26 अगस्त 1303 : सोलह हजार क्षत्राणियों और बच्चों के साथ चित्तौड़ में रानी पद्मावती का जौहर

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रानी पद्मावती सिंहल द्वीप की राजकुमारी थीं। उनका मूल नाम पद्मिनी था जो विवाह के बाद पद्मावती हुआ । सिंहलद्वीप का नाम अब श्रीलंका है। उनके पिता राजा चन्द्रसेन सिंहलद्वीप के शासक थे । उन्होंने अपनी बेटी पद्मिनी के विवाह के लिये स्वयंवर का आयोजन किया । यह समाचार पूरे भारत में आया । चित्तौड़ के राजा रतन सिंह भी स्वयंवर में भाग लेने सिंहलद्वीप पहुँचे। वहाँ पद्मिनी से विवाह के इच्छुक राजाओं की बल बुद्धि और कौशल की परीक्षा के लिये वन में आखेट की एक स्पर्धा आयोजित की गई थी

जयपुर: अपने स्वत्व और स्वाभिमान रक्षा के लिये क्षत्राणियों की अगुवाई में स्त्री बच्चों द्वारा स्वयं को अग्नि में समर्पित कर देने का इतिहास केवल भारत में मिलता है । इनमें सबसे अधिक शौर्य और मार्मिक प्रसंग है चित्तौड़ की रानी पद्मावती के जौहर का । जिसका उल्लेख प्रत्येक इतिहासकार ने किया है । इस इतिहास प्रसिद्ध जौहर पर सीरियल भी बने और फिल्में भी बनीं। राजस्थान की लोक गाथाओं में सर्वाधिक उल्लेख इसी जौहर का है ।
जौहर के विवरण भारत की अधिकांश रियासतों के इतिहास में मिलता है । जौहर की स्थिति तब बनती थी जब पराजय और समर्पण के अतिरिक्त सारे मार्ग बंद हो जाते थे । जौहर के सर्वाधिक प्रसंग राजस्थान के हैं । वहाँ कोई भी ऐसी रियासत नहीं जहाँ जौहर न हुआ हो । चित्तौड़ में सबसे पहला और सबसे बड़ा जौहर रानी पद्मावती का ही माना जाता है ।

रानी पद्मावती सिंहल द्वीप की राजकुमारी थीं। उनका मूल नाम पद्मिनी था जो विवाह के बाद पद्मावती हुआ । सिंहलद्वीप का नाम अब श्रीलंका है। उनके पिता राजा चन्द्रसेन सिंहलद्वीप के शासक थे । उन्होंने अपनी बेटी पद्मिनी के विवाह के लिये स्वयंवर का आयोजन किया । यह समाचार पूरे भारत में आया । चित्तौड़ के राजा रतन सिंह भी स्वयंवर में भाग लेने सिंहलद्वीप पहुँचे। वहाँ पद्मिनी से विवाह के इच्छुक राजाओं की बल बुद्धि और कौशल की परीक्षा के लिये वन में आखेट की एक स्पर्धा आयोजित की गई थी । जो राजा रतन सिंह ने जीती और राजकुमारी पद्मिनी से उनका विवाह हुआ । राजकुमारी पद्मिनी महारानी पद्मावती बनकर चितौड़ आ गईं।
उनके रूप गुण और राजा रतनसिंह के कौशल की चर्चा दूर दूर तक हुई यह दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी तक भी पहुँची। दिल्ली सल्तनत के दो हमले चित्तौड़ पर हो चुके थे । पर सफलता नहीं मिली थी । बल्कि गुजरात जाती दिल्ली सल्तनत की फौज से अपने क्षेत्र से होकर निकलने के लिये कर भी वसूला था । किन्तु गागरौन की सहायता के लिये चित्तौड़ की सेना गई थी जिससे शक्ति में कुछ गिरावट आई और दिल्ली ने तोपखाने की वृद्धि कर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी । स्थिति का आकलन करके दिल्ली की फौजों ने चित्तौड़ पर हमला बोला । लगभग एक माह तक घेरा पड़ा रहा । किन्तु सफलता नहीं मिली ।

अंततः अलाउद्दीन खिलजी ने एक कुटिल चाल चली । कुछ भेंट के साथ समझौता प्रस्ताव भेजा और आग्रह किया कि रानी पद्मावती का चेहरा एक बार देखकर लौट जायेगा । राजा ने प्रस्ताव मान लिया । सुल्तान अपने कुछ विश्वस्त सहयोगियों के साथ भोजन पर आया । उसने आइने में रानी को देखा और चलने लगा । राजा शिष्टाचार वस किले के द्वार तक छोड़ने आये । सुल्तान अलाउद्दीन बहुत कुटिल था । वह किले में भीतर जाते समय द्वार पर कुछ सुरक्षा सैनिक छोड़ गया था । उसके इरादों की किसी को भनक तक न थी । जैसे ही राजा द्वार पर आये उनपर हमला हुआ और बंदी बना लिये गये । बंदी बनाकर सुल्तान अपने शिविर में ले आया । और रानी को समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा । रानी ने सभासदों से परामर्श किया । गोरा और बादल जो रिश्ते में राजा भतीजे थे ने संघर्ष का बीड़ा उठाया । राजा को मुक्त कराने की योजना बनी । योजनानुसार सुल्तान को समाचार भेजा कि रानी अपनी सखी सहेलियों और सेविकाओं के साथ समर्पण करने आना चाहतीं हैं। रानी पद्मावती को प्राप्त करने को आतुर अलाउद्दीन ने सहमति दे दी । तैयारी की सूचना भी सुल्तान को मिली । और रानी की ओर से यह आग्रह भी किया गया कि वह अंतिम बार राजा से मिलना चाहतीं है अतएव राजा के बंदी शिविर से होकर सुल्तान के दरबार में हाजिर होंगी। यह सहमति भी मिल गई। चित्तौड़ में दो सौ डोले तैयार हुये । कहीं कहीं डोलों की यह संख्या 800 भी लिखी है । कुछ में तो दिखावे के विये महालाएँ थीं पर अधिकांश में लड़ाके नौजवान थे जो अपने राजा को कैद से छुड़ाने का संकल्प लेकर जा रहे थे ।

अंततः शिविर के कैदखाने के समीप जैसे ही ये डोले पहुँचे सभी सैनिक डोले पालकी से बाहर आये । यह छापामार लड़ाई थी जो गोरा बादल के नेतृत्व में लड़ी गई । किसी को अपने प्राणों का मोह न था वस राजा को मुक्त कराने का संकल्प था । इन सभी का बलिदान हो गया पर राजा मुक्त होकर सुरक्षित किले में पहुँच गये । यह 22 अगस्त 1303 का दिन था । राजा मुक्त होकर किले में आ तो गये थे । पर किले में राशन और सैन्य शक्ति दोनों का संकट था । सेना के अधिकांश प्रमुख सरदार राजा को मुक्त कराने की छापामार लड़ाई में बलिदान हो गये थे । इस घटना से बौखलाए अलाउद्दीन खिलजी का तोपखाना गरजने लगा । अंततः रानी द्वारा जौहरषऔर राजा रतनसिंह द्वारा शाका करने का निर्णय हुआ । 25 अगस्त 1303 से जौहर की तैयारी आरंभ हुई और रात को ज्वाला धधक उठी । पूरी रात किले के भीतर की सभी स्त्रियों ने अपने छोटे बच्चों को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर लिया । 26 अगस्त के सूर्योदय तक किले के भीतर सभी नारियाँ अपने छोटे बच्चों को लेकर अग्नि में समा गईं इनकी संख्या सोलह हजार बताई जाती है । 26 अगस्त को ही किले के द्वार खोल दिये गये । जितने सैनिक किले में थे वे सब राजा रतनसिंह के नेतृत्व में केशरिया पगड़ी बाँधकर निकल पड़े। भीषण युद्ध हुआ पर यह युद्ध दिन के तीसरे तक ही चल पाया । राजा रतनसिंह का बलिदान हो गया ।

इस प्रकार 26 अगस्त को राजा ने अपने स्वत्व और स्वाभिमान रक्षा केलिये अंतिम श्वाँस तक युद्ध किया वहीं रानी पद्मावती ने सोलह हजार स्त्री और बच्चों के साथ स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया । इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी किले में घुसा उसे चारों ओर जल्ती अग्नि और राख के ढेर मिले । उसने किले में कत्लेआम का आदेश दिया । अलाउद्दीन खिलजी के इस अभियान का वर्णन अमीर खुसरो की रचना ‘खजाईन-उल-फुतूह’ (तारीखे अलाई) में मिलता है । इस विवरण के अनुसार खिलजी की फौज ने एक ही दिन में लगभग 30,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था । अलाउद्दीन खिलजी ने अपने बेटे खिज्र खाँ को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया और चित्तौड़ नाम ‘खिज्राबाद’ कर दिया था।

रानी पद्मावती का जौहर स्थल आज भी चित्तौड़ में स्थित है । वहाँ लोग जाते हैं। श्रृद्धा सै शीश झुकाते हैं तथा रानी को सती देवी मानकर अपनी इच्छा पूर्ति की प्रार्थना करते हैं।

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रमेश शर्मा

रमेश शर्मा

श्री शर्मा का पत्रकारिता अनुभव लगभग 52 वर्षों का है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों में उन्होंने काम किया है। दैनिक जागरण भोपाल, राष्ट्रीय सहारा दिल्ली सहारा न्यूज चैनल एवं वाँच न्यूज मध्यप्रदेश छत्तीसगढ प्रभारी रहे। वर्तमान में समाचार पत्रों में नियमित लेखन कर रहे हैं।

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