नई दिल्ली: भारत की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ तब आया जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1971 के रायबरेली लोकसभा चुनाव में वोट चोरी और चुनावी अनियमितताओं का दोषी ठहराया। यह फैसला उनके राजनीतिक करियर और देश के लोकतंत्र पर गहरा प्रभाव डालने वाला था। उनके विरोधी राज नारायण ने आरोप लगाया था कि इंदिरा ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग कर चुनाव जीता था, जिसमें सरकारी वाहनों का इस्तेमाल और सरकारी कर्मचारियों की तैनाती शामिल थी।
न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा की अगुवाई में कोर्ट ने इंदिरा को छह साल के लिए सार्वजनिक पदों पर रहने से अयोग्य करार दिया। यह फैसला सुनते ही देश में राजनीतिक उथल-पुथल मच गई। इंदिरा, जो 1966 से प्रधानमंत्री थीं और 1971 में भारी बहुमत से जीत हासिल कर चुकी थीं, इस अपमानजनक स्थिति से निपटने के लिए कठोर कदम उठाने को मजबूर हुईं। 25 जून 1975 को उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी, जिसके तहत नागरिक स्वतंत्रता निलंबित कर दी गई, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई, और हजारों विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 24 जून को एक अंतरिम आदेश जारी कर इंदिरा को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दी, लेकिन उन्हें संसद में वोटिंग से रोका गया। यह स्थिति उनके लिए चुनौतीपूर्ण थी, लेकिन उन्होंने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए आपातकाल का इस्तेमाल किया। इस दौरान जबरन नसबंदी और गरीबों के घरों के ध्वस्तीकरण जैसे कदमों ने उनकी लोकप्रियता को और कम कर दिया।
1977 में जब आपातकाल समाप्त हुआ और चुनाव हुए, तो जनता ने इंदिरा और उनकी पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया। रायबरेली से उनकी हार ने उनके राजनीतिक करियर पर सवाल उठाए। फिर भी, 1980 में हुए चुनाव में उन्होंने शानदार वापसी की और फिर से प्रधानमंत्री बनीं। यह घटना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय मानी जाती है, जो सत्ता के दुरुपयोग और न्यायपालिका की भूमिका को रेखांकित करता है। आज भी यह कहानी राजनीतिक बहसों में जीवित है, खासकर जब चुनावी शुचिता की बात आती है।