-प्रो.संजय द्विवेदी
भरोसा नहीं होता कि मेरे पूज्य गुरुदेव श्री संकठा प्रसाद सिंह अब इस दुनिया में नहीं रहे। बस्ती (उप्र) के सरस्वती शिशु मंदिर, रामबाग के प्रधानाचार्य रहे संकठा जी में ऐसा क्या था, जो उन्हें खास बनाता है? क्या कारण है कि वे अपने विद्यार्थियों के लिए हमेशा प्रेरणा देने वाली शख्सियत बने रहे। बहुत बालपन में उनके संपर्क में आनेवाला शिशु अपनी प्रौढ़ावस्था तक उनकी यादों और शिक्षाओं को भूल नहीं पाता।
शिशु मंदिर व्यवस्था के इस पक्ष का अध्ययन किया जाना चाहिए कि पारिवारिक और आत्मीय संवाद बनाकर यहां के आचार्य गण जो आत्मविश्वास नयी पीढ़ी को देते हैं,वह अन्यत्र दुर्लभ क्यों है? निम्न और मध्यम वर्गीय परिवारों से आए विद्यार्थियों में जो भरोसा और आत्मविश्वास संकठा जी जैसे अध्यापकों ने भरा, वह मोटी तनख्वाहें पाने वाले पांच सितारा स्कूलों के अध्यापक क्यों नहीं भर पा रहे हैं? हमने अपने सामान्य से दिखने वाले आचार्यों से जो पाया, उससे हम दुनिया में कहीं भी जाकर अपनी भूमिका शान से निभाते हैं, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थी डिप्रेशन, अवसाद से घिरकर आत्महत्याएं भी कर रहे हैं। हमारी उंगलियां पकड़कर जमाने के सामने ला खड़े करने वाले संकठा जी जैसे अध्यापकों की समाज को बहुत जरुरत है।
गुरुवार 28 मार्च ,2024 को अपने गृहग्राम वनभिषमपुर, पोस्ट-मुसाखाडं, चकिया,जिला -चंदौली (उप्र) में अपनी अंतिम सांसें लीं, तो उनकी बहुत सी स्मृतियां ताजा हो आईं। उनके मानवीय गुण, कर्मठता, अध्यापन और प्रबंधन शैली सब कुछ। कच्ची मिट्टी से शिशुओं में प्रखर राष्ट्रीय भाव, नेतृत्व क्षमता, सामाजिक संवेदनशीलता भरते हुए उन्हें योग्य नागरिक बनाना उनका मिशन था। वे ताजिंदगी इस काम में लगे रहे। बाद में शिशु मंदिर योजना के संभाग निरीक्षक गोरखपुर,काशी,प्रयाग संभाग का दायित्व भी उन्होंने देखा। सतत् प्रवास करते हुए मैंने उनके मन में कभी कड़वाहट और नकारात्मक भाव नहीं देखे।
रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह छात्र जीवन में उनके सहपाठी रहे। वे दिल्ली जब भी आते माननीय रक्षा मंत्री जी से लेकर हम जैसे तमाम विद्यार्थियों से खोजकर मिलते। कोई चाह नहीं , बस हालचाल जानना और अपनी शुभकामनाएं देना। ऐसे अध्यापक का आपकी जिंदगी में होना भाग्य है। भोपाल में अपने पूज्य दादाजी की स्मृति में होने वाले पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मैंने उन्हें अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया। मेरे तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर बृजकिशोर कुठियाला इस बात से बहुत खुश हुए कि मेरा अपने स्कूल जीवन के अध्यापक से अभी तक रिश्ता बना हुआ है। मैंने सर को बताया कि इसमें संकठा जी का नियमित संपर्क और स्नेहिल व्यवहार बहुत बड़ा कारण है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के मेरे विद्यार्थियों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी। अध्यापक और छात्र के इस जीवंत रिश्ते की ऐसी तमाम कथाएं संकठा जी के लिए सामान्य थीं। छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त ‘चाचा नेहरू अखिल भारतीय बाल मित्र सभा’ नाम से एक संगठन चलाते थे। तब हम शिशु मंदिर से पढ़कर निकल चुके थे। चाचा नेहरू का नाम जुड़ा होने के कारण हमें लगता था, आचार्य जी इससे नहीं जुड़ेंगे, किंतु जब हम पूर्व विद्यार्थियों ने उन्हें इस संगठन का अध्यक्ष बनाया तो सहर्ष तैयार हो गए। उस समय बस्ती से इसी संगठन से एक बाल पत्रिका ‘बालसुमन’ नाम से हमने निकाली। इसके कुछ अंक हमने बस्ती से छापे। बाद थोड़ी अच्छी छपाई हो इसलिए संकठा जी ने इसके कुछ अंक वाराणसी से छपवाए। शिशु मंदिर से निकलकर मेरा प्रवेश मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित कालेज ‘खैर कालेज, बस्ती ‘ में हो गया।
वहां के मेरे सहपाठियों शाहीन परवेज, एहतेशाम अहमद खान आदि से भी संकठा जी काफी दोस्ती हो गयी। कारण था चाचा नेहरु अखिल भारतीय बाल मित्र सभा। इसकी गतिविधियां भी बढ़ीं। संकठा जी बस्ती से स्थानांतरित होकर गाजीपुर गये, तो हम वहां शाहीन परवेज के गांव में भोजन के लिए गए। रिश्ते को अटूट बना लेना और लोकसंग्रह उनकी वृत्ति थीं। यहीं गाजीपुर में उन्होंने मेरी मुलाकात श्री अजीत कुमार से करवाई, जो बाद वाराणसी में छात्र आंदोलन में में मेरे वरिष्ठ साथी रहे। आज वे नेशनल बुक ट्रस्ट के बोर्ड के सदस्य और सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। मैं याद करता हूं तो ढेर सी यादें घेरती हैं। मेरी शादी में वे सपरिवार आए। मां की मृत्यु पर, भाई की मृत्यु पर । हर सुख -दुख की घड़ी में उनका हाथ मेरे कंधे पर रहा।
दिल्ली में आखिरी मुलाकात हुई ,तब मैं भारतीय जन संचार संस्थान में कार्यरत था। वे आए दो दिन साथ रहे। शरीर कमजोर था, पर आंखों की चमक और अपनी सींची पौध पर उनका भरोसा कायम था। ऐसे शिक्षक दुर्लभ ही हैं, जो आपको आपके सपनों, दोस्तों, परिवार के साथ स्वीकार करता हो। आप अपनी जिंदगी में व्यस्त और मस्त हैं और उन्हें फोन भी करने का वक्त नहीं निकाल पाते। किंतु संकठा जी फोन आता रहेगा, आपको आपकी जड़ों से जोड़ता रहेगा। उनका हर फोन यह अपराधबोध देकर जाता था कि क्या हमें अभी और मनुष्य बनना शेष है? इतनी उदारता, संवेदनशीलता और बड़प्पन लेकर वे आए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पाठशाला ने संकठा जी जैसे तमाम अनाम योद्धाओं के माध्यम से यह दुनिया रची है।
मैं शब्दों में नहीं कह सकता कि मैंने क्या खोया, पर अपने विद्यार्थियों के लिए उनका पचास प्रतिशत भी कर पाऊं तो स्वयं को उनका शिष्य कह पाऊंगा। संकठा जी की कहानी विद्या भारती के महान अभियान की सिर्फ एक कहानी है। हमारे आसपास ऐसे अनेक हीरो हैं। जो अनाम रहकर पीढ़ियां गढ़ रहे हैं। उन सबका मंत्र है “एक समर्थ, आत्मविश्वास से भरा भारत!” संकठा जी एक व्यक्ति नहीं हैं, प्रवृत्ति हैं। जो समय के साथ दुर्लभ होती जा रही। जिनके लिए ‘शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है।’ भावभीनी श्रद्धांजलि!!
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी), नयी दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं)