दीवाली पराली और दिल्ली में वायु प्रदूषण

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धीप्रज्ञ द्विवेदी

दिल्ली एक ऐसा महानगर है जहां विश्व के अन्य महानगरों की तरह प्रदूषण सालों भर मौजूद रहता है। दिल्ली में प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में सड़क परिवहन और भवन निर्माण शामिल हैं, लेकिन प्रदूषण की यह मात्रा अक्टूबर नवंबर के समय अपने चरम पर होती है, विशेष कर दीवाली के आसपास यह माना जाता है कि दिल्ली में प्रदूषण अपने चरम पर रहता है। दीवाली के आसपास प्रदूषण के चरम पर होने के पीछे पहले यह माना जाता था कि दीवाली के समय जो पटाखे का उपयोग होता है उसके कारण यह प्रदूषण होता है,

लेकिन अब तो दीवाली के समय दिल्ली में पटाखों का उपयोग प्रतिबंधित है और इसी प्रतिबंध के अंतर्गत कुछ दिन पहले आनंद पर्वत क्षेत्र में एक व्यापारी से लगभग 1000 किलो पटाखे जब्त किए गए ताकि इस त्योहार के सीजन में लोग पटाखों का उपयोग न कर पाए। वैसे त्योहारों में पटाखों का उपयोग प्रतिबंधित है लेकिन नेताओं की रैलियां में और पार्टियों के विजय जुलूस में और साथ ही 31 दिसंबर के आसपास के समय में पटाखों पर कोई प्रतिबंध नहीं होता, शायद इस प्रकार के कामों में उपयोग किये जाने वाले पटाखे ऐसे हैं जिनसे वातावरण में प्रदूषण नहीं फैलता है। खैर दीवाली के समय पटाखे प्रतिबंधित हैं ऐसी स्थिति में पटाखों के कारण इतना प्रदूषण होने का प्रश्न नहीं आता है। इसके बाद से यह कहा जाने लगा की दीवाली की समय प्रदूषण का मूल कारण पंजाब और हरियाणा के किसान हैं, पंजाब और हरियाणा के किसान पराली जलाते हैं। इस कारण से दिल्ली में प्रदूषण होता है। यह बात सही है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों के द्वारा जलाई गई पराली का धुआं पछुआ पवनों के साथ दिल्ली तक पहुंचता है इस कारण से दिल्ली में प्रदूषण की समस्या पर थोड़ा सा असर पड़ता है, लेकिन यह भी मुख्य कारण नहीं है। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि पर्यावरणीय अवस्थाओं के अनुरूप दिल्ली में वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए कदम ना उठाना। लेकिन पहले हम चर्चा करेंगे पराली की। इसमें हमें यह भी समझना होगा कि आखिर क्या कारण है कि किसान इस समय में पराली जलाते हैं? इस वर्ष पंजाब में अभी से पराली जलाना प्रारंभ हो गया है और अब तक लगभग 150 स्थानों पर इसकी सूचना मिली है जहां किसानों ने पराली जलाया है। पराली की समस्या कब से प्रारंभ हुई इसके लिए हमें थोड़ा सा अतीत में जाना होगा, और हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पराली की समस्या का संबंध धान की खेती से है गेहूं की खेती से नहीं है।

थोड़ा अतीत में चलते हैं और जानने का प्रयास करते हैं। 1960 के प्रारंभिक वर्षों की आर्थिक सर्वेक्षण अनुसार भारत में केवल तीन प्रतिशत खेती यंत्रों पर आधारित थी अर्थात मैकेनाइज्ड थी बाकी 97% खेती पारंपरिक तरीके से हल बैलों के द्वारा की जाती थी। इस स्थिति में जो भी गेहूं या धान के हिस्से बच जाते थे खेतों में उनको जानवरों को विशेष कर गाय बैलों को खिला दिया जाता था और किसान को उस बचे हुए हिस्से को जलाना नहीं पड़ता था। 1965 के युद्ध में हमें खाद्यान्न की समस्या से जूझना पड़ा इस कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी ने “जय जवान जय किसान” का नारा दिया और साथ ही पूरे देश से आग्रह किया कि सप्ताह में एक समय आप भोजन न करें ताकि सैनिकों को अन्न की सप्लाई सुनिश्चित की जा सके। तभी दुर्भाग्य से शास्त्री जी की मृत्यु ताशकंद में हो गई और श्रीमती इंदिरा गांधी जी भारत की प्रधानमंत्री बनीं। उन्होंने खाद्यान्न की समस्या से निपटने के लिए भारत में हरित क्रांति को लागू किया जिसके अग्रदूत बने डॉक्टर एम एस स्वामीनाथन। वैसे अब यह माना जाता है कि जिन बीजों का उपयोग एमएस स्वामीनाथन जी ने भारत में किया मूल रूप से उन बीजों का निर्माण और विकास एक अन्य भारतीय कृषि वैज्ञानिक पांडुरंग खानकोजे ने मेक्सिको में किया था।

हरित क्रांति सफलतापूर्वक पंजाब और हरियाणा में लागू की गई जिसका परिणाम यह हुआ कि यहां पर इन क्षेत्रों में धान की खेती बड़े पैमाने पर प्रारंभ हुई उसके पहले तत्कालीन पंजाब में धान की खेती बहुत ही सीमित क्षेत्रों में की जाती थी साथ ही साथ कृषि का यंत्रीकरण अर्थात मैकेनाइजेशन प्रारंभ हुआ। जैसे-जैसे कृषि में मैकेनाइजेशन बढ़ता गया वैसे-वैसे कृषि से गाय बैलों की उपयोगिता कम होती चली गई सबसे पहले बैल की उपयोगिता समाप्त हुयी और उसके साथ-साथ धीरे धीरे गाय की आवश्यकता कम होने लगी तो किसानों ने गाय और बैलों को रखना बंद कर दिया। 1980 के दशक तक आते-आते समस्या यह हो गई कि किसानों के पास गाय बैलों की संख्या इतनी कम हो गई कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था की पराली का क्या करें क्या न करें क्योंकि उसके पहले तक धान की पराली को बैलों और गायों को खिला दिया जाता था जिससे किसान के पास उसका भी एक उपयोग होता था। अब कृषि के यंत्रीकरण ने सबसे पहले कृषि से बैलों को बाहर किया और जब बैलों का उपयोग समाप्त हो गया तो गायों को रखने की अनिवार्यता भी समाप्त हो गई और उसका सीधा असर यह हुआ कि किसान एक नए तरह की समस्या से जूझने लगा जिससे हम पराली की समस्या के रूप में जानते हैं, तो किसानों के लिए सबसे आसान यह रहा कि पराली को जला दिया जाए। पराली जलाने की समस्या का प्रारंभ 1980 के दशक में होता है वहां से लेकर लगभग 2005-06 तक या कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी, लेकिन धान की खेती ने एक बहुत बड़ा प्रभाव भूजल के ऊपर डाला क्योंकि धान की खेती के लिए जल की बहुत अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है जिस कारण किसानों ने बड़े पैमाने पर भूजल का दोहन किया जिसके बाद 2006-07 के आसपास पंजाब में भूजल संरक्षण कानून बनाया गया, जिसके अनुसार यह तय किया गया कि किसान भूजल का उपयोग नियत समय के पहले नहीं कर सकते इस कारण से जो धान की खेती अप्रैल-मई में प्रारंभ होती थी अब उसका समय बदलकर जून के आसपास हो गया। अब जो फसल तैयार होने का प्रारंभिक समय अगस्त सितंबर का था, वह आगे बढ़कर सितंबर अक्टूबर पहुंच गया। यह एक ऐसा समय होता है जब उत्तर पश्चिम भारत में बहुत तेज गति के साथ तापमान में कमी आती है और जब तापमान में कमी आती है तो उसका सीधा असर प्रदूषकों के डिस्पर्शन के ऊपर पड़ता है, क्योंकि तापमान जितना कम होगा प्रदूषकों का डिस्पर्सन उतना ही कम होगा। ऐसी स्थिति में जमीन के पास प्रदूषकों का जमाव (एकम्यूलेशन) प्रारंभ हो जाता और जब पछुआ पवन चलती है तो वह प्रदूषक दिल्ली की तरफ बहते हैं और दिल्ली में भी उस समय तापमान बहुत अधिक नहीं होता साथ ही धुएं के कारण अचानक से सूरज की गर्मी कम हो जाती है जिस कारण से प्रदूषकों का वातावरण में डिस्पर्शन होना लगभग असंभव सा हो जाता है तो दिल्ली का सड़क प्रदूषण और पराली जलाने की कारण हुआ धुआं यह दोनों मिलकर दिल्ली में एक दमघोंटू वातावरण का निर्माण करते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में इस समस्या से से निपटने के लिए कई सारे प्रयास किया जा रहे हैं जिसमें एक प्रमुख प्रयास है बायोमास आधारित विद्युत उत्पादक संयंत्र। वैसे पंजाब और हरियाणा में इतनी पराली का उत्पादन होता है कि उससे लगभग 20000 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। तो एक बड़ा बेहतरीन उपाय है जिसके माध्यम से हम न केवल पराली की समस्या से निजात पा सकते हैं बल्कि उसके साथ-साथ लोगों को बिजली भी उपलब्ध करा सकते हैं, लोगों की ऊर्जा की समस्या का समाधान भी इसके माध्यम से हो सकता है साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए पराली को बड़े-बड़े गट्ठरों में बदलकर उन्हें विद्युत गृहों तक पहुंचाया जाता है जहां उसे जलाकर उसे विद्युत पैदा की जाती है। दूसरी चीज जो हम कर सकते हैं वह यह है कि स्थान स्थान पर एंटी फागिंग डिवाइस लगाया जा सकता है साथ ही साथ दिल्ली जैसे शहरों में या रास्ते के अन्य नगरों में हम लोग स्मोक कलेक्टर यंत्र भी लगा सकते हैं। दिल्ली में ऐसे कुछ यंत्र लगाए गए थे जिन्होंने काफी सफलतापूर्वक काम किया था तो अगर थोड़ा सा और प्लानिंग के साथ इस पर काम किया जाए तो उम्मीद है कि भविष्य में इस समस्या का समाधान भी हमें मिल सकता है।

(लेखक पर्यावरण में स्नातकोत्तर हैं, पर्यावरण विषयों के जानकार हैं और प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पर्यावरण पढ़ाते हैं। साथ ही साथ पर्यावरण और स्वास्थ्य को लेकर कई सारे आलेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। स्वस्थ भारत न्यास के संस्थापक ट्रस्टी हैं। शोध पत्रिका सभ्यता संवाद के कार्यकारी संपादक हैं)

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