जो बोएंगे वही पाएंगे ….

PHOTO-2024-04-05-10-04-02.jpg

रामगोपाल

दिल्ली। आजकल एक नया शिगूफा शुरू हुआ है कि बच्चा अपना रास्ता स्वयं चुने। यह शिगूफा एक समस्या बनता जा रहा है। बात केवल नास्तिकता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह शारीरिक पहचान को भी क्षति पहुंचा रही है। बच्चे में जो संस्कार बचपन से भरे जाते हैं, वही आगे बढ़कर बृहत रूप लेते हैं। बचपन में जो बीज बोए जाएंगे वही आगे चलकर पेड़ का रूप लेंगे। अब यह आपके ऊपर है कि आप क्या बीज बोते हैं। यह भी है कि बीज आप स्वयं बोते हैं, या फिर खाली खेत छोड़ देते हैं और कोई और कुछ बोकर चला जाएगा।

प्रकृति का नियम यह है कि वह कहीं शून्य नहीं छोड़ती। यदि आपने अभीष्ट संस्कार नहीं दिए तो उस खाली जगह में आयातित संस्कार भर जाएंगे। यदि आप चाहते हैं कि आपकी संतान सही दिशा में चले तो सही दिशा आपको चुननी पड़ेगी और उस दिशा में संतान को ले जाना होगा। आपकी संतान दो तरीकों से सीखेगी। या तो उसे आप सिखा सकते हैं, या फिर वह स्वयं देखकर सीखेगा। बालमन कच्चा होता है, जरूरी नहीं कि वह आपको देखकर ही सीखे। उसकी नजर जहां तक जाएगी, वह वहां तक सीखेगा।

यदि आप अपने बच्चे को प्रारंभ से धार्मिक कथाएं सुनाते हैं, पूजा पाठ, आध्यात्म की ओर प्रेरित करते हैं तो बड़े होने पर कितना भी भटक जाए, वापस अपने रास्ते पर आ जाएगा।यदि आप बचपन से अपने बच्चे को मारपीट सिखाते हैं तो उसकी प्रवृत्ति यही रहेगी। दबना सिखाते हैं तो ताउम्र दबेगा, दाबना सिखाते हैं ताउम्र दाबेगा। यदि कुछ नहीं सिखाते हैं और यह सोचते हैं कि बड़ा होने पर अपना निर्णय स्वयं लेगा तो सादर क्षमा मांगते हुए कहता हूं कि आप गलत हैं। उसके मस्तिष्क को जो भोजन चाहिए वह लेगा ही। फिर चाहे वह आप उसे दें या कोई और। यदि बचपन में सही राह नहीं दिखाई तो राह से भटकाने का काम आप कर चुके हैं।

इसी क्रम में एक समस्या मैंने प्रत्यक्ष देखी है। अक्सर देखिएगा कि जिस व्यक्ति की केवल बेटियां होती हैं, वह एकाधिक बेटी को बेटा बनाकर पालेंगे। बचपन में तो ये बात बड़ी प्यारी लगती है। लेकिन धीरे धीरे वह शिशु यह समझ बैठता है कि वह वास्तव में लड़का है। शरीर का निर्माण भले माता के गर्भ में होता है, लेकिन विकास तो जन्म के बाद होता है। इसमें मस्तिष्क की अहम भूमिका होती है। मस्तिष्क उन रसायनों का निर्माण सुनिश्चित करता है जो विभिन्न अंगों का विकास सुनिश्चित करते हैं। संभवतः इन्हें ही हार्मोंस कहा जाता है।

विचार करके देखिए कि आपके घर में तोता पलता है जिसे अन्न चाहिए, लेकिन आप समझ रहे हैं कि आपने खरगोश पाल रखा है। ऐसे में क्या होगा? आप घास की मात्रा बढ़ा देंगे और अन्न एकदम नगण्य कर देंगे। आपका तोता कमजोर हो जाएगा। घास खाकर जिंदा तो रहेगा, लेकिन किसी काम का नहीं रहेगा। खरगोश तो बनने से रहा। यह असंभव ही है। यही शरीर करता है। जो हार्मोंस चाहिए वह बनेंगे नहीं, और जो नहीं चाहिए वह बनने लगेंगे। इसके विपरीत प्रभाव पड़ेंगे। शरीर के विभिन्न अंगों का जो विकास होना चाहिए वह नहीं होगा। शरीर तो छोड़िए, मानसिक अवस्था भी ऐसी हो जाएगी कि वह बच्ची स्वयं को आगे चलकर स्त्री नहीं मान पाएगी। स्त्री शरीर में फंसा हुआ एक पुरुष मिलेगा।

इसका उल्टा भी हो सकता है। पुरुष शरीर में फंसी हुई स्त्री भी हो सकती है। लेकिन ऐसे मामले कम आते हैं। कई मामले देखे हैं मैंने जहां विवाह की अवस्था होने पर अभिभावक चाहते हैं कि उनका ‘बेटा’ बेटी बन जाए। लेकिन यह हो नहीं पाता। ऐसे में या तो वह लड़की शादी ही नहीं करती, या फिर कर भी ले तो दांपत्य जीवन समस्याओं से भर उठता है। पति को स्त्री चाहिए होती है, लेकिन शरीर से आधी और मन से पूरा पुरुष उसे प्राप्त हो जाता है।

खैर! मेरा मानना यह है कि लड़की को आप तमाम शक्तियां दें। उसे स्वाबलंबी बनाएं, आत्मनिर्भर बनाएं, स्वतंत्र बनाएं, लेकिन पुरुष न बनाएं। ऐसा कुछ भी नहीं जो एक लड़की होते हुए नहीं पाया जा सकता है।

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top