ऋतेश मिश्र/ रायपुर
पत्रकारिता का नया दौर इंटरव्यू और पॉडकास्टर युग को माना जाय। यहां सोफे और मेकप आर्टिस्टों की उपयोगिता बढ़ गई है। इसमें सिर्फ गंभीर भाव में लच्छेदार लफ्फाजी है।
हर पत्रकार कोई इंटरव्यू लेना चाहता और हर आदमी चाहे वो पर्याप्त जाहिल क्यों न हो , इंटरव्यू देना है। हर जगह भरा पड़ा है इंटरव्यू वाला कंटेंट।
इस बीच टीवी एंकर्स बेचारे लाचार होते गए हैं। क्या करें। उनका जमाना ढलान पर है। अब उनका हाथ हिला हिला कर..चीखना चिल्लाना, थ्री पीस में नहर के पानी की तरह धारा प्रवाह बोलना दर्शकों को जमता नहीं है। लोग उबिया गए हैं।दर्शक मान चुके हैं कि टीवी उन्हें कुछ नया नहीं दे सकती। टीवी डब्बा बन चुका है। चावल, दाल, चीनी, नमक के डब्बे नुमा डब्बा, टीवी का डब्बा।
तो इसलिए अब पत्रकारिता के चौराहे पर इन्टरव्यू और पॉडकास्टिंग का नया नया उपक्रम शुरू हुआ है।
आप पूछेंगे कि इन्टरव्यू तो पहले भी हुआ करता था, हां होता था, पर पहले हुए साक्षात्कारों का कथ्य, विषय, और प्रारूप बेहद गंभीर विमर्श लिए होते थे। आज इंस्टाग्राम के रील्स से लोहा लेने के लिए इंटरव्यू किए जाते हैं। रील्स से लोहा मसलन गुड़ से खांड़ बन चुकी चाशनी की तरह वायरल होने की लसलसाहट से युक्त..।
लेकिन आपको नहीं मुझे तरस आता है उस पत्रकार पे और समूची पत्रकारिता पे। लेकिन मेरे तरस आने से कुछ होता नहीं है ।
तो साथियों अब के सेलिब्रिटी पत्रकार एंकरिंग के थ्री पीस सूट पर पड़ी धूल झाड़ सोफे पर आ बैठे हैं। उन्हें अपनी क्षमता का सार इंटरव्यू में ही अभिव्यक्त करना है। कोशिश करनी है कि स्क्रीनटाइम का औसत कायम रहे। सवालों जवाबों के क्लिप्स रील्स में परिवर्तित हो पाएं।
एक जमाना था जब पत्रकारिता जमीन पर जाकर कुछ नया खोजती थी, धरातल पर उसकी पकड़ सबसे अधिक थी। जमीन से ही भेद खुलते थे। नई परिघटनाओं का अन्वेषण होता था। वह जमाना ग्राउंड रिपोर्टरों का था। संस्थान में उनकी एक विशिष्ट जगह थी। महीनों खबरों के पीछे रहना, पड़ताल में जगह जगह भंछना, मोटर साइकिल, कार, बस, रेल, ट्रक जरूरत पर जो मिले बैठे, पहुंच गए। महीनों बाद उन्हें जो हासिल होता उससे राज्य की सरकारें हिल जाती थीं। नीतिगत निर्णय बदल जाते थे। ऐसे रिपोर्टर अब नहीं मिलते हैं। अंग्रेजी के कुछ अखबार थोड़ा बहुत प्रामाणिक देने की कोशिश भर करते हैं पर अब उनकी भी सीमा बांध दी गई है।तो अब हम सबने ये मान लिया है कि पत्रकारिता का ये काल महज इंटरव्यू करना, देखना रह गया है।
दरअसल सरकारें , चाहे जिस भी पार्टी की हों, यही चाहती है। सरकार पत्रकारों को सेलिब्रिटी बनते देखना चाहती है।लाखों फॉलोअर्स, असंख्य व्यूज। बस खबर नहीं आनी चाहिए। सरकार चाहती है खबरों के संस्थान रियल्टी शोज को हर शाम होस्ट करते रहें। लोग अपने घरों में पिनट्स खाते हुए बड़े चाव से देखें।
इस तरह खबरों, घटनाओं की पड़ताल करने वाली विधा क्यूरेटेड साक्षात्कार युग में धीरे धीरे शिफ्ट होती गई।
जैसे हिंदी साहित्य के बड़े आलोचकों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह जैसे नाम मिल जायेंगे। वैसे ही पत्रकारों को भी राज्य का आलोचक होना था। राज्य की एक एक नीति एक एक कदम की परख करने वाला पत्रकार आलोचक।इसीलिए मेरा मानना है कि पत्रकारों को हिंदी आलोचना से भी बहुत कुछ सीखना चाहिए। मैंने कई कवियों को भड़कते देखा है आलोचकों पर। रचनाओं के झूठ, कविताओं के पाखंड जब खुलते हैं तो आलोचकों को कविजन गाली देते हैं।
एक कायदे का पत्रकार अगर कायदे से भेद खोलने लगे तो सरकारी मुलाजिम से लेकर मंत्री मनसबदारों तक रोज भड़कते रहेंगे। और उनका भड़कना ही पत्रकारों का असली पुरस्कार होगा।
ख़ैर,
क्या किया जा सकता है।
जमाना नया है
सोफे पर बैठिए
चलिए इन्टरव्यू देखते हैं।
अश्लील है, सब पर हमारा किया धरा है ।