अस्थिरता, अनिश्चय और यथास्थिति बनाए रखने की प्रवृत्ति संभवतः प्रत्येक कालखंड की प्रवृत्ति है। 15वीं और 16वीं शताब्दी भी इससे अलग नहीं थी। भारत पर इस्लामी हमले हालांकि आठवीं सदी से ही शुरु हो चुके थे लेकिन दिल्ली में लोधी सल्तनत को हराकर मुगल राज की शुरुआत के साथ इस्लामी सत्ता अब अपने उरूज़ पर थी। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य का अंत हो चुका था और छिटपुट हिंदू रियासतें ही शेष थी। राजनीतिक दुर्दशा का असर हिंदू धर्म की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा। हिंदू समाज एक तरफ अंतर्मुखी बन गया, वहीं दूसरी तरफ कट्टर मजहबी सत्ता के संरक्षण में छल-बल और जातीय विभाजन का फायदा लेकर बड़े स्तर पर धर्मांतरण जारी था। पूरे देश की तरह बंगाल में भी ऐसे ही हालात थे। इसी कालखंड में बंगाल के नवद्वीप स्थान (वर्तमान में नादिया) पर चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ। महाप्रभु का बचपन का नाम निमाई था और वह अपने माता-पिता की दसवीं संतान थे। उनके जन्म से पहले उनके माता-पिता की आठ संतानें जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त हो गईं और वह जीवित दो संतानों में छोटे थे। निमाई के बड़े भाई के घर से विरक्त होने के बाद माता-पिता उन्हें संन्यास मार्ग से दूर रखना चाहते थे हालांकि ईश्वर इच्छा तो कुछ और ही थी।
चैतन्य महाप्रभु ने जिस कालखंड के दौरान बंगाल में भक्ति मार्ग को मजबूती दी तब वहां हिंदू धर्म में जड़ता और पाखंड व्याप्त थे। हिंदू चाहे छल से भी मुसलमान बन जाए, उसके बाद घर वापसी का कोई साधन नहीं था। हालात ऐसे थे कि गौड़ के शासक सुबुद्धि राय को उनके पुराने कर्मचारी ने षड्यंत्र रच कर जबरदस्ती किसी मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन खिलाया तो इसके बाद कोई भी धर्माचार्य उसे वापस हिंदू धर्म में लेने के लिए तैयार नहीं था। यह चैतन्य प्रभु की तीक्ष्ण बुद्धि का तर्क था कि भगवान स्मरण से जब पूर्वजन्म के पापों का प्रायश्चित हो जाता है तो इस जन्म की गलतियों का प्रायश्चित कैसे नहीं होगा। उन्होंने ‘कृष्ण महामंत्र’ देकर कालांतर में सुबुद्धि राय का उद्धार किया।
चैतन्य की भक्ति ज्ञान की उपेक्षा पर नहीं बल्कि ज्ञान की नींव पर खड़ी है। उनकी विद्वता और ज्ञान के प्रति लगन के कई उदाहरण मिलते हैं। वह निरंतर सीखने के प्रति उन्मुख रहते और अलग-अलग विषयों पर शास्त्रार्थ करते। ज्ञान भंडार होने के बावजूद उनमें ख्याति की लिप्सा और ज्ञान का अभिमान नहीं थे। महाप्रभु के मित्र एक बार उनकी न्याय विषय पर किताब देखकर रोने लगे। निमाई ने हैरान होकर रोने का कारण पूछा। मित्र ने बताया कि निमाई की किताब के बाद उसकी किताब को कोई महत्व नहीं देगा। उन्होंने तुरंत किताब गंगा में फेंक दी।
वर्ष 1509 में निमाई पिता का श्राद्ध करने गया गए। वहां ईश्वरपुरी नामक संत ने उन्हें कृष्ण भजन की प्रेरणा दी। इसके बाद निमाई का जीवन बदल गया। अब वह प्रतिदिन भजन-कीर्तन करते और कृष्ण लीलाओं का वर्णन करते। नवद्वीप में वैष्णव भक्ति की नई लहर आ गई। उनके साथ भक्तों का समूह जुटने लगा। जात-पात के भेद त्यागकर उनके कीर्तन में सभी वर्गों के लोग शामिल होते। चैतन्य की भक्ति संसार से अलग-थलग होने या पलायन प्रवृत्ति की नहीं थी। वह एक तरफ तत्कालीन मजहब प्रेरित तानाशाही के विरुद्ध डटकर खड़े हुए, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने समाज के वंचित वर्ग के लिए मुख्य धारा में आने का मार्ग प्रशस्त किया। बंगाल के उस इलाके में उन दिनों मुसलमान बादशाह का राज्य था। एक बार काजी की स्थानीय अदालत ने हुक्म दिया कि इलाके में कहीं भी कीर्तन नहीं होगा। दरअसल किसी ने यह शिकायत की थी कि महाप्रभु मुसलमानों को कृष्ण भक्त बना रहे हैं।
चैतन्य इस हुक्म से खामोश नहीं हुए। उन्होंने पूरे शहर और बाजार से होकर काजी के घर तक कीर्तन किया। इस दृढ़ता के आगे काजी को झुकना पड़ा और महाप्रभु को बेरोकटोक कीर्तन की अनुमति मिली। उनकी भक्ति में एक तरफ क्रांति के अंगारे थे तो साथ ही प्रेम की मधुर गरमाहट भी थी। 24 वर्ष की उम्र में वह स्वामी केशव भारती के शिष्य बन गए। इसके बाद उन्हें कृष्ण चैतन्य देव नाम मिला। उनकी सर्वस्पर्शी भक्ति की अनवरत यात्रा जारी रही। चैतन्य ने डाकुओं-चोरों को भी अपराध छोड़कर प्रभु भक्ति की तरफ अग्रसर किया। एक बार वह अकेले ही चेरानंदी वन में जा रहे थे। वहां कुख्यात डाकू नौरोजी रहता था। उसका चारों तरफ आतंक था और लोगों ने उन्हें वन में से जाने के लिए मना किया लेकिन हरि इच्छा पर अडिग विश्वास रखने वाले चैतन्य आगे बढ़े। अंततः पारस का स्पर्श पाकर लोहा स्वर्ण बन गया और नौरोजी संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा।
फिर बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को भक्ति-प्रचार का भार सौंपकर वह कटक पहुंचे और 12 वर्ष तक जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। उन्होंने संगीत की मोहक ताकत से कृष्ण प्रेम को जन-जन तक पहुंचाया। यह चैतन्य की भक्ति का सुफल है कि हिंदू धर्म अनुष्ठानों, शास्त्रार्थ और व्यक्तिगत ज्ञानार्जन तक ही सीमित नहीं रहकर जन-जन को आंदोलित करने वाला प्रवाह बना। वह कहते थे कि आम लोगों के लिए भक्ति बेहद सहज है। इससे ईश्वर का स्मरण कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है। इस तरह अपने दिन-प्रतिदिन के काम करते हुए भी लोग परम परमेश्वर से जुड़ सकते हैं।
चैतन्य महाप्रभु की सामाजिक दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके लिए हेय या तिरस्कृत कुछ भी नहीं था। पूरे भारत की तरह तत्कालीन बंगाल में भी विधवाओं की दशा दयनीय थी। उन्हें अपमान और सामाजिक तिरस्कार का दंश झेलना पड़ता। उन्होंने इन हतभागी नारियों को प्रभु-भक्ति से जोड़ा। उनका स्पष्ट मत था कि कृष्ण की भक्ति और हरिनाम के आश्रय पर सभी का अधिकार है। उनके प्रभाव से बंगाल की विधवा नारियों की वृंदावन आने की परंपरा शुरू हुई। इससे ज्यादातर अनपढ़ और आर्थिक रूप से विपन्न इन महिलाओं के जीवन को नया अर्थ मिला। 1515 में वह वृंदावन आ गए और अपना शेष जीवन उन्होंने यहीं बिताया। उन्होंने विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग यहीं व्यतीत किया।
आज महाप्रभु की प्रेरणा से कृष्ण भक्ति का पूरे विश्व में प्रचार है। इस्कॉन जैसी संस्थाएं “हरे कृष्ण, हरे राम” के मंत्र को भारत से बाहर भी लोकप्रिय बना रही हैं। इन सब के बीच चैतन्य की असली विरासत और प्रेरणा यह है कि उन्होंने भगवान को सर्वस्पर्शी और सर्वसुलभ बनाया। उनके प्रभाव से भक्ति कोई वितंडा खड़ा किए बिना सामाजिक सुधार और हिंदू धर्म के पुनर्जागरण का साधन बनी। उन्होंने इस सिद्धांत को भी प्रतिपादित किया कि किसी भी कारण से हिंदू धर्म छोड़ने वाले व्यक्ति के लिए घर वापसी के रास्ते बंद नहीं होते बल्कि अन्य मजहबों-पंथों से जुड़े लोग भी ईश्वर स्मरण मात्र से हिंदू धर्म के प्रवाह में शामिल हो सकते हैं।