साधु-संतों पर हो रहा प्रत्येक हमला समाज पर हमला है

083_1587434890.jpg

भारत एक धर्म प्रधान देश है। आस्था एवं श्रद्धा इस देश की प्राणशक्ति है। जड़ से लेकर चेतन तक हमारी आस्था एवं श्रद्धा का विस्तार है। जागरण से लेकर शयन तक की अपनी दिनचर्या का यदि हम सूक्ष्मता से निरीक्षण करें तो पाएँगें कि हमारे सभी कार्यों के पीछे आस्था और श्रद्धा एक प्रेरक-शक्ति के रूप में न्यूनाधिक अनुपात में सदा उपस्थित रहती है। हमने गाँव-घर, खेत-खलिहान, नदी-तट, जंगल-पर्वत, धरती-आकाश, सूरज-चाँद सबमें अपनी श्रद्धा-भावना को प्रतिष्ठापित किया। घटाटोप अँधेरों भरे दौर में भी लोक की आस्था और श्रद्धा का यह अंतर्दीप सदा जलता रहा है और समाज एवं मनुष्यता का पथ आलोकित करता रहा है।श्रद्धा-आस्था-विश्वास की यह थाती दुनिया को भारत की अनूठी देन है। यह लोक के संचित अनुभवों का सार है। सहस्त्राब्दियों से इसके बल पर हम समय के शिलालेख पर अपनी अमिट छाप छोड़ते आए हैं और तमाम झंझावातों एवं तूफानों के बीच भी अपने सांस्कृतिक सूर्य को डूबने से बचाते रहे हैं। इस सांस्कृतिक सूर्य का दैदीप्यमान प्रतीक है भगवा। स्वाभाविक है कि इसे धारण करने वाला संत-समाज हमारी आस्था एवं श्रद्धा का उच्चतम केंद्रबिंदु है।

सांसारिक माया-मोह एवं भौतिक आकर्षणों से मुक्त सेवा, संयम, त्याग एवं वैराग्य के पथ का अनुसरण करने वाले साधु-संत भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही मान्य एवं पूज्य रहे हैं। ऋषियों-संन्यासियों की आज्ञा पाकर यहाँ की राजसत्ता महलों और राजमार्गों का परित्याग कर धूलि भरी पगडंडियों-बीहड़ों-वनों का अनुसरण करती रही है। भारत की राजसत्ता ने भोगयुक्त वैभव एवं ऐश्वर्य में नहीं बल्कि त्याग, तपस्या और वैराग्य में जीवन का सुख और सत्य पाया है और उसे दुःखी मानव के त्राण के लिए मुक्त हस्त से सारे संसार में बाँटा और लुटाया है। वशिष्ठ-बाल्मीकि-विश्वामित्र से लेकर बुद्ध-महावीर-शंकराचार्य और आधुनिक काल में भी स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, महर्षि अरविंद तक- सबने अपने-अपने ढ़ंग से भारत की ऋषि-परंपरा को आगे बढ़ाया एवं उसे नई ऊँचाई प्रदान की। वह भारत की ऋषि एवं संत परंपरा ही है जिसने सनातन की सांस्कृतिक धारा को अवरुद्ध होने से बचाया। काल के प्रवाह में आए दूषण को प्रक्षालित कर उसे शुद्ध-सतत पुण्यसलिला के रूप में ग्राह्य, गतिशील एवं समयानुकूल बनाया। आज भी तमाम साधु-संत अपने-अपने ढ़ंग से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धारा को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं। शिक्षा-सेवा-चिकित्सा के तमाम प्रकल्पों का सफल संचालन कर रहे हैं। भारत को भारत बनाए रखने में इन साधु-संतों का अप्रतिम योगदान है। जिसे हम भारतीय संस्कृति कहकर दुनिया भर में प्रचारित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं वह इन्हीं संतों-तपस्वियों-मनीषियों के द्वारा रची-गढ़ी गई है।

दुःख और आश्चर्य है कि आज उसी भारतवर्ष में भगवाधारी संतों पर प्राणघातक हमले हो रहे हैं। पालघर से लेकर करौली तक, चंडीगढ़ से लेकर नांदेड़ तक, मुरादाबाद से मुर्शिदाबाद तक साधु-संतों पर हुए हमले न केवल पुलिस-प्रशासन के लिए बल्कि एक समाज के रूप में हमारे लिए भी चिंता एवं सरोकार का विषय होना चाहिए। मनुष्यता का इससे क्रूर एवं वीभत्स चित्र (कदाचित कारुणिक भी) शायद ही कभी किसी के दृष्टिपटल पर उभरा हो कि एक निरीह-निर्दोष-निहत्था-बूढ़ा संत हिंसक भीड़ से अपने प्राणों की रक्षा के लिए यहाँ-वहाँ करुण गुहार लगाता रहा और पुलिस अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के स्थान पर – मात्र मूक दर्शक बनी रही। पुलिस-प्रशासन की कर्त्तव्यहीनता का संभवतः यह सबसे काला अध्याय हो। पालघर के उन संतों की चिता की आग अभी ठीक से ठंडी भी न होने पाई थी कि अब राजस्थान के करौली में एक पुजारी को ज़िंदा जलाकर मार डाला गया। क्या ऐसी घटनाओं को देखकर समाज और व्यवस्था के कलेजे में हूक नहीं उठनी चाहिए? क्या ये घटनाएँ व्यवस्था को विचलित कर देने वाली नहीं हैं? ऐसे प्रसंगों एवं घटनाओं में सर्व साधारण का मौन भी अखरने वाला है। किसी भी सभ्य एवं संवेदनशील समाज में बूढ़ों-अशक्तों-सुपात्रों-सज्जनों के प्रति सर्वाधिक संवेदनशीलता पाई जाती है।

साधु-संतों पर होने वाले हमलों के संदर्भ में व्यवस्था एवं समाज के बड़े हिस्सों की चुप्पी सूक्ष्म एवं विस्तृत पड़ताल की माँग करती है। विगत कई दशकों से कला, साहित्य, सिनेमा जैसे माध्यमों द्वारा साधु-संतों की नकारात्मक छवि लगातार प्रस्तुत की जाती रही। उन्हें आलसी और निकम्मा बताया जाता रहा। भोग और भोजन के स्वाद में आकंठ डूबे तोंदिल मठाधीशों की उनकी ऐसी छवि बनाई गई है, जो लोक-परलोक, भाव-भक्ति से अधिक सत्ता-सुरा-सुंदरी-संपत्ति की चिंता में अधिक सतर्क और सन्नद्ध प्रतीत होती है। सिनेमा के माध्यम से मधुवेष्टित तरीकों द्वारा शनैः-शनैः नौजवान पीढ़ियों की नसों में साधु-संतों की यह छवि उतार दी गई है। सनातन के ये प्रहरी सिनेमा की दृष्टि में लोलुपता और कामुकता के पर्याय रहे हैं और कुछ हद तक वे किशोर एवं युवा पीढ़ी को भी ऐसा ही समझाने में सफल रहे। आईआईएम अहमदाबाद के एक प्राध्यापक द्वारा किए गए शोध के अनुसार विगत छह दशकों से सिनेमा ने बड़ी आयोजनापूर्वक सनातन के इन पहरुओं की छवि धूमिल की, उनका उपहास उड़ाया या उनकी मान्यताओं का अवमूल्यन किया। एकपक्षीय तरीकों से जहाँ वे अन्य संप्रदायों के धर्मगुरुओं को शांति एवं मानवता का संदेशवाहक बताते रहे, वहीं इन साधु-संतों को कुचक्रों-षड्यंत्रों का प्रणेता सिद्ध करने में कोई कोर-कसर शेष नहीं रखा। दरअसल इनके बहाने उनका मुख्य हमला सनातन पर हुआ। और कोढ़ में खाज का काम आधुनिक शिक्षा के नाम पर हुए पश्चिमीकरण ने किया। हमारा दुर्भाग्य है कि पश्चिमीकरण को ही हमने शिक्षा एवं आधुनिकता का पर्याय मान लिया। परिणाम यह हुआ कि नई पीढ़ी हमारी आस्था एवं श्रद्धा के सबसे मूर्त्तिमान स्वरूप यानी इन साधु-संतों एवं उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अवदान को समझ पाने में लगभग विफल रही। उनमें से अधिकांश या तो इन्हें कर्मपथ और जीवन से भागे हुए पलायनवादी व्यक्ति मानते हैं या ढ़ोंगी-चमत्कारी-अंधविश्वास। विदेशी जड़ों से जुड़े सत्ता प्रतिष्ठानों ने बड़ी कुटिलता से उनकी इस सोच को पाला-पोसा, खाद-पानी देकर बड़ा किया। आज बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं, जो वामपंथी-विदेशी नैरेटिव के शिकार होकर इन साधु-संतों, मठों-देवालयों को निरर्थक मानते हुए इन्हें उपेक्षा एवं तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं।

साधु-संतों के प्रति उपेक्षा, घृणा एवं तिरस्कार को पालने-पोसने में स्वतंत्रता-पूर्व से लगातार चलाए जा रहे मतांतरण-अभियान की भी विशेष भूमिका रही है। भोले-भाले, साधनरहित गरीबों-वंचितों-वनवासियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर, शिक्षा-चिकित्सा की आड़ लेकर हिंदू धर्म से परकीय संप्रदायों में मतांतरित किया जाता है। इस मतांतरण के लिए ईसाई-इस्लामिक मान्यता वाले देशों एवं वैश्विक स्तर की अब्राहमिक-मसीही संस्थाओं द्वारा पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। नव मतांतरित व्यक्तियों-समूहों के समक्ष अपने नए संप्रदाय के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने का अतिरिक्त दबाव बना रहता है। हिंदू संस्थाओं या साधु-संतों पर किया गया हमला उन्हें वहाँ न केवल स्थापित करता है, अपितु नायक जैसी हैसियत प्रदान करता है। इन मासूम और भोले-भाले वंचितों-वनवासियों-गरीबों के बीच मतांतरण को बढ़ावा देने वाली शक्तियाँ इस प्रकार के साहित्य वितरित करती हैं, इस प्रकार के विमर्श चलाती हैं कि धीरे-धीरे उनमें अपने ही पुरखे, अपनी ही परंपराओं, अपने ही जीवन-मूल्यों, अपने ही विश्वासों के प्रति घृणा की भावना परिपुष्ट होती चली जाती हैं। उन्हें पारंपरिक प्रतीकों, पारंपरिक पहचानों, यहाँ तक कि अपने अस्तित्व तक से घृणा हो जाती है। उन्हें यह यक़ीन दिलाया जाता है कि उनकी वर्तमान दुरावस्था और उनके जीवन की सभी समस्याओं के लिए उनकी आस्था, उनकी परंपरा, उनकी पूजा-पद्धत्ति, उनका पुराना धर्म, उनके भगवान जिम्मेदार हैं। और उन सबका समूल नाश ही उनके अभ्युत्थान का एकमात्र उपाय है। उन्हें उनकी दुरावस्थाओं से उनका नया ईश्वर, उनकी नई पूजा पद्धत्ति ही उबार सकती है। ग़लत ईश्वर, जिसकी वे अब तक पूजा करते आए थे, का विरोध उनका नैतिक-धार्मिक दायित्व है। यह उन्हें उनके नए ईश्वर का कृपा-पात्र बनाएगा। कभी सेवा के माध्यम से, कभी शिक्षा के माध्यम से, कभी साहित्य के माध्यम से, कभी आर्य-अनार्य के कल्पित ऐतिहासिक सिद्धांतों के माध्यम से नव मतांतरितों के रक्त-मज्जा तक में इतना विष उतार दिया जाता है कि सनातन परंपराओं के प्रतीक और पहचान, भगवा से उन्हें आत्यंतिक घृणा हो जाती है। यह घृणा कई बार इस सीमा तक बढ़ जाती है कि वे निरीह साधु-संतों और उनके सहयोगियों पर प्राणघातक हमले कर बैठते हैं।

यहाँ यह कहना भी अनुचित नहीं होगा बदलते दौर के साथ संत समाज में भी कुछ बुराइयाँ घर करती जा रही हैं। समय आ गया है कि उन्हें स्वयं अपना आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए और प्रक्षालन का एक अभियान अपने समाज के भीतर ही चलाना चाहिए। सभी धर्माचार्यों को मिल-बैठकर एक बृहत आचार-संहिता का निर्धारण करना चाहिए और सभी के लिए उसके पालन की अनिवार्यता रखनी चाहिए। संतत्व वाणी का भूषण नहीं, व्यक्तित्व का रूपांतरण है। संतत्व उपदेशों से अधिक आचरण और चरित्र का विषय है। साधु-संतों के व्यक्तित्व के दर्पण में समाज को अपने तमाम दाग-धब्बे दिख जाएँ, उन्हें इतना बेदाग़, इतना निर्मल होना चाहिए। सिद्धि साधनों से नहीं, साधना से मिलती है। कितना अच्छा हो कि उस सिद्धि का सदुपयोग धरती पर चलते-फिरते दरिद्रनारायण की सेवा में सतत होता रहे! ठीक उसी प्रकार – जैसे तमाम साधु-संत, मठ-आश्रम निरंतर कर भी रहे हैं। पर यह सक्रिय एवं सुचारू रूप से तभी संभव है, जब समाज आस्था एवं श्रद्धा के इन मूर्त्तिमान स्वरूपों एवं केंद्रों के रक्षार्थ आगे आए। उन पर हमलावर व्यक्तियों-संस्थाओं-विचारों का समवेत स्वर में विरोध करे। उन पर हो रहे हर हमले को स्वयं पर हुआ हमला माने।

Share this post

प्रणय कुमार

प्रणय कुमार

बतौर शिक्षा प्रशासक कार्यरत प्रणय कुमार लेखक और शिक्षाविद हैं। अध्यापन के साथ विभिन्न अखबारों/पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते हैं। इसके साथ ही भारतीय दर्शन, चिंतन तथा सनातन ज्ञान परंपरा पर अपने व्याख्यान के लिए जाने जाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top