इसे हिन्दी की दुर्दशा लिखूं या अधिकारों का अतिक्रमण

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मामला केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के दिल्ली केन्द्र से जुड़ा हुआ बताया जाता है। संस्थान के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक प्रमोद शर्मा का नाम अब दिल्ली केन्द्र की वेबसाइट से हटाया जा चुका है। वहां नई क्षेत्रीय निदेशक डॉ. अपर्णा सारस्वत का नाम आ गया है लेकिन केन्द्र की पत्रिका ‘संवाद पथ’ के वाट्सएप समूह से अपना नाम हटाने को वे तैयार नहीं। इस संबंध में प्रमोद शर्मा ने बताया कि यह व्यक्तिगत तौर पर उनकी मेहनत से संपर्क जुटाकर बनाया गया समूह है। वे बताते हैं कि ”यह मेरी मेहनत है, इसलिए लगाव है।” कुल मिलकार वे हटने को तैयार नहीं।

एक व्यक्ति जो अपने संस्थान में अधिकारी रहते हुए अनुशासन का पाबंद था। किसी बात की परवाह नहीं करता था। वही व्यक्ति सेवानिवृत होते ही कैसे छोटे-मोटे स्वार्थ और मोह से घिर जाता है, उसका एक उदाहरण आज मैने देखा। दुख होता ऐसे लोगों के संबंध में जानकर।

हिन्दी से जुड़े एक संस्थान के क्षेत्रीय निदेशक ने वहां रहते हुए एक वाट्सएप समूह संस्थान की एक पत्रिका के नाम से बनाया। उसमें जिन्हें जोड़ा निश्चित तौर पर वे उनके कालेज स्कूल के मित्र नहीं थे। नब्बे फीसदी तो उनसे संस्थान में अधिकारी होने के नाते ही मिले होंगे। उन्हें जानते होंगे। जिनमें एक इन पंक्तियों का लेखक भी है।

मामला वाट्सएप समूह से जुड़ा है। कथित अनुशासित अधिकारी ने जो समूह बनाया था, उसका एडमिन बने रहने का मोह उनका छूट नहीं रहा। उन्होंने संस्थान की पत्रिका के नाम से समूह बनाया। निदेशक होने के नाते वे खुद एडमिन रहे। अब वे सेवानिवृत हुए तो पत्रिका को लेकर चलने वाले समूह का एडमिन नए क्षेत्रीय निदेशक को होना चाहिए।

यहां उल्लेखनीय है सेवानिवृत होने के बाद, उसने संस्थान की नई क्षेत्रीय निदेशक को भी नए समूह में एडमिन बना लिया है। इसलिए मामला सिर्फ समूह से उनके मोह भर का नहीं लग रहा है। यदि समूह को सिर्फ एडमिन बनकर बचाना चाहते तो समूह का नाम बदल कर बचा लेते और अकेले एडमिन बने रहते।
वे समूह को संस्थान से जोड़कर भी रखना चाहते हैं और समूह का एडमिन भी बने रहना चाहते हैं।

अब नए निदेशक को एडमिन बनाकर उनके खुद एडमिन बने रहने की बात समझ आ रही है।

*जो व्यक्ति क्षेत्रीय निदेशक रहते हुए अनुशासन की इतनी बातें करता था। सेवानिवृत होते ही इतना अनैतिक कैसे हो सकता है?*

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