विजय मनोहर तिवारी
अमृतलाल वेगड़ को पढ़कर वर्षों पहले पहली बार यह मालूम हुआ था कि नर्मदा अकेली ऐसी नदी है, जिसकी परिक्रमा की जाती है। हजारों लोग हर साल नर्मदा के दोनों तटों पर आकर जा रहे होते हैं। सैकड़ों मंदिरों और आश्रमों में रात को रुक रहे होते हैं और सुबह होते ही निकल रहे होते हैं। पहाड़ी पगडंडियों, गाँव-कस्बों से गुजरने वाले रास्तों से लेकर खेत-खलिहानों से यह आवागमन सदियों से चल रहा है। भारतीयों की आस्था ने एक नदी को सिद्ध बना दिया है। यह सिद्धों की नदी है।
कितना भी उत्तम लेखन हो, पढ़ना केवल शाब्दिक संपर्क है, जिसमें थोड़ी देर के लिए भाषा बाँध लेती है। लेखक की अभिव्यक्ति आकर्षक हो तो कुछ समय के लिए आप उस पराई अनुभूति पर मंत्रमुग्ध हो जाएँगे। किंतु नर्मदा का वास्तविक अनुभव केवल उन रास्तों को नापते हुए ही संभव है, जहाँ से आज भी हजारों जिज्ञासु, सृजनशील, अध्येता, साधक, संत और सामान्य श्रद्धालु अपने अगले पड़ाव की ओर चले जा रहे हैं।
आप पाएँगे कि नर्मदा के परकम्मावासियों में कोई पहली बार निकला है, कोई वेगड़ की तरह टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी समय और सुविधानुसार वर्षों में अपनी यात्रा पूरी करेगा। कोई लगातार चलते हुए दो या चार परिक्रमाएँ पहले कर चुका है और अब नर्मदा ने एक बार फिर बुला लिया है।
जिस तट से भी आप आरंभ करेंगे, नर्मदा आपके दाहिनी ओर बहती रहेंगी। अखंड रूप से घूमते हुए 3 साल 3 माह और 13 दिन में पूरा होने वाला यह एक चुनौतीपूर्ण उपक्रम है। यह पर्यटक मन से होने वाली मजा-मौज की यात्रा नहीं है। यह स्वयं को जानने और स्वयं को पाने की गहरी प्यास का एक आजमाया हुआ आमंत्रण है। इच्छाएँ अगर भटकाती हैं तो यह किसी बड़ी आकांक्षा की पूर्ति के लिए नर्मदा के तटों पर भटकना भी हो सकता है।
एक नेता किसी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए नर्मदा की यात्रा पर निकलेगा, एक साधक आध्यात्मिक तृप्ति के भाव से और एक सामान्य व्यक्ति केवल अपना लोक-परलोक सुधारने की अभीप्सा से। नर्मदा ने अगर किसी की सुन ली है तो कोई धन्यता के भाव से भी एक या एक से अधिक बार परकम्मा पर निकला हुआ हो सकता है। बगल में अनेक रूप और आकारों में प्रवाहित नर्मदा एक दर्पण जैसी है, जिसमें आप अपने आपको पाते हैं।
मैं एक टोली के साथ पहले चरण की सात दिन की यात्रा से लौटा हूँ और जो कुछ भी कहना चाहता हूँ, कह नहीं पा रहा हूँ। कुछ विवरण लिख भले दूँ किंतु बहुत संभव है कि अनुभव तब भी व्यक्त न हो पाए। हम अमरकंटक से डिंडोरी तक पाँव-पाँव चले। अमरकंटक में उस जलकुंड से जहाँ से नर्मदा का जन्म है। अभी बारिश का मौसम ठीक से विदा हुआ भी नहीं था।
पहले ही दिन कपिल धारा के बाद साल के ऊंचे वृक्षों के बीच से चलकर पहले पड़ाव तक पहुँचने के पहले बूंदाबांदी शुरू हो गई। इस साल घनी झाड़ियों से घिरी गीली पगडंडियों से गुजरने वाला हमारा पहला ही जत्था होगा, क्योंकि पारंपरिक परिक्रमा देवउठनी ग्यारस के बाद से विधिवत आरंभ होती है।
वेगड़ की पहली किताब “सौंदर्य की नदी नर्मदा’ और तीसरी “तीरे-तीरे नर्मदा’ में अमरकंटक से डिंडोरी के मार्ग की चर्चा है इसलिए इन्हें साथ लेकर गया और दूसरी बार वहीं पढ़ा। सच कहूँ तो वेगड़ के बाद नर्मदा यात्रा पर कुछ भी लिखना व्यर्थ है। नर्मदा जैसी सहज-सरल धारा पर उसके स्वभाव के अनुकूल जो लिखा जा सकता था अमृतलाल वेगड़ ने अपना ह्दय उड़ेलकर लिख डाला है। रही-सही कसर उन जीवंत कोलाजों से पूरी कर दी है, जिसे बनाने के लिए वे 1977 से 2009 के बीच लगातार यात्रा करते रहे। इन रेखाचित्रों में नर्मदा के तटों पर बह रहा जीवन का हर कोना धड़कता है। हर गतिविधि उनके किसी न किसी रेखाचित्र में उभरकर आई है। शब्दों जितने ही प्रभावी उनके रेखाचित्र हैं। नर्मदा की स्तुति में उन्होंने शब्दों की थाली में इन्हीं रेखाओं का दीया जलाया है। नर्मदा ने वेगड़ को अमर कर दिया।
हमारे दल को अयोध्या के प्रसिद्ध आचार्य मिथिलेशनंदिनी शरण का मार्गदर्शन मिला। जनवरी में अयोध्या प्रवास के दौरान यह विचार आया था कि कुछ दिन हमें ऐसी ही एक यात्रा पर एक साथ होना चाहिए। आचार्यजी ने अपनी सहमति दे दी थी। अंतत: मप्र जनजातीय एवं बोली विकास अकादमी के निदेशक डॉ. धर्मेंद्र पारे और दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्र ने एक-एक दिन का रूट चार्ट बनाया। स्थानीय सहायकों को जोड़ा।आवश्यक सामग्री की सूची तैयार की। मुझे अपने गाँव में ही सूचना मिली कि तत्काल चले आएँ, आचार्य अयोध्या से निकल पड़े हैं।
जब अक्टूबर की 13 तारीख तय हुई और अमरकंटक से पैदल आरंभ करने की योजना बनी तो जबलपुर और मंडला के कुछ मित्रों ने तत्काल प्रभाव से सावधान किया। पहली बार जा रहे हैं, आचार्य साथ होंगे, वह मार्ग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र है, जहाँ आवश्यक सुविधाओं का अकाल होगा, कोई मैदानी मार्ग चुन लीजिए, बाद में वहाँ पहुँचिए। किंतु आचार्यजी ने इन सावधानियों की फाइल को एक ओर सरकाते हुए प्रसन्नतापूर्वक अमरकंटक से ही आरंभ करने को कहा और तय समय पर चले आए तो हम उनके संग-संग वहीं से निकले।
मंडला मूल के लालाराम चक्रवर्ती बहुतों को लेकर इन मार्गों से गुजरे हैं। इस बार वे अपनी फौजी मुद्रा में हमारे आगे चले। दयाराम रठूड़िया बैगा जनजाति के हैं, जिन्होंने दो पड़ावों पर अपने रंगबिरंगे जनजातीय कलाकारों से भेंट कराई। ढुलिया समाज के लेखपाल धुर्वे, कोमल और संतोष श्याम ने यात्रा के संकट सरल किए। खरगोन के टांडा बरुड़गाँव के छोगालाल कुमरावत सबका हाथ बटाने के लिए आ गए और इस प्रकार यह दल अपने जीवन के पहले ही विलक्षण अनुभवों को बटोरने के लिए निकल पड़ा।
इस संक्षिप्त यात्रा अनुभव में मेरे देखे नर्मदा एक निमित्त है, जो अनगिन साधकों को उनके जन्म और जीवन के अगले पड़ावों की यात्रा में सहायक बनी है। निरंतर परिक्रमा ने एक ऐसी महान परंपरा को जन्म दिया है , जो एक नदी का विस्मित करने वाला आभामंडल है। भारत की सांस्कृतिक विविधता के राेमांचक विस्तार में वह एक ऐसी चमकीली रेखा है, जो सदियों से अतृप्त आत्माओं में बिजली सी कौंध रही है। नर्मदा साधना से सिद्धि का मार्ग है। विपरीत दिशा में प्रवाहित एक क्षुद्र धारा के नदी में परिवर्तित होने और अंतत: एक दिन सागर से जा मिलने का मार्ग है। इस प्रकार यह बिंदु से विराट होने का सिद्ध संकेत है।