नदी सिंदूरी, शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड बहुल गाँव की कहानी है, जिसके अंदर कई सारी कहानियाँ हैं

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शिरीष खरे

‘नदी सिंदूरी’ शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड बहुल गाँव की कहानी है, जिसके अंदर कई सारी कहानियाँ हैं। सिंदूरी मध्य-भारत की बड़ी नदी नर्मदा की सहायक नदी है, जिसके किनारे मदनपुर नाम का एक छोटा-सा गाँव बसा है। शहर भोपाल से करीब 200 किलोमीटर दूर मदनपुर सन् 1842 और 1857 के गोंड राजा ढेलन शाह के विद्रोह के कारण इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन, ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी अब दर्ज हुई है। ये संस्मरण, ये कथाएँ सिंदूरी के बीच फेंके गए पत्थर के कारण नदी के शांत जल की तरंगों जैसी हैं।

भोगवाद के शहरी नजरिए के चलते छोटी नदियों के किनारे की गाँव-संस्कृति उजाड़ दी गई है तब यह कहानी उस देहाती दुनिया में ले जाती है जहाँ नदी को देख रोया, गाया या हँसा जा सकता है, जहाँ नदी सिर्फ संसाधन नहीं है, न सिर्फ गाँव का भूगोल तय करती है, बल्कि एक समुदाय रचती है, जिसमें लोकरीति, लोकनीति, किस्से और कहावतों का ताना-बाना है, जो अब तार-तार हो रहा है। दरअसल, उदारीकरण के बाद गाँवों ने बड़े पैमाने पर पलायन का दंश झेला है और कई गाँवों की शक्ल बदल चुकी है तब बचपन से किशोरावस्था की एक स्मृति-यात्रा उस दौर से गुजरती है।

इस यात्रा में कल्लो नाम की एक गाय से जुड़ा मर्मस्पर्शी संस्मरण है तो आल्हा, राई, बंबुलिया जैसे लोक-गीत और रामलीला का स्थानीय संस्करण भी हैं। रामलीला के इसी स्थानीय संस्करण से एक ऐसी आह निकलती है जिसमें समान लिंग के प्रति आकर्षण, प्रेम और प्रेम-विरोधी मान्यताओं के प्रति विद्रोह है। नदी सिंदूरी में लोक-कलाकार, नर्तकी, चोर, ठग, साधु हैं, प्रगतिशील पुजारी, आदर्शवादी मास्साब, दलित विद्रोही युवक है, उजड्ड बस कंडक्टर, सैलून वाला, टेलर, सामंती, दलित महिला बस की मालकिन, पिछड़े वर्ग का नेता, नदी की बाढ़ में बहा गोताखोर और उसकी पत्नी और दर्जनों पात्र हैं, राजनीति, कस्बे आने-जाने वाली बसों के किस्से, कस्बाई आकर्षण है, कस्बाई दबंगई का विरोध और जातीय विरोधाभास भी है।

गाँव की महिलाएँ और कस्बे की एक लड़की है, चोरी-छिपे और सतह तक आईं गाँव की प्रेम-कहानियाँ हैं, साथ ही कस्बाई लड़की के लिए प्रेम से जुड़ी एक स्मृति है। कुल मिलाकर, सभी कहानियों में लड़ाइयों के समानांतर प्रेम एक स्थायी तत्व है, प्रेम नाम का यही स्थायी तत्व आखिर में सारी कहानियों को मिलाता है।
मदनपुर गाँव काफी हद तक उत्तर-मध्य हिन्दी-पट्टी के कई दूसरे भारतीय गाँवों की तरह है, लेकिन कहीं-कहीं उनसे भिन्न भी। एक हजार की आबादी का इतना छोटा गाँव जहाँ की दुनिया मशीनों से दूर ऐसी तासीर लिए हुए है, जिसमें जीवंतता और विविधता है। विद्रूपता और मानवीयता दोनों हैं। जातीय ताने-बाने में जर्जर हो रही पारंपरिक जड़ता है तो कुछ ऐसी ध्वनियाँ भी हैं जो लोगों को आपस में एक-दूसरे से बाँधती हैं।

अक्सर इतिहास और साहित्य में बड़ी नदियों और उन नदियों के तट पर विकसित नगरीय सभ्यता पर तो खूब चर्चा करते हैं, पर कहीं-न-कहीं किसी छोटी नदी और उसकी गोद में किसी गाँव की संस्कृति हाशिये पर ही छूट जाती है। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ की गोद में आकार लेती मदनपुर जैसे एक गाँव की उपस्थिति परिधि में है।

भारत में गाँवों का दायरा बहुत व्यापक और विविधता लिए हुए है। सारे गाँव समान होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए जब मैं साहित्य में ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़ा कुछ पढ़ता था तो यह लगता था कि एक गाँव का पूरा अंचल छूटा हुआ है। जब कभी मौका मिलेगा तो इस अंचल को साहित्य में जरूर दर्ज कराना चाहूँगा। इसी सोच से ये तेरह कहानियाँ निकली हैं।

‘राजपाल एंड संज़’ से प्रकाशित इस किताब की ये कहानियाँ वर्ष 1993-94 से शुरु होती हैं, जब गाँव के महज दो-एक मकानों में ही हिन्दी के अखबार आते थे, दोपहर बारह की भोपाल से आने वाली प्राइवेट खटारा बस से, जबकि इन कहानियों को लिखा गया है वर्ष 2022 में यानी व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया के दौर में।

नब्बे के दशक में राजीव गांधी की हत्या, पिछड़ा वर्ग से जुड़े मुद्दों और गठबंधन की राजनीति के उदय से लेकर अयोध्या में विवादित ढांचे का विध्वंस तथा साम्प्रदायिक दंगे हुए। इसी दशक में नवीन आर्थिक नीतियों के जरिए उदारीकरण को बढ़ावा दिया गया। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ अतीत से संवाद करके उसके छूटे सिरे पर खुद को जोड़ती है, जिस पर एक नया बाजार आकार ले चुका है और विकास ने कई छोटी नदियों को मार डाला है।

इन कहानियों को लिखने का विचार कोरोना महामारी के पहले लॉकडाउन के दौरान आया, जब लाखों की संख्या में उत्तर भारतीय प्रवासी मजदूर मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों से पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े थे। घर वापसी की पीड़ादायक यात्राओं से जुड़ी मार्मिक तस्वीरों ने हर संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। कई किसी तरह गाँव की सीमा तक पहुँचे भी थे तो उन्हें अछूत जान कर बाहर रोके रखा गया। कई तो रेल की पटरियों पर ही कट कर मर गए थे।

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