मनोज श्रीवास्तव
विजयेन्द्र मोहंती जैसे लोग जो रावणायन की कामिक स्ट्रिप लिख रहे हैं या तमिल नाटककार मनोहर जिन्होंने ‘लंकेश्वरम’ नाटक लिखा, रावण के परिप्रेक्ष्य से भी इस कथा को सुनने समझने की कोशिश कर रहे हैं। रावण एक पल को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जा सकता है जिसने सीता के प्रति अपने प्यार के चक्कर में अपनी जान दे दी। एक फॉरबिडन लव, एक ट्रेजिक हीरो। अच्छी कहानी बनती है। रावण ने एक असाध्य प्रेम के लिए अपनी मृत्यु सुनिश्चित की।
लेकिन तथ्य यह नहीं है। वाल्मीकि रामायण के आधारग्रंथ में रावण का यह तथाकथित ‘डिवाइन रोमांस’ किसी तरह दिव्य नहीं है। सीता को अपहृत करके लाना राम को निपटाने की तरकीब थी।
अकंपन ने अरण्यकांड के 31वें सर्ग में रावण को सलाह दी थी : “उस विशाल वन में जिस किसी भी उपाय से राम को धोखे में डालकर आप उनकी पत्नी का अपहरण कर लें। सीता से बिछुड़ जाने पर राम कदापि जीवित नहीं रहेंगे।” यह थी रावण के दिव्य प्रेम की तथाकथित प्रेरणा।
फिर शूर्पणखा रावण को सरासर झूठ बोल कर उकसाती है : “महाबाहो ! विस्तृत जघन और उठे हुए पुष्ट कुचों वाली उस सुमुखी स्त्री को जब मैं तुम्हारी भार्या बनाने के लिए ले जाने को उद्यत हुई, तब क्रूर लक्ष्मण ने मुझे इस तरह कुरूप बना दिया।” मारीच से छत्तीसवें सर्ग में वह यह भी कहता है कि “उसके बाद स्त्री का अपहरण हो जाने से जब राम अत्यन्त दुखी और दुर्बल हो जाएगा, उस समय में निर्भय होकर सुखपूर्वक उसके ऊपर कृतार्थ चित्त से प्रकार करूंगा।”
तो रावण के द्वारा सीता का अपहरण रावण के अमर प्रेम का परिणाम नहीं था। सीता के राम के प्रति अमर-प्रेम का परिणाम था। अयोध्याकांड के सत्ताईसवें सर्ग के 21वें श्लोक में सीता यह कहती हैं कि “पुरुष सिंह आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलेाक को निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिए रुचिकर नहीं हो सकता। मैं उसे लेना नहीं चाहूंगी।” दूसरी ओर तीसवें सर्ग के 27वें श्लोक में राम कहते हैं कि “सीते तुम्हें दुख देकर मुझे स्वर्ग का सुख मिलता हो मैं उसे भी नहीं चाहूंगा।” दोनों एक-दूसरे को अभिन्न मानते हैं।
जबकि रावण के लिए सीता राम को कमजोर करने का एक अस्त्र भर है। सीता से रावण का कोई आत्मिक आध्यात्मिक लगाव कहीं नजर नहीं आता।
दूसरे जिस एक बात को रावण का पुनर्लेखन करने वाले लोग नजर अंदाज कर रहे हैं, वह है सीता को चुराकर लाना। रावण जिसकी तथाकथित वीरता के किस्से सुनाते लोग नहीं अघाते, वीर्यशुल्का सीता को उसके स्वयंवर में क्यों नहीं जीत सका? या स्वयं राम या लक्ष्मण के सामने ही युद्ध करके क्यों नहीं जीत सका? यदि राम के हाथों वीरगति की उसकी गुप्त इच्छा थी तो सीतापहरण के समय उसने यह सीधी मुठभेड़ क्यों न कर ली? योद्धा का कवच पहनकर राम के सामने क्यों नहीं गया? परिव्राजक का वेष धरकर सीता के सामने क्यों गया? हार की जीत कहानी में नायक को यह भय है कि आगे से लोग अंधे पर भरोसा करना नहीं छोड़ दें। लेकिन पौलस्त्य को भय नहीं कि उसकी इस हरकत के बाद परिव्राजकों पर लोग भरोसा करना छोड़ देंगे?
छियालीसवें सर्ग (वा.रा.अ.कां.): वाल्मीकि लिखते हैं: “राम से बदला लेने का अवसर ढूंढ़ने वाला दशमुख रावण उस समय भिक्षुरूप में विदेहकुमारी सीता के पास पहुंचा।” वह संस्कृति जो ‘भिक्षां देहि’ के सिद्धान्त पर चलती थी, उसकी इस गुणवत्ता का का ऐसा उपयोग?
इसी सर्ग के 32वें से 36वें श्लोकों में बाल्मीकि बताते हैं : “वेशभूषा से महात्मा बनकर आये हुए रावण ने जब विदेहकुमारी सीता की इस प्रकार प्रशंसा की, तब ब्राह्मण-वेष में वहां पधारे हुए रावण को देखकर मैथिली ने अतिथि सत्कार के लिए उपयोगी सभी सामग्रियों द्वारा उसका पूजन किया। पहले बैठने के लिये आसन दे, पाद्य निवेदन किया। तदनंतर ऊपर से सौम्य दिखायी देने वाले उस अतिथि को भोजन के लिए निमंत्रित करते हुए कहा- “ब्राह्मण ! भोजन तैयार है, ग्रहण कीजिये।” “वह ब्राह्मण के वेष में आया था। कमण्डलु और गेरूआ वस्त्र धारण किये हुए था। ब्राह्मण भेष में आये हुए अतिथि की उपेक्षा असंभव थी। उसकी वेशभूषा में ब्राह्मणत्व का निश्चय कराने वाले चिन्ह दिखाई देते थे, अतः उस रूप में आये हुये उस रावण को देखकर मैथिली ने ब्राह्मण के योग्य सत्कार करने के लिए ही उसे निमन्त्रित किया। वे बोलीं- “ब्राह्मण ! यह चटाई है, इस पर इच्छानुसार बैठ जाइए। यह पैर धोने के लिए जल है, इसे ग्रहण कीजिए और यह वन में ही उत्पन्न हुआ उत्तम फल-फूल आपके लिए ही तैयार करके रखा गया है, यहां शान्त भाव से उसका उपभोग कीजिए।”
सीता ब्राह्मण, भिक्षा और आतिथ्य के तीन दायित्वों को एक अजनबी के प्रति भी निभाती हैं और रावण छल और प्रवंचना को-अंग्रेजी शब्द में कहें तो chicanery को- इस सहज विश्वासी निश्छलहृदया नारी के विरुद्ध प्रयुक्त करता है।
सीता उचित ही राम और रावण में यह फर्क तभी बता देती हैं : “वन में रहने वाले सिंह और सियार में, समुद्र और छोटी नदी में तथा अमृत और कांजी में जो अंतर है, वही अन्तर राम और तुझमें है। सोने में और सीसे में, चंदन मिश्रित जल और कीचड़ में तथा वन में रहने वाले हाथी और बिलाव में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है। गरूड़ और कौए में, मोर और जलकाक में तथा वनवासी हंस और गीध में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है।”
यह सीता के लिए प्रेम नहीं, सीता का अपमान था और 48वें सर्ग (अ.का.) के अंतिम श्लोक में सीता इसे कहती भी हैं :
“राक्षस। वज्रधारी इन्द्र की अनुपम रूपवती भार्या शचि का तिरस्कार करके संभव है कोई उसके बाद भी चिरकाल तक जीवित रह जाए, परन्तु मेरी जैसी स्त्री का अपमान करके तू अमृत पी ले तो भी तू छूट नहीं सकता।”
अंग्रेजी में धोखे के लिए ‘मंकी-साइंस’ नाम या ‘मंकी बिजनेस’ नाम गलत रखा गया है। रावण जिस तरह से अपहरण को सेट अप करता है, उससे लगता है कि रावण के नाम पर मिथ्याचार का नाम होना था। क्या ऐसी धूर्तता और फरेब को हम ‘पराजित’ का इतिहास लिखने के नाम पर रक्षित कर सकते हैं?
लगता है, राम को ब्राह्मणवाद का प्रतिनिधि बताने वालों के लिए भी जरूरी हो जाता है कि वे रावण की मक्कारी, ईमान फरामोशी और साजिश को भी महिमा मंडित करें। चूंकि राम की किसी भी तरह लानत-मलानत करनी है तो इनके लिए जरूरी है कि रावण के द्वारा किए गए बलात्कारों पर चुप ही रहा जाए। न वेदवती के बारे में कुछ बोला जाए, न पुंजिकास्थली के बारे में कुछ बोला जाए, न रंभा के बारे में बल्कि उसके बारे में यह प्रचारित किया जाए कि उसने जिसका भी अपहरण किया, उनकी मर्जी से किया।
एक तमिल वर्शन रामायण का अभी आया है जिसमें सीता राम, लव, कुश को छोड़कर रावण के पास वापस चली जाती हैं, वीणा सीखने। यदि रावण सभी को उनकी मर्जी से ही हर ले गया था तो यह क्यों हुआ कि नलकूबर ने जब रावण को यह शाप दिया कि “वह आज से दूसरी किसी ऐसी युवती से समागम नहीं कर सकेगा जो उसे चाहती न हो। यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे,” तो वह जिन-जिन पतिव्रता स्त्रियों को हरकर ले गया था, उन सबके मन को नलकूबर का दिया हुआ वह शाप बड़ा प्रिय लगा और उसे सुनकर वे सब-की-सब बहुत प्रसन्न हुईं।”
पराजित के प्रति सहानुभूति और ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतीकों से घृणा के चक्करों में हम रावण के किन-किन कुकर्मों को इग्नोर करेंगे?
(फेसबुक से साभार)