19वीं सदीं तक यूरोप का हर राज्य कर रहा था गुलामों का व्यापार

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प्रो. कुसुमलता केडिया

दिल्ली । 16वीं से 19वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोप के प्रत्येक राज्य ने गुलामों का व्यापार किया और उससे बड़ी कमाई की। भारत के लोगों को यूरोप के इतिहास के विषय में प्रामाणिक जानकारी बहुत कम है। चकाचैंध भरा प्रोपेगंडा ही उनको विदित है। इसलिये तथ्य जानने आवश्यक हैं। 19वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोप में अत्यन्त महत्वपूर्ण राजनैतिक परिवर्तन हुये। अनेक नये-नये राज्य बने और पुराने बिगड़े। विश्व के अनेक देशों से यूरोपीय क्षेत्र के अनेक राज्यों ने सोना-चाँदी जवाहरात और धन तो लूटा ही, वहाँ के लोगों को गुलाम बनाकर भी बड़ी संख्या में ले गए और उन्हें बेचा। गुलामों का पूरा व्यापार ही चलता रहा। अफ्रीकी मुसलमानों ने भी अफ्रीका के मूल निवासियों को जबरदस्ती गुलाम बना-बना कर यूरोपीय ईसाइयों को बहुत सस्ते दामों में बेचा।

इस विषय में स्वयं यूरोपीय विद्वानों ने सैकड़ों पुस्तकें लिखी है। इसमें से मार्कस रेडीकर की ‘‘दि स्लेव शिप’’ बहुचर्चित है। गुलामों के साथ अवर्णनीय क्रूरता और पैशाचिकता की जाती थी। केवल किसी समाज को युद्ध में पराजित करके ही उन्हें गुलाम बनाते हों, ऐसा नहीं था। अपितु जहाँ भी कोई समाज या समुदाय किसी यूरोपीय समुदाय द्वारा अचानक अत्याचार किये जाने पर उनके प्रतिरोध के लिये सक्षम नहीं था, वहाँ सब जगह वे लोगों को जबरदस्ती पकड़कर बांधकर ले जाते और दूर देश में ले जाकर बेच देते। कई करोड़ लोग इस तरह गुलाम बनाकर बेचे गये। एक करोड़ बीस लाख गुलाम बनाये जाने के आंकड़े तो अकेले मार्कस रेडीकर ने ही दिये है। इसके पक्ष में तरह-तरह के तर्क बाद में गढ़े गये। परंतु वे तर्क सब बाद के थे, पहले तो क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता का यह कुकर्म कर लिया जाता था। बाद में पूछे जाने पर उसके पक्ष में तर्क दिये जाते थे।

गॉड के नाम पर हत्या और क्रुरता का अधिकार

उदाहरण के लिये पहले तो यह तर्क दिया गया कि हम श्रेष्ठ हैं और गैर यूरोपीय गैर ईसाई लोग निकृष्ट हैं। इसलिये हमंे उन्हें गुलाम बनाने का अधिकार है। अफ्रीका और अमेरिका के मूल निवासी लोगों के लिये तो यह कह दिया गया कि वे मनुष्य ही नहीं हैं, ओरांगउटांग नामक एक प्रजाति विशेष हैं और इसलिये उन्हें गुलाम बनाने तथा कुपित होने पर उनकी हत्या कर देने का भी पूरा अधिकार गॉड ने यूरोपीय ईसाइयों को दे रखा है। इस प्रकार गुलामी का व्यापार भारी मुनाफे का धंधा बन गया। क्योंकि इसमें पूँजी केवल उनको बंदी बनाने और मारपीट कर ढोकर ले जाने में आने वाले खर्च के रूप में ही लगाई जाती थी। बदले में भारी मुनाफा उनकी बिक्री से मिलता था। बाद में यूरोपीय ईसाइयों ने इसका एक और आसान रास्ता भी निकाला। मारपीट कर बंदी बनाने की जगह वे अफ्रीकी मुसलमानों से गुलामों को बेहद सस्ते दामों में खरीदने लगे और फिर केवल ढुलाई का खर्च लगता था तथा उन्हें ले जाकर भारी दामों में बेच दिया जाता था।

लगातार आपसी मारकाट करते रहे यूरोपीय ईसाई
गुलामी की प्रथा के विस्तार को समझने के लिये 19वीं शताब्दी ईस्वी में यूरोप की राजनैतिक दशा को समझना आवश्यक है। हाब्सबर्ग, आस्ट्रिया, प्रशा, जर्मनी, फ्रांस, रूस, इंग्लैंड, आयरलैंड, स्काटलैंड, नार्वे, स्वीडन, स्विटजरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन, हालैंड आदि इसके प्रमुख राज्य थे। मुसलमानों से ईसाइयों ने स्पेन को छीना और फिर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। 18वीं शताब्दी के अंत तथा 19वीं शताब्दी के आरंभ में स्पेन, पुर्तगाल और इंग्लैंड की सेनाओं ने फ्रांस से युद्ध शुरू कर दिया। फ्रांस की ओर से इस युद्ध का नेतृत्व नेपोलियन बोनापार्टे ने किया। उसके पहले आस्ट्रिया ने इटली को गुलाम बना लिया था। फ्रांस ने आस्ट्रिया को पराजित कर इटली को स्वतंत्र करने की घोषणा की। आस्ट्रिया और फ्रांस में तीन युद्ध हुये। युद्ध के बाद की संधियों में बार-बार भौगोलिक क्षेत्रों के आदान-प्रदान हुये।

नेपोलियन ने युद्ध के नेतृत्व में अद्भुत वीरता दिखाई और अंत में आस्ट्रिया को संधि करनी पड़ी। नेपोलियन यूरोपीय क्षेत्र के महानायक बन गये। उन्होंने भारत में मैसूर और कर्नाटक के राजाओं से भी संपर्क किया। परंतु अंग्रेजों ने इस काम में बहुत बाधा डाली।
इस बीच यूरोप के विविध समुदाय भारत आकर यहाँ विद्यमान बड़े-बड़े राज्यों को देख चुके थे। अतः पहली बार यूरोप में भी बड़े-बड़े राज्य स्थापित करने की लालसा जगी। नेपोलियन के पक्ष और विपक्ष में फ्रांस के अलग-अलग समुदाय एकत्रित हो गये। अंत में आपस के गृहयुद्ध से निपटने मंे नेपोलियन सफल रहा और वह यूरोपीय क्षेत्र का सबसे यषस्वी सम्राट बन गया। उसने इंग्लैंड पर आक्रमण की योजना बनाई, तब इंग्लैंड ने आस्ट्रिया और रूस से संधि कर नेपोलियन का मुकाबला किया।

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