुंडाराज” दूसरी “रघुनाथ सिंह का मुकदमा” और तीसरी “आज़ादी के दीवाने” पहली पुस्तक में जैसलमेर के राज्य में सरकारी तंत्र के अत्याचारों का वर्णन था । दूसरी पुस्तक में न्याय व्यवस्था के प्रति सतर्क रहने और तीसरी पुस्तक में देश के स्वतंत्रता आँदोलन में सक्रिय रहने और बलिदान होने वालों का विवरण था । अंग्रेजीराज और रियासत दोनों ने उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगाये जो आजादी के बाद ही हट सके ।