मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारत की आत्मा हैं

screenshot-2024-01-06-180451.png
जयपुर। राम केवल एक नाम भर नहीं , बल्कि वे जन-जन के कंठहार हैं, मन-प्राण हैं, जीवन-आधार हैं। राम भारत की चेतना हैं, प्राणशक्ति हैं।  उनसे भारत अर्थ पाता है। वे भारत के पर्याय और प्रतिरूप हैं और भारत उनका। उनके नाम-स्मरण एवं महिमा-गायन में कोटि-कोटि जनों को जीवन की सार्थकता का बोध होता है। भारत के कोटि-कोटि जन उनके दृष्टिकोण से जीवन के विभिन्न संदर्भों-पहलुओं-परिप्रेक्ष्यों-स्थितियों-परिस्थितियों-घटनाओं-प्रतिघटनाओं का आकलन-विश्लेषण करते हैं। भारत से राम और राम से भारत को कभी विलग नहीं किया जा सकता। क्योंकि राम भारत की आत्मा हैं। भला आत्मा और शरीर को कभी विलग किया जा सकता है। एक के अस्तित्व में ही दूसरे का अस्तित्व है। वे निर्विकल्प हैं, उनका कोई विकल्प नहीं। राम ही धर्म हैं, धर्म ही राम है। कहा भी गया है ”’रामो विग्रहवान् धर्मः।” हम भारतीयों के जीवन का आदर्शलोक राम-नाम के धागों से बुना है। हर व्यक्ति के जीवन में, हर कदम पर जो भी शुभ है, सुंदर है, सार्थक है, अनुकरणीय है, वह ‘राम’ हैं। इसलिए राम सबके हैं। राम सबमें हैं। उनके सुख में भारत के जन-जन का सुख आश्रय पाता है, उनके दुःख में भारत का कोटि-कोटि जन आँसुओं के सागर में डूबने लगता है। अश्रुओं की उस निर्मल-पवित्र धारा में न कोई ईर्ष्या शेष रहती है, न कोई अहंकार, न कोई लोभ, न कोई मोह, न कोई अपना, न पराया। सारा जग ही अपना जान पड़ता है। कितना अद्भुत है उनका जीवन-चरित, जिसे बार-बार सुनकर भी और सुनने की चाह बनी रहती है! इतना ही नहीं, उस चरित को पर्दे पर अभिनीत करने वाले, उस चरित को जीने वाले, लिखने वाले, उनकी कथा बाँचने वाले हमारी आत्यंतिक श्रद्धा के उच्चतम केंद्रबिंदु बन जाते हैं। उस महानायक से जुड़ते ही सर्वसाधारण के बीच से उठा-उभरा सामान्य व्यक्ति भी नायक-सा मान-सम्मान पाने लगता है। उनके सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान में हमें अपने सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान की अनुभूति होती है। उनकी प्रसन्नता में सारा जग हँसता प्रतीत होता है और उनके विषाद में सारा जग रोता। उस महामानव के प्रति यही हमारे चित्त की दशा-अवस्था है। यह अकारण नहीं कि करोड़ों लोग आज भी रामायण  सीरियल के पुनर्प्रसारण और नवीन संस्करण को देख-देख भाव-विह्वल हो जाते हैं। करोड़ों लोग आज भी श्रीरामचरितमानस का पारायण कर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करते हैं।
शताब्दियों की प्रतीक्षा के पश्चात पौष शुक्ल द्वादशी को अभिजीत मुहूर्त में श्री रामलला के अपनी जन्मभूमि पर बने दिव्य और भव्य घर में विराजमान होने के पावन एवं महत्त्वपूर्ण अवसर पर यह प्रश्न उचित ही होगा कि आख़िर किस षड्यंत्र के अंतर्गत कभी तुलसी, कभी रामचरितमानस तो कभी स्वयं राम पर ही भ्रम और संशय निर्मित करने के बहुविध प्रयत्न किए जाते रहे? कौन नहीं जानता परंपरा से ही भारत की संस्कृति के केंद्रबिंदु राम, उनका चरित्र और उस चरित्र के सर्जक साहित्यकार रहे हैं। इसलिए विभाजनकारी शक्तियाँ वेश व रूप बदल-बदलकर इन पर हमलावर रही हैं। अधिक दिन नहीं बीते, जब तमाम पुरातात्विक अवशेषों और प्रमाणों के बावजूद श्रीराम के होने के प्रमाण माँगे जाते थे। आखिर किस षड्यंत्र के अंतर्गत उनकी स्मृति तक को उनके जन्मस्थान से मिटाने-हटाने के असंख्य प्रयत्न किए जाते रहे? क्यों तमाम दलों एवं बुद्धिजीवियों को न केवल राम-मंदिर से, बल्कि राम-नाम के जयघोष से, चरित-चर्चा-कथा से, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 9 नवंबर 2019 को उसके पक्ष में सुनाए गए ऐतिहासिक एवं बहुप्रतीक्षित फैसले तक से भी किसी-न-किसी रूप में आपत्ति रही ? एक लंबे अरसे तक क्यों उन्हें एक आक्रांता की स्मृति में खड़े गुलामी के प्रतीक से इतना मोह रहा? क्या वे नहीं जानते कि मज़हब बदलने से पुरखे नहीं बदलते, न संस्कृति ही बदलती है? क्या यह सत्य नहीं कि जिन दलों-राजनीतिज्ञों ने दशकों तक जातीय, सांप्रदायिक एवं पृथकतावादी राजनीति एवं खंडित अस्मिताओं को पाल-पोस-उभारकर राजनीतिक रोटियाँ सेंकीं, केवल उन्हें ही भारत की सामूहिक एवं सांस्कृतिक चेतना व अस्मिता के प्रतीकपुरुष श्रीराम, श्री राम के मंदिर और गोस्वामी तुलसीदास से आपत्ति एवं शिकायत रही? विभाजनकारी शक्तियाँ भली-भाँति यह जानती हैं कि श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास के भावकेंद्र श्रीराम और रामचरितमानस के प्रति सर्वसाधारण के गहरे झुकाव, समर्पण व पवित्र भाव के रहते उनके द्वारा प्रयासपूर्वक रोपे गए विभाजन की विष-बेल के फलने-फूलने-पनपने की संभावना नगण्य या न्यूनतम रहेंगीं, इसलिए वे कोई-न-कोई बहाना बनाकर इन पर हमलावर रहती हैं। रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात जनमानस में आई राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जागृत्ति से कदाचित अब ऐसे अप्रिय प्रसंगों का पटाक्षेप हो!
प्रश्न तो यह भी उचित होगा कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस एक चरित्र को हम अपनी सामूहिक एवं गौरवशाली थाती के रूप में सहेजते-संभालते आए, आख़िर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत बड़ी ढिठाई एवं निर्लज्जता से उसे काल्पनिक बताया जाता रहा? उसके अस्तित्व को लेकर शंका के बीज वर्तमान पीढ़ी के हृदय में किसने और क्यों बोए? जो एक चरित्र करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन का आधार रहा हो, जिसमें करोड़ों-करोड़ों लोगों की साँसें बसी हों, जिससे कोटि-कोटि जन प्रेरणा पाते हों, जिसने हर काल और हर युग के लोगों को संघर्ष व सहनशीलता, धैर्य व संयम, विवेक व अनुशासन की प्रेरणा दी हो, जिसके जीवन-संघर्षों के सामने कोटि-कोटि जनों को अपना संघर्ष बहुत छोटा प्रतीत होता हो, जिसके दुःखों के पहाड़ के समक्ष अपना दुःख राई-रत्ती जान पड़ता हो, जिसके चरित्र की शीतल छाया में कोटि-कोटि जनों के ताप-शाप मिट जाते हों, जिसके व्यक्तित्व के दर्पण में व्यक्ति-व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपने सभी श्रेष्ठ-सुंदर भाव-आचार-विचार-साहस-सौगंध-संस्कार-संकल्प का सहज प्रतिबिंब दिखाई देता हो, जिसका जीवन कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, धर्म-अधर्म का सम्यक बोध कराता हो, जो मानव-मात्र को मर्यादा और लोक को ऊँचे आदर्शों के सूत्रों में बाँधता-पिरोता हो, जो हर युग और काल के मन-मानस को नए सिरे से मथता हो और विद्वान मनीषियों के हृदय में बारंबार नवीन एवं मौलिक रूप में आकार ग्रहण करता हो- ऐसे परम तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी, मानवीय श्रीराम को काल्पनिक बताना राष्ट्र की चिति, प्रकृति और संस्कृति का उपहास उड़ाना नहीं तो और क्या था? अच्छा तो यह होता कि स्वतंत्र भारत में भी श्रीराम-मंदिर के भव्य निर्माण में विलंब करने या जान-बूझकर अड़ंगा डालने वालों को कठघरे में खड़ा कर उनकी नीति और नीयत पर सवाल पूछे जाते!
पर समय और समाज आज इन प्रश्नों को छोड़कर बहुत आगे बढ़ चला है। लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप अंततः आस्था एवं विश्वास की विजय होनी थी, सो हुई। श्रीराम के भव्य, दिव्य एवं विशाल मंदिर में रामलला के विराजने के पश्चात जनमानस में जो हर्ष, उल्लास एवं उत्साह दिखाई दे रहा है, वह असाधारण, अद्वितीय एवं अलौकिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम से श्रद्धालुओं का जनसैलाब अयोध्या में उमड़ आया हो। मन, प्राण एवं चित्त को विह्वल करने वाले भावदृश्य प्रतिदिन अयोध्या से सामने आते हैं। भगवद्भक्ति में जीवन  की महत्ता एवं सार्थकता ढूँढ़ने व पाने वाले भारतवर्ष को यदि सही-सही अर्थों में समझना हो तो कुछ दिन अयोध्या में अवश्य व्यतीत करना चाहिए। और अयोध्या ही क्यों, आज तो पूरा भारत ही राममय हो उठा है। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम केवल उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम को ही सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता के सूत्र में नहीं बाँधते, अपितु वे संपूर्ण विश्व के सनातनियों को हृदय के तल पर जोड़ते हैं। और कोई तत्त्व-ज्ञान जानें या मानें अथवा नहीं, केवल राम-नाम के तत्त्व व महत्त्व को समझ जाएँ तो सनातन का सार समझ आ जाता है। राम-नाम इस देश को जोड़ने की कुंजी है। भक्ति और भाव के आनंदित कर देने वाले ऐसे दृश्यों की आंशिक झलक देश-दुनिया ने श्रीराम जन्मभूमि निधि समर्पण अभियान के दौरान भी देखी थी। तब जितना लक्ष्य रखा गया था, इस देश के श्रद्धालु समाज ने उससे कई गुना अधिक राशि ‘तेरा तुझको अर्पण’ के भाव से श्रीराम मंदिर निर्माण ट्रस्ट को समर्पित कर दी थी। प्रभु श्रीराम ने सर्वसाधारण यानी वनवासी-गिरिवासी, केवट-निषाद-कोल-भील-किरात से लेकर वानर-भालु-रीछ जैसे वन्यप्राणियों को भी उनकी असीमित-अपराजेय शक्ति की अनुभूति कराई थी। उन्होंने लोकशक्ति का संचय, संग्रह और संस्कार कर आसुरी व अहंकारी शक्तियों पर विजय पाई थी। श्रीराम के राघव स्वरूप विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा अपने भीतर और लोक में व्याप्त उन्हीं आंतरिक एवं सामूहिक शक्तियों को स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का अनूठा प्रयास व पर्व है। यह पर्व विभाजनकारी विष-बेल को सींचने-पोसने-पालने वाली आसुरी शक्तियों पर अपने सामूहिक धैर्य, विवेक, संयम, साहस और अनुशासन से विजय पाने के संकल्प का पर्व है। उत्सवधर्मिता हम भारतीयों की मूल पहचान है। प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हम जीवन की अजेयता के, आस्था व विश्वास के गीत गाते रहे हैं, गाते रहेंगें। हमारी संस्कृति सृजनधर्मा है। हम सृजन के वाहक बन समय की हर चाप और चोट को सरगम में पिरोते रहेंगें। श्रीराम के प्रति अपनी सामूहिक आस्था एवं विश्वास के बल पर हम भविष्य में भी हर प्रकार की विभाजनकारी-उपद्रवी-आतंकी शक्तियों के साथ साहस-सावधानी-सतर्कता से जूझेंगें, लड़ेंगें, अंततः विजय पाएँगे और जीतकर भी विश्व-मानवता के प्रति विनयशील रहेंगें। अयोध्यापति श्रीराम हमें समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता और हर हाल में लोक-मर्यादा के पालन की सीख देते हैं। अतः उल्लास व उत्सव की इस बेला में अंतिम व्यक्ति की चिंता एवं मर्यादा की लक्ष्मणरेखा हमारी दृष्टि से ओझल न होने पाए!

Share this post

प्रणय कुमार

प्रणय कुमार

बतौर शिक्षा प्रशासक कार्यरत प्रणय कुमार लेखक और शिक्षाविद हैं। अध्यापन के साथ विभिन्न अखबारों/पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते हैं। इसके साथ ही भारतीय दर्शन, चिंतन तथा सनातन ज्ञान परंपरा पर अपने व्याख्यान के लिए जाने जाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top