भारत की स्वतंत्रता केलिये असंख्य बलिदान हुये । इनमें कुछ बलिदानी ऐसे भी हैं जिनकी पीढ़ियों ने राष्ट्र, संस्कृति और स्वत्व केलिये अपना जीवन समर्पित कर दिया । भाई परमानंद ऐसे ही महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं जिनकी हर पीढ़ी ने राष्ट्र रक्षा केलिये जीवन समर्पित किया ।
ऐसे सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी भाई परमानन्द का जन्म 4 नवम्बर 1876को झेलम जिले के करियाला गाँव में हुआ । यह क्षेत्र अब पाकिस्तान मे है । राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा केलिये भाई जी की हर पीढ़ी ने बलिदान दिया है । गुरु तेगबहादुर के साथ अपने प्राणों की आहुति देने वाले भाई मतिदास इन्ही के पूर्वज थे । उनके परिवार की ऐसी कोई पीढ़ी नहीं जिसने इस राष्ट्र के लिये बलिदान न दिया हो । भाई सतिदास, भाई बालमुकुन्द जैसे बलिदानी भी इसी वंशवृक्ष के अंग थे । भाई परमानंद के पिता भाई ताराचंद ने अपनी किशोर वय में 1857 की क्रान्ति के संदेश वाहक के रूप में भूमिका निभाई थी । उस क्रान्ति की असफलता के बाद वे आर्य समाज से जुड़े और भारत के साँस्कृतिक गौरव जागरण में लग गये । राष्ट्र और संस्कृति केलिये समर्पित भाई परमानन्द जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होने अपने लिये दो भूमिकाएँ निश्चित कीं। पहले आर्य समाज और वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक बने, वे एक आदर्श शिक्षक, इतिहास, संस्कृति और साहित्य मनीषी थे । साथ उन्होंने राष्ट्र और सांस्कृतिक जन जागरण केलिये युवकों की टोलियाँ तैयार कीं।
सरदार भगत सिंह, सुखदेव, पं॰ राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, करतार सिंह सराबा जैसे असंख्य राष्ट्रभक्त युवकों के वे उनसे प्रेरणा स्त्रोत थे। आपने हिंदी में भारत का इतिहास लिखा है। इतिहास-लेखन में आप राजाओं, युद्धों और केवल जीवनवृत्त विवरण को ही प्रधानता नहीं देते थे । वे भारत की परंपराओ और सांस्कृतिक गौरव से समाज को अवगत कराना चाहते थे । वे कहते थे कि इतिहास मानवीय भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, संस्कृति गौरव एवं सभ्यता की गुणवत्ता को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। 1902 में भाई परमानन्द ने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गये । भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में आपकी रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने आपको भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के लिए अक्टूबर 1905 में अफ्रीका भेजा । डर्बन में भाईजी की गांधीजी से भेंट हुई। अफ्रीका में भाई जी प्रमुख क्रांतिकारियों सरदार अजीत सिंह, सूफी अंबाप्रसाद आदि के संर्पक में आए। इन क्रांतिकारी नेताओं से संबंध तथा कांतिकारी दल की कारवाही पुलिस की दृष्टि से छिप न सकी। अफ्रीका से भाई परमानन्द जी लन्दन चले गए। वहाँ उन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर क्रान्तिकारी कार्यों में सक्रिय थे। भाई जी इन दोनों के सम्पर्क में आये। और एक संकल्प लेकर 1907 में भारत लौटे । लौटकर दयानन्द वैदिक महाविद्यालय में शिक्षण कार्य के साथ वे युवकों में राष्ट्र और सांस्कृतिक गौरव बोध जगाने के कार्य में जुट गये । इसी बीच सरदार अजीत सिंह तथा लाला लाजपत राय से उनकी निकटता बढ़ी। इससे वे पुलिस की नजर में आ गये ।
1910 में पुलिस ने उन्हे लाहौर से गिरफ्तार कर लिया किन्तु कोई आरोप प्रमाणित न हो सका और वे जमानत पर रिहा हो गये। रिहाई के बाद भाई जी अमरीका चले गये। वहाँ जाकर प्रवासी भारतीयों के बीच वैदिक धर्म के प्रचार अभियान में जुट गये । वहाँ आपकी भेंट प्रख्यात क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुई। उन दिनों वहाँ भारत की स्वाधीनता के लिए अभियान चलाने और संगठन तैयार करने की योजना चल रही थी । लाला हरदयाल ने भाई जी को भी इस दल में सम्मिलित कर लिया । इस दल में करतार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले जैसे कार्यकर्ताओं ने भारत की स्वाधीनता के लिए अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया। भाई जी पुनः 1913 में भारत लौटे और लौटकर लाहौर में युवकों को क्रान्ति केलिये युवकों की टोली तैयार करने में जुट गये ।
उन्होंने इसके लिये देश भर की यात्राएँ कीं तथा यात्रा के बीच ही 1914 में ‘तवारिखे-हिन्द’ नामक ग्रंथ की रचना की जो इतिहास की एक प्रेरणादायी पुस्तक है ।
भारत में क्रांति करने के उद्देश्य से गदर पार्टी का गठन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में युवकों की टोली तैयार हो गई । भाई जी इस पार्टी के अग्रणी नेताओं में थे उन्होने पेशावर में क्रान्ति के नेतृत्व का दायित्व स्वयं लिया । इसकी भनक पुलिस को लगी और भाई जी 25 फरवरी 1915 गिरफ्तार कर लिये गये । उनके विरुद्ध अमरीका तथा इंग्लैण्ड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने, करतार सिंह सराबा तथा अन्य अनेक युवकों को सशस्त्र क्रान्ति के लिए प्रेरित करने, आपत्तिजनक साहित्य की रचना करने जैसे आरोप लगे और फाँसी की सजा सुना दी गई। इसकी प्रतिक्रिया देश भर में हुई। पुनर्विचार याचिका भी लगी और फाँसी की सजा आजीवन कारावास में बदल गई। दिसम्बर, 1915 में अण्डमान जेल भेज दिया गया। जहाँ उन्हे अमानवीय यातनाएँ दीं गई । इधर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भाग्यसुधी ने धनाभाव के बावजूद स्वाभिमान और साहस के साथ अपने परिवार के पालन-पोषण का दायित्व निभाया।
अण्डमान की काल कोठरी में भाई जी ने “मेरे अन्त समय का आश्रय” नामक ग्रन्थ की रचना की। जेल में बंदियों पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों के विरुद्ध भाई जी ने दो महीने का भूख हड़ताल की । गान्धीजी को जब कालापानी में इन अमानवीय यातनाएँ दिए जाने का समाचार मिला तो उन्होंने 19नवम्बर 1919 के “यंग इंडिया” में एक लेख में इन यातनाओं की भर्त्सना की। उन्होंने भाई जी की रिहाई की भी माँग की। प्रथम विश्व युद्ध के संदर्भ में भारतीय जेलों में राजनैतिक बंदी रिहा किये गये भाई जी भी 20 अप्रैल 1920 को कालापानी जेल से मुक्त कर दिये गये ।
अंडमान जेल के पाँच वर्षों में भाई जी ने जो अमानवीय यातनाएँ सहन कीं, उनपर भी उन्होने “मेरी आपबीती” नामक पुस्तक की रचना की उनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े होते हैं। इनका उल्लेख प्रो॰ धर्मवीर द्वारा लिखित पुस्तक “क्रान्तिकारी भाई परमानन्द” ग्रन्थ में है। जेल से मुक्त होकर भाई जी ने पुन: लाहौर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। लाला लाजपतराय भाई जी के अनन्य मित्रों में थे। उन्होंने राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना की तो उसका कार्यभार भाई जी को सौंपा गया। इसी महाविद्यालय में भगतसिंह एवं सुखदेव आदि पढ़ते थे। भाई जी ने उन्हें सशस्त्र क्रान्ति के यज्ञ में आहुतियाँ देने के लिए प्रेरित किया था। भाई जी ने “वीर बन्दा वैरागी” पुस्तक की रचना की, जो पूरे देश में चर्चित रही। इसी बीच असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ । लेकिन इस आन्दोलन के साथ खिलाफत आंदोलन के जुड़ने का भाई जी ने कड़ा विरोध किया। लेख लिखे और सभाएँ भी कीं। भाई जी पर इसकी प्रतिक्रिया इतनी तीब्र हुई कि उन्होने हिन्दू संगठन के महत्व पर बल दिया और “हिन्दू” पत्र का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया । इस पत्र में देश को खण्डित करने के षड्यन्त्रों को उजागर किया। भाई जी ने 1930 में अपने एक लेख में भाई जी ने बाकायदा यह चेतावनी भी दे दी थी कि मुस्लिम नेताओं का उद्देश्य मातृभूमि का विभाजन कर नये देश का निर्माण करना है । बाद में भाई जी हिंदू महासभा में सम्मिलित हो गए। 1933 में हिंदू महासभा के अजमेर अधिवेशन में भाई जी अध्यक्ष चुने गए। अंततः भाई जी की आशंका समय के साथ सही साबित हुई और भारत का विभाजन हो गया । यह वेदना उनके हृदय में इतनी गहरी हुई कि वे बीमार पड़ गये तथा 8 दिसम्बर 1947 को उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। मध्यप्रदेश में राज्यपाल रहे डॉ॰ भाई महावीर इन्ही के चिरंजीव थे वे भी जीवनभर अपने पिताश्री के पदचिन्हों पर चलकर राष्ट्र और संस्कृति के लिये समर्पित रहे। भाई जी की स्मृति को बनाये रखने के लिये दिल्ली में एक व्यापार अध्ययन संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किया गया है। तथा 1979 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।