श्रीराम वन गए तो बन गए..

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आचार्य दीप चंद भारद्वाज

कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ त्यागना भी अनिवार्य माना गया है। हमारे शरीर को ही ले लीजिए श्वास लेने के लिए पहले श्वास छोड़नी पड़ती है, तभी इस शरीर की आंतरिक संरचना में नवीनता तथा सक्रियता का संचार होता है। त्याग हमें सांसारिक मोह से अलग करने के साथ हमारे आध्यात्मिक व्यक्तित्व को परिपक्वता प्रदान करता है।

इस संसार की जितनी भी भौतिक संपदा, वस्तुएं एवं पदार्थ हैं वे सभी मनुष्य जीवन को सम्यक प्रकार से निर्वाह करने के लिए ही बने हैं। इस दृश्य संसार की प्रत्येक वस्तु भोग और अपवर्ग की प्राप्ति के लिए बनी है, इसीलिए मनुष्य को सभी सांसारिक भौतिक पदार्थों का त्याग की दृष्टि से उपभोग करना चाहिए। नश्वर भौतिक संपदा का निरंतर संग्रह करने की प्रवृत्ति मनुष्य को लोभ और तृष्णा के बंधन में बांध देती है। जो भी पदार्थ मनुष्य को इस संसार में प्रयोग करने के लिए मिले हैं उनका अंत भी अवश्य होना है। अर्थात एक न एक दिन उन सभी पदार्थों से हमें अवश्य अलग होना है। त्याग से मनुष्य को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। *श्रीराम जब महल में थे तो राजा राम कहलाए और जब उन्होंने महल त्यागा तो पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम कहलाए। सिद्धार्थ गौतम ने जब त्याग के आदर्श को अपनाया तो गौतम बुद्ध के रूप में प्रतिष्ठित हुए।*

त्याग के बिना शाश्वत सुख एवं शांति की कल्पना नहीं की जा सकती। त्याग जीवन का एक अनिवार्य नियम है। त्याग के बिना आनंद का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। भौतिक सांसारिक पदार्थों के बंधन में बंधे रहना जीवन में दुखों का मूल कारण है। आनंद की अनुभूति के लिए त्याग के आदर्श को अपनाना पड़ता है। केवल मात्र भौतिक संपदाओं का संग्रह करने की प्रवृत्ति मनुष्य को आंतरिक रूप से भीरू बना देती है। इन नश्वर संपदाओं का संग्रह एक न एक दिन नंष्ट अवश्य होगा। जीवन में त्याग के आदर्श का अनुसरण मनुष्य को आंतरिक संतुष्टि एवं आनंद प्रदान करता है।

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