नाना पेशवाका व्यक्तित्व
ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 का महासंग्राम संगठित करने का सबसे पहला इरादा नाना साहब और उनके मंत्री अजीमुल्ला में पैदा हुआ. उस समय नाना की उम्र 36 वर्ष की थी. ट्रेवलयान उनके व्यक्तित्व पर लिखता है, “His complexion was sallow, his features strongly marked, and not unpleasing. Like all Mahrattas, both head and face were shaven clean. He was fat with that unhealthy corpulence which marks the Eastern voluptuary.”
एक अन्य विवरण के अनुसार नाना का रंग गोरा, कद 5 फुट 8 इंच, शारीरिक बनावट शक्तिशाली एवं बलिष्ठ, चेहरे का आकार चपटा और गोल, नासिका सीधी और सुडौल, नेत्रों का आकर विशाल, गोल नेत्र, दांत सम, वक्षस्थल बालों से ढका, चेहरे पर कोई चिन्ह नहीं, केशों का रंग काला वकानों में बालियाँ पहने हुए. उनमें मराठी विशेषताएं स्पष्ट विद्यमान थी.1874 में जब नाना साहब के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार ने गवाहों के बयान दर्ज किये थे, जिसमें दो गवाहों ने बताया कि वे थोडा हकलाया भी करते थे.
1857 की तैयारियां
सीताराम बाबा द्वारा मैसूर के जुडिशल कमिश्नर के समक्ष 18 जनवरी 1858 को दिए बयान के अनुसार 1855 के आसपास नाना साहब ने महासंग्राम की योजना बनाई थी. उन्होंनेयह किसी दस्सा बाबा के कहने पर किया था. अतः सबसे पहले नाना द्वारा पत्र लिखकर सभी भारतीयराजाओं को एकजुट करने के प्रयास किये गए. इसमें ग्वालियर की सिंधिया राजमाता बैजाबाई, होलकर, जयपुर, जोधपुर, झालावार, रीवां, बड़ोदा, हैदराबाद, कोल्हापुर, सतारा, इंदौर के राजघराने शामिल थे. गवाही के अनुसार, “All this was communicated by the Nana to BaijaBhaiee and to all the other states – to Holkar, Scindia, Assam (or Burma), Jeypoor, Joudhpoor, KolahBoonder-Jhalawar-Rewah, Baroda-Kutch-Bhooj-Nagpur, to the Ghonds of Chanda (and doubtless Sambalpur) to Hyderabad, Sorapoor, Kolapore, Satara, Indore, in fact he did not leave out any place where there was native prince. He wrote to all…… He (Rajah of Travancore) is the only one who did not at all agree…… Nana Sahib wrote these letters about three years ago, at intervals, a short time, perhaps two or three months, previous to the annexation of Oudh.”
इनकी इस मुहीम में सबसे पहले जवाब जम्मू और कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह का आया. सीताराम बाबा ने बताया कि “Golab Singh of Jummoo, was the first to send an answer. He said that he was ready with men, money,and arms, and he sent money to Nana Sahib, through one of the Lucknow Soukars (Sahukars).”
इसके बाद नाना साहब ने जयपुर के महाराजा मानसिंह की सहायता से दिल्ली में बहादुरशाह जफ़र से संपर्क कियाऔर उन्होंने भी नाना को उनका भी समर्थन मिल गया, “Nana Sahib and Maun Singh communicated with theKing of Delhi and it was agreed that the Padishah should be forthe Mussulmans and Dewangiri for the Hindoos.”
उसके बाद अवध के मुसलमानों ने भी सहायता की पेशकश कर दी.हैदराबाद की तरफ से महासंग्राम में न जुड़ने का जवाब आया कि वे पैसा देने में असमर्थ है और कुछ ‘बंदोबस्त’ अपने यहाँ करेंगे. साथ ही वे उनकी सहायता के लिए वहां आने में भी असमर्थ है.
इसी समय अजीमुल्ला भी भारत लौट आये थे. अतः उन्होंने रूस द्वारा ब्रिटेन को हराने का सारा किस्सा उन्हें सुनाया था. इसलिए नाना साहब ने रूस से भी कंपनी को कलकत्ता से भागने के लिए संपर्क किया. रूस से उन्हें जवाब भी मिला कि जबतक वे स्वयं के प्रयासों से दिल्ली हासिल नहीं कर लेते तब तक उन्हें कोई सहायता नहीं मिलेगी. अगर वे दिल्ली जीत लेते हैं तो रूस उन्हें अंग्रेजो को कलकत्ता से भागने में पूरी सहायता करेगा.
भारत यात्रा
लन्दन टाइम्स समाचारपत्र के विशेष संवाददाता, रसेल जोकि अजीमुल्ला को क्रीमिया के मोर्चे तक ले गए थे, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘My diary in India, in the year 1858-9’ में नाना साहब के भारत भ्रमण का उल्लेख किया है. वे लिखते है, “……The worthy couple (Nana and Khan), on the pretence of a pilgrimage to the hills – a Hinduand Mussulman joined in a holy excursion! – visited the military stations all along the main trunk-road, and went as far as Umballah (Ambala). It has been suggested that their object in going to Simla was to tamper with the Goorkha regiment stationed in the hills; but that, finding on their arrival at Umballah, a portion of the regiment were in cantonments, they were able to effect their purpose with these men, and desisted from their proposed journey on the plea of the cold weather.”
नाना साहब की यात्राओं का उद्देश्य गोपनीय बना रहा लेकिन उनकी लखनऊ यात्रा से कंपनी को कुछ आभास हो गया था. अप्रैल 1857 में वे अजीमुल्ला खान के साथ लखनऊ गए. उनका वहां भव्य स्वागत किया गया और सारे नगर को सजाया गया. वे हाथी पर स्वर थे. उनकी इस गर्वीले व्यव्हार से कंपनी के अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए और उन्होंने नाना के कानपुर लौटने से पहले वहां के अधिकारियों को सतर्क कर दिया.
योजना के अनुसार महासंग्राम का शुभारम्भ 31 मई 1857 को निश्चित किया गया था. हालाँकि उससे पहले ही 10 मई को मेरठ छावनी में सैनिकों ने असामयिक हमला कर दिल्ली की ओर कूच कर दिया. परिणामस्वरूप महासंग्राम अलग-अलग तिथियों पर अलग-अलग स्थानों पर शुरू हुआ.
कानपुर में महासंग्राम
कानपुर छावनी कंपनी की दृष्टि से बेहद अहम थी. इस शहर पर 1801 से ही अंग्रेजों का कब्ज़ा बना हुआ था. अवध के नवाब पर नजर रखने और 1817 में पेशवा के वहां आकर बसने के बाद इसका राजनैतिक महत्व अधिक हो गया था. यहाँ 53वीं और 56वीं टुकड़ी के पैदल सैनिक और घुड़सवारों की द्वितीय लाइट कैलवरी और तोपों को तैनात किया गया था. इस 3000 लोगों की सेना का नेतृत्व ह्यू मेसी व्हीलर के पास था.
नाना साहब की लखनऊ यात्रा के बाद कानपुर के सैन्यअधिकारियों को सतर्क रहने के लिए कहा गया था लेकिन उन्हें नाना साहब पर इतना विश्वास था कि उन्होंने उसपर खास ध्यान नहीं दिया. लेकिन मेरठ और दिल्ली की घटनाओं के बाद कानपुर में सावधानियां बरती जाने लगी. अवध से घुड़सवारों को बुलाया गया और स्थानीय अधिकारियों को कहा गया कि वे रात्रि में सैनिकों की पंक्ति में ही सोये. अंग्रेजों ने नाना साहब से सहायता मांगी और उन्होंने सहर्ष ही 200 घुड़सवार, 400 पैदल सैनिक और 2 तोपें भेज दी. कुछ दिनों बाद अवध के घुड़सवारों को विश्वस्त न मानकर लखनऊ से 32वीं रेजिमेंट को बुलाया गया.
कानपुर के कलेक्टर ने नाना साहब से मिले हाथियों द्वारा खजाने को किसी गुप्त स्थान पर ले जाना चाहता था लेकिन उसके सुरक्षा सैनिकों ने विरोध कर दिया. उन्होंने अंग्रेज सैनिको द्वारा भी खजाने की सुरक्षा पर रोष प्रकट कर दिया. हताश होकर कलेक्टर ने नाना साहब से संपर्क किया. उन्होंने इस स्थिति का लाभ उठाकर अपने द्वारा भेजे गए सैनिको को खजाने की सुरक्षा का सुझाव दिया, जिसे कलेक्टर ने स्वीकार कर लिया. इस प्रकार नाना साहब को अंग्रेजों का खजाने पर अधिकार ज़माने की स्वर्णिम अवसर मिल गया.
संकट को ध्यान में रखते हुए, व्हीलर ने स्वयं की रक्षा के लिए प्रबंध करने शुरू कर दिए थे. उसने एक सिपाहियों की बैरक के पास एक अस्पताल को चुना और वहां में 4 फुट ऊँची कच्ची दीवार बनवा दी. दुगनी मजदूरी देकर पूरा कार्य 4 दिनों में पूरा करवाया गया. इसी स्थान पर 200 यूरोपियन सैनिको, औरतों और बच्चों ने शरण ली.
उस स्थान का वर्णन फ्लेचर हेइज द्वारा इस प्रकार किया गया है, “जब मैं कोट में गया तो मैंने बग्घियों, पालकियों और गाड़ियों पर लिपिकों, व्यापारियों और अन्य लोगों को सामान लादकर आते देखा. प्रत्येक व्यक्ति काल्पनिक शत्रु से थर्रा रहा था….. दुधमुंहे बच्चों के साथ स्त्रियाँ, दाइयां और बच्चे और अफसर चारों ओर फैले हुए थे. ऐसी स्थिति में अगर विद्रोह होता है तो इसके लिए हमारे सिवा और कोई दोषी नहीं होगा. हमने हिन्दुस्तानियों को दिखा दिया है हम कितनी जल्दी डर जाते है और डर जाने पर कितने असहाय हो जाते है.”आप लोग किले बंदी खड़ी कर रहे है, उसका नाम क्या होगा?”
इस कोट में 24 मई से 31 मई तक सभी अंग्रेज प्रत्येक पल महासंग्राम को लेकर भयभीत रहे. एक दिन अजीमुल्ला अंग्रेजों की इस किलेबंदी को देखने गए. उन्होंने लेफ्टिनेंट डेनियल से प्रश्न किया, “आप लोग किलेबंदी कर रहे है उसका क्या नाम होगा?” डेनियल ने कहा, “हमने इस पर विचार नहीं किया है.” अजीमुल्ला ने कहा, “इसका नाम तो निराशा का दुर्ग होना चाहिए.” डेनियल बोला, “नहीं, इसका नाम विजयदुर्ग होगा.” इसपर अजीमुल्ला ने जोर से अट्टहास किया.
तात्या टोपे के बयान के अनुसार, “In the month of May 1857 the Collector of Cawnpoor (Kanpur) sent a note of the following purport, to the Nana Sahib at Bithoorviz. that he begged him (the Nana) to forward his wife and children to England. The Nana consented to do so and four days afterwards the Collector wrote to him to bring his troops and guns with him from Bithoor to Cawnpoor. I went with the Nana and about 100 sepoys and 300 matchlockmen and 2 guns to the Collector’s house at Cawnpoor. The Collector was then in the entrenchment and not in his house. He sent us word to remain and he stopped at his house during the night. The Collector came in the morning and told the Nana to occupy his own house which was in Cawnpoor. We accordingly did so. We remained there four days and the gentleman said it was fortunate we had come to his aid as the sepoys had become disobedient and that he would apply to the General in our behalf. He did so and the General wrote to Agra whence a reply came that arrangements would be made for the pay of our men. Two days afterwards the three Regiments of Infantry and the 2nd Light Cavalry surrounded us and imprisoned the Nana and myself in the treasury and plundered the magazine and treasury of everything they contained leaving nothing in either. Of the treasure the sepoys made over two lacs and eleven thousand Rupees to the Nana, keeping their own sentries over it. The Nana was also under charge of these sentries and the sepoys which (sic,) were with us also joined the rebels. After this the whole army marched from that place and the rebels took the Nana Sahib and myself and all our attendants along with them and said ‘Come along to Delhi’. Having gone 3 crorefrom Cawnpoor the Nana said that as the day was far spent it was better to halt there then and to march in the following day. They agreed to this and halted. In the morning the whole army told him (the Nana) to go with them towards Delhi. The Nana refused and the army then said, ‘Come with us to Cawnpoor and fight them’. The Nana objected to this, but they would not attend to him and so taking him with them as a prisoner they went towards Cawnpoor and fighting commenced there…..”
1 जून तक कोई घटना नहीं हुई और अंग्रेज पहले की अपेक्षा आश्वस्त हो गए कि अब सेना कोई उनके खिलाफ कदम नहीं उठाएगी. इस दौरान नाना साहब महासंग्राम की अपनी तैयारियों को गुप्त तरीके से अंजाम तक पहुँचाने में लगे थे. एक शाम गंगा नदी के किनारे बलाराव (नाना के भाई), शमशुद्दीन खान, गणिका अजिनान, अजीमुल्ला और नाना साहब ने दो घंटो तक चर्चा की. जब इसकी खबर अंग्रेजों को लगी तो नाना साहब ने जवाब दिया कि यह बैठक दूसरी पलटन को शांत रखने के लिए थी. जबकि सच्चाई यह थी कि नाना साहब ने घुड़सवार पलटन को अपने साथ मिला लिया था.
4 जून की आधी रात को तीन फायरों के साथ कानपुर में भी महासंग्राम की शुरुआत हो गयी. पैदल सेना और दूसरी घुड़सवार रेजीमेंटों ने छावनी से बाहर निकल कर खजाने पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों के कई स्थानों पर आग लगा दी. उसके बाद इन क्रांतिकारियों ने जेल में बंद सभी कैदियों को रिहा कर दिया. तत्पश्चात यह सभी सैनिक कानपुर से थोड़ी दूर कल्याणपुर नाम के स्थानपर एकत्रित हुए और दिल्ली जाने की योजना बनाने लगे. इसी के साथ अजीमुल्ला, नाना साहब और बालाराव भी मौजूद थे. नाना ने उन्हें पहले कानपुर पर पूर्ण अधिकार करने का आदेश दिया. सभी ने मिलकर नाना साहब को अपना राजा चुना और सूबेदार टिक्का सिंह को कमांडर बनाकर जनरल की पदवी दी गयी. जमादार दलगंजन सिंह 53 नंबर पलटन के कर्नल और सूबेदार गंगादीन को प्रधान पलटन का कर्नल बनाया गया.
अब नाना के पास खजाना, सैनिक सबकुछ था. अतः उन्होंने अब गुप्त तरीका छोड़कर खुलकर अंग्रेजों को चुनौती देना शुरू कर दिया. कानपुर लौटने पर उन्होंने व्हीलर को बताया कि वे उनसे युद्ध के लिए आ रहे है. 6 जून को उन्होंने कोट को घेर लिया और कई तोपों को वहां तैनात कर दिया. 9 से 12 जून के बीच वहां गोलाबारी होती रही. इस पूरे कार्यवाही में नाना साहब की सेना हमेशा आगे रही और अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया.
6 जून को अवध लोकल इन्फेंट्री की चौथी और पांचवी पलटन भी नाना के साथ आकर मिल गयी थी. इस नयी पलटन ने कोट के उस स्थानपर हमला किया जहाँ पानी का एकमात्र साधन – कुआं हुआ करता था.
इस दौरान नाना ने कानपुर में अस्थाई शासन व्यवस्था भी स्थापित कर ली थी. इसके बाद बाँदा, हमीरपुर, इटावा, जालौन, झाँसी में भी सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उनके सहयोग और समन्वय के लिए नाना साहब ने तात्या टोपे और बालाराव को भेजा. इन्होने झाँसी की रानी, बाँदा के नवाब, फर्रखुबाद के नवाब सहित ग्वालियर और रीवा में महासंग्राम का संचालन किया.
23 जून तक कोट में घिरे अंग्रेज सैनिकों की स्थिति अत्यंत ख़राब हो गयी थी. सुरेन्द्रनाथ सेन लिखे है, “Death came from all quarters at all hours. Major Lindsay wasblinded by the splinters of a round shot and died a few days later.His wife followed him a day or two after. Heberden waswounded while handing some water to one of the ladies and died after a week of intense suffering. Lieutenant Eckford was killed while sitting in the verandah. Mrs. White was walking with her husband under the cover of a wall, she had two babies, twins, one in each arm. A single bullet killed the husband and broke both the arms of Mrs. White. Hillcrsdon, the Magistrate, died while talking to his wife in the verandah. Lieutenant Wheeler, the son of the General, had been wounded in the trenches, he was killed by a round shot in a sofa in his room within the sight of his parents and sisters.”
उनके पास भोजन नहीं था और कोई सहायता की भी उम्मीद नहीं थी. व्हीलर ने लखनऊ कई सन्देश भेजे लेकिन उसे कोई तुरंत सहायता मिलने की कोई उम्मीद नहीं दी गयी. 21 दिनों बाद, आखिरकार 26 जून को नाना और व्हीलर के बीच संधि हुई.
संधि के लिए नाना ने जेल में कैद एक महिला अंग्रेज को जनरल व्हीलर के पास क्विन विक्टोरिया की जनता को सम्बंधित करते हुए एक सन्देश भेजा, “जिनका डलहौजी की नीतियों से सम्बन्ध नहीं है और जो हथियार समर्पण करना कहते है उन्हें सुरक्षित इलाहबाद पहुंचा दिया जायेगा.” यह सन्देश अजीमुल्ला द्वारा ही लिखा गया था.
इस सन्देश के बाद, व्हीलर ने कैप्टन मुर और व्हिटिंग को विचार करने के लिए कहा. दोनों अधिकारियों ने आत्मसमर्पण का निश्चय किया और अगले दिन नाना पेशवा की तरफ से ज्वाला प्रसाद और अजीमुल्ला खान; कंपनी की तरफ से मूर, व्हिटिंग और रोचे मिले. कंपनी ने अपनी सभी तोपें और हथियार नाना को सौंप दिए और उन्हें भोजन उपलब्ध कराकर इलाहबाद भेजने की तैयारियां की जाने लगी.
इलाहाबाद जाने वाले अंग्रेजों की मुसीबत अभी समाप्त नहीं हुई. वे सभी हाथियों और पालकियों के माध्यम से गंगा नदी के किनारे पहुंचे. वहां उस दिन बहुत भीड़ थी और स्थानीय नागरिक अपने पुराने शासकों को जाते हुए देखने के लिए उत्सुक थे.अंग्रेज40 नौकाओं मेंसवार हुए,उनके नाविक सतिचौरा घाट से कुछ दूर ही गंगा नदी में कूद गए. उनके ऊपर अंग्रेजों ने गोलियां चलाई लेकिन वे तबतक सकुशल घाटों तक पहुँच गए.
दरअसल, यह प्लासी युद्ध के 100 वर्ष इसी समय पूरे हो गए थे. दूसरी तरफ सैनिकों के जेहन में इलाहाबाद और बनारस में कंपनी की क्रूरता भी बस गयी थी. इसलिए उन्होंने गंगा नदी में ही उन सभी बचे हुए अंग्रेजों को मारने की योजना बनायीं. सिपाही ने कंपनी के इन बचे हुए अंग्रेजों को मरने पर तुले हुए थे. उन्होंने घाटों पर जाने से पहलेनावों में छुपा रखे बारूद में आग लगा दी. सभी नावों में आग नहीं लगी और कुछ बच निकली. व्हीलर और हिलसर्दन सभी अंग्रेज मारे गए.
इस दौरान किसी ने नाना साहब को इसकी जानकारी नहीं थी. संभवतः यह तात्या टोपे और अजीमुल्ला के इशारों पर हुआ होगा. जब नाना को इस घटना की सूचना हुई तो उन्होंने कुल मौजूद 125 अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को बीबीघर में बंदी बनाने का आदेश दे दिया. फिर भी कुछनावों में अंग्रेजों महिला और पुरुष बचकर 28 जून को नजफगढ़ पहुंचे, जहाँ उन्हें क्रांतिकारियों का गोलियों का सामना करना पड़ा. इन झडपों में 80 महिला और पुरुषों को बंदी बनाया गया. 30 जून को सभी पुरुष अंग्रेजों को फांसी दे दी गयी. महिलाओं और बच्चों को बीबीघर भिजवा दिया गया.
नाना साहब का राज्याभिषेक
इस विजय के बाद, नाना साहब का पेशवाई तरीके से राज्याभिषेक किया गया. छह दिनों तक बिठुर में उत्सव मनाये गए. फतेहपुर भी 9 जून को स्वतंत्र हो गया और वहां भी नाना साहब का राज्य घोषित किया गया.
इलाहबाद की पराजय
इलाहबाद में एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी नील ने आतंक मचा दिया था. वहां क्रांतिकारियों को पराजय का सामना करना पड़ा. मौलवी लियाकत खान इस सन्देश के साथ 24 जून को कानपुर आये थे. हालाँकि नील को व्हीलर के गुप्त सन्देश मिल रहे थे लेकिन उसका तब प्रयाग से निकल पाना एकदम असंभव था.
इस दौरान, नाना के पास अब 3500 सैनिकों की एक फौज तैयार हो गयी थी. उन्होंने अब कलकत्ता पर धावा बोलने की तैयारियां शुरू कर दी. उधर प्रयाग की विजय के बाद नील को मेजर रेनाड की सहायता मिल गयी. तभी एक सैन्य अधिकारी हैवलाक भी प्रयाग आ गया और उसने सेना का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया. अब उनके पास 1400 अग्रेज, 600 सिख और 8 तोपें थी. वह अब कानपुर पर नजर रखने लगे थे.
15 जुलाई को आंग गाँव (महाराजपुर) में पांडो नदी पारकर हैवलाक और नाना साहब की सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ.कंपनी के 25 सैनिक मारे गए लेकिन बाला साहब के कंधे पर गोली लगने से वे भी घायल हो गए. इसलिए दो घंटों के उपरांत ही क्रांतिकारियों और कंपनी दोनों को पीछे हटना पड़ा.
महाराजपुर से कानपुर कुछ ही दुरी पर रह गया था. क्रांतिकारियों ने रास्ते में नदी पर बने एक पुल को तोपों से उड़ाने का प्रयास किया, जिससेहैवलॉक न पुल पार करसके. दुर्भाग्यवश यह प्रयास असफल रहा.जैसे ही नाना साहब को अपने सैनिकों की सूचना मिली, वे स्वयं 14 तोपों और पैदल सेना के साथ युद्ध के मैदान में आ गए. इस युद्ध में किसी को भी विजय नहीं मिली और दोनों सेनाएं पीछे हट गयी. लेकिन कंपनी की सेना ने पुल पार कर लिया था.
हैवलॉक ने हार नहीं मानी, और जब वह अगलेआक्रमण की योजना बना रहा था, तभीनाना की सेना ने हमला बोल दिया.इसके बाद नाना की तोपे गरजने लगी. एक समय नाना की सेना ने अंग्रेजों को पीछे किया लेकिन कुछ ही समय बाद नाना की सेना को अपने तोपों को छोड़कर भागना पड़ा.
इस जीत के बाद,हेवलॉक की सेना कानपुर पहुंच गई. लोगों को पकड़ कर फांसी दी जाने लगी. नाना के साथियों को फांसी में चढ़ाने से पहले जमीन पर पड़ा रक्त चटवाया जाता था.
7वीं बंगाल रेजिमेंट नाना साहब को पकड़ने आयी पर नाना साहब को पकड़ने में असफल रही.दरअसल,नानासाहब ने 18 जुलाई को बिठुर खाली कर दिया और अगले दिन कंपनी का वहां अधिकार हो गया. 19 जुलाई को हेवलॉक बिठूर गया और नाना साहब का घर लूट लिया.उनकी चांदी जड़ित तलवार अंग्रेजों के हाथ लगी.हाथी, घोड़ो को कब्जा करके घर मे आग लगा दी गयी.
इसके बाद कानपुरऔर बिठुर को स्वतंत्र कराने के लिए कई युद्ध हुए जिसमें कुंवर सिंह भी कालपी तक आ गए थे. हालाँकि, इन सभी प्रयासों के बावजूद भी जनवरी 1858 तक कंपनी का कानपुर पर अधिकार स्थापित हो चुका था. लेकिन इस दौरान नाना किसी अज्ञातवास में थे. कंपनी ने 28 फरवरी 1858 को घोषणा की, “जो व्यक्ति नाना को गिरफ्तार करवाएगा उसे 1 लाख का इनाम दिया जायेगा.”
बिठुर छोड़ने के बाद भी नाना कई क्रांतिकारियों जैसे झाँसी की रानी, बांदा और फर्रुखाबाद के संपर्क में थे. उन्होंने रूहेलखंड और गंगा के उपरी क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंदित किया. 11 मार्च को वे शाहजहांपुर पहुंचे और अलीगंज होते हुए 25 मार्च को बरेली आ गए. वे वहां अप्रैल माह के अंत तक रहे. उन्होंने वहां भी क्रांतिकारियों को एकजुट किया. सैनिकों का दल एकत्रित किया और, 40 तोपें जुटा ली. यही नहीं उन्होंने अपने भाई बालाराव को गोंडा और बहराइच भेजकर नेपाल के राणा जंगबहादुर को भी अपनी ओर मिला लिया था.
नाना ने जो सेना एकत्रित की थी, उसने 5 मई को बरेली में कंपनी से अंतिम मोर्चा लिया. बरेली का प्रमुख खान बहादुर इस दल का नेतृत्व कर रहा था. हालाँकियहाँ भी क्रांतिकारियों को सफलता न मिल सकी और बरेली भी हाथ से चला गया. दरअसल, राणा जंगबहादुर ने क्रांतिकारियों की सहायता करने से अपने कदम पीछे खींच लिए थे.इस बीच झाँसी की रानी ने भी युद्ध में लड़ते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया.
5 जून को नाना साहब, अवध की बेगम, मम्मू खान और फिरोजशाह शहजादे के साथ नेपाल के तराई इलाकों में चले गए. वहां से भी वह क्रांतिकारियों के बीच लगातार समन्वय बनाते रहे. अंतत नाना साहब को कंपनी की सेना कभी पकड़ न सकी. वे अपनी मृत्यु तक कहाँ रहे इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.