आगरा: सुबह के धुँधलके में जब यमुना पर हल्की धुंध तैर रही थी और शहर की गलियों में सिर्फ़ परिंदों की चहचहाहट गूँज रही थी, तब लगा मानो आगरा अपनी साँसें रोककर हमें पुकार रहा हो—“क्या तुम मुझे सिर्फ़ ताजमहल समझते हो? या मेरी धड़कनों को भी सुनोगे, जो इन गलियों, हवेलियों, मंदिरों-मस्जिदों और कारख़ानों में सदियों से गूँज रही हैं?”
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विश्व पर्यटन दिवस (27 सितम्बर) की आहट है, और आगरा एक बार फिर अपने पुराने जादू को सँभालकर सैलानियों का इंतज़ार कर रहा है। लेकिन सवाल वही—क्या ताजमहल ही सब कुछ है? या इस शहर की रूह संगमरमर की दीवारों से कहीं आगे जाती है? इसी सवाल को साथ लेकर हम निकल पड़े बैटरी रिक्शे की धीमी चाल पर, जब सुबह की ठंडी हवा अभी लोगों को बिस्तर से बाहर नहीं निकाल पाई थी।
एतमाउद्दौला से दारा शिकोह तक:
यात्रा की शुरुआत यमुना किनारे एतमाउद्दौला पार्क से हुई। यहाँ रोज़ यमुना की आरती होती है। पाँच मुग़ली यादगारें एक साथ नज़र आती हैं—इतिहास और नदी की ख़ामोशी का दुर्लभ संगम।
फिर रुके हम पुरानी चुंगी पर—दारा शिकोह की किताबों की लाइब्रेरी। रोशनी और हवा से भरे उसके कमरे आज भी पढ़ने वालों को आवाज़ देते हैं। वही दारा, जो संस्कृत और फ़ारसी का सेतु बना, जिसकी सोच में हिन्दू-मुस्लिम तहज़ीब की गूँज थी। आज़ादी की लड़ाई में भी यह लाल पत्थर की इमारत क्रांतिकारियों की प्रेरणा रही।
बेलनगंज की खुशबू और ग़ालिब की हवेली:
बेलनगंज की सँकरी गलियों ने हमें खींच लिया। मिठाइयों की भाप, भगत हलवाई की दास्तान और श्री मथुराधीश मंदिर की प्राचीन छटा—सब एक साथ। फिर कचहरी घाट से होते हुए पहुँचे हज़ूरी भवन, जहाँ राधास्वामी संप्रदाय की आध्यात्मिक हवा अब भी बह रही है।
काला महल के पास दिल थम गया। यहीं पहली साँस ली थी मिर्ज़ा ग़ालिब ने। अगर दीवारें बोल पातीं तो कितनी ग़ज़लें सुनातीं। अब यहाँ लड़कियों का कॉलेज है। आसपास माल का बाज़ार, सेव का बाज़ार, कश्मीरी बाज़ार—ऊँची बालकनियाँ, खिड़कियों से झाँकती आँखें, मोहल्लों का शोरगुल। यही है असली आगरा।
एक साथी ने आह भरी—“कितना खालीपन है अब मोहल्लों का! मिठाइयों की खुशबू, नुक्कड़ की रंगत, काम में डूबे चेहरों का शोर—सब गुम हो गया।” सचमुच, पुराने वक्त का इश्क़ अब धुंधला पड़ता जा रहा है।
मंदिर, मस्जिद और बाज़ार की रौनक:
मंकामेश्वर मंदिर, जामा मस्जिद और जोहरी बाज़ार—तीनों के बीच घुलती-सुनहरी सुबह। मसालों की ख़ुशबू नाक गुदगुदाती है। किनारी बाज़ार की गलियाँ किसी फ़ारसी क़सीदे जैसी। दुकानदार हँसकर कहते हैं—“नई कॉलोनियों में बाज़ार खुले होंगे, मगर असली खरीदार आज भी हमारी दुकानों तक आते हैं। शादी-ब्याह हो या यादगार तोहफ़ा—बिना किनारी के कहाँ पूरी होती है रस्म?”
रेलवे, चिमन और पेठे की चाशनी:
आगरा फोर्ट स्टेशन—दुनिया का अकेला स्टेशन जो दो विश्व धरोहरों के बीच बसा है। अब मेट्रो रेल से भी जुड़ चुका है, जबकि bijlighar चौराहे का ‘बिजलीघर’ 1978 में बंद हो चुका है। सिर्फ रौनक है श्री राम पूरी भंडार जो रात दिन खुला रहता है। उधर स्टेशन के बाहर पान की मंडी, और चिमन पूरी वाले की खुशबू, सेठ गली के हलवाई और श्राद्ध पक्ष में इमरती-मालपुए की छनछनाहट। नूरी दरवाज़ा और गुड़ की मंडी से होते हुए पहुँचे पेठे के अड्डे तक। यहीं से पैदा हुआ वो चासनी में तर ताजा मीठा, “आगरा का पेठा” कहलाकर दुनिया भर में मशहूर हुआ।
ईसाई विरासत और बदलता शहर:
सेंट पैट्रिक जूनियर कॉलेज—एशिया का सबसे पुराना कॉन्वेंट 1842 में, बगल में प्रतिष्ठित 1846 में स्थापित सेंट पीटर्स कॉलेज। पास ही खड़े चर्च, आर्चबिशप हाउस और कैथेड्रल—अपनी नफ़ासत से दिल जीतते हैं। घाटिया आज़म से वज़ीरपुरा तक कैथोलिक तालीमी स्कूलों का जाल फैला है, जहाँ 20 हज़ार से अधिक बच्चे इल्म हासिल कर रहे हैं।
पुरानी जेल की जगह अब संजय प्लेस खड़ा है, एक चमचमाता कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स। मगर रास्ते में मिली हवेलियों की नक्काशीदार मेहराबें हमें रोक लेती हैं। ये दीवारें शहर के अतीत की गवाही देती हैं।
पत्थरों से आगे की विरासत:
आगरा तीन वक़्तों में एक साथ ज़िंदा है—मुग़ल, अंग्रेज़ी और आज़ाद भारत का दौर। मगर अफ़सोस यह है कि विरासत को सिर्फ पत्थरों और इमारतों तक सीमित कर दिया गया है।
असल धरोहर तो वो भी है—उर्दू अदब की दुनिया जहाँ ग़ालिब, नजीर अकबराबादी और मीर ने लफ़्ज़ों को अमर किया। वो भी है राधास्वामी का आध्यात्मिक धाम। वो भी है इनले वर्क, पच्चीकारी और जरदोज़ी के कारख़ाने, जहाँ कारीगर अपनी उँगलियों से पत्थरों को कविता बना देते हैं।
आगरा महज़ एक पत्थरों का शहर नहीं है। आगरा एक विचार है, एक तहज़ीब की विरासत है, एक मेल-जोल की कंपोज़िट संस्कृति का नाम है।
जब कोई सैलानी ताजमहल के सामने खड़ा होकर “वाह” कहता है, तो उसे यह भी जानना चाहिए कि उसी शहर की तंग गलियों में आज भी ग़ालिब की साँसें बसी हैं, मिठाइयों की भाप उड़ती है, मसालों की खुशबू लहराती है और मंदिर-मस्जिद-चर्च की घंटियाँ-अज़ानें एक साथ गूँजती हैं। यही है आगरा का असली जादू—एक जीती-जागती तहज़ीब, जिसे सिर्फ़ आँखों से नहीं, दिल से देखना पड़ता है।