आपातकाल की पृष्ठभूमि से हम सब अवगत हैं। तत्कालीन सरकार ने इमरजेंसी थोपी। इसके पीछे की वजह क्या बताई गई? इमरजेंसी इसलिए लगायी गयी, क्योंकि आंतरिक स्तर पर देश में तनाव और हिंसा का माहौल था। साथ ही यह भी कि देश को आर्थिक रूप से आगे बढ़ाने के लिए ऐसे कदम उठाये जाने जरूरी थे। ऐसे ही और भी कारण बताये गये थे, सरकार की ओर से।
पर, सच क्या था, इससे देश अवगत है। तत्कालीन प्रधानमंत्री की सदस्यता चुनाव में भ्रष्टाचार का आरोप साबित होने के बाद अदालत से खत्म कर दी गयी थी। इस खतरे से बचने और कुर्सी बचाये रखने के लिए ही आपातकाल लगा था। मंशा थी, कानून ही बदल दिया जाए। हुआ भी ऐसा ही था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 1971 के चुनाव में राय बरेली से श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनावी धांधली, सरकारी तंत्र के दुरूपयोग के चलते, निरस्त कर दिया था। इस आदेश को उच्चतम न्यायालय की अवकाश पीठ के सामने चुनौती दी गयी। श्रीमती गांधी की तरफ से पैरवी नानी पालखीवाला ने की। राजनारायण जी की ओर से शांति भूषण जी ने। उस समय भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल थे, फली नरीमन।
उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को उचित ठहराया। श्रीमती गांधी को फौरी राहत दी। कहा, वे प्रधानमंत्री रह सकती हैं। पर, संसद सदस्य नहीं। उल्लेखनीय है कि संविधान में ऐसी ही व्यवस्था है, महज छह महीने के लिए ही कोई गैर सदस्य, मंत्री रह सकता है। क्योंकि छह महीने के भीतर ही दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य बनना ही होता है। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले को ‘Humdrum case’ बताया। यानी यह कोई संवैधानिक बारीकी का मामला नहीं था। पर, इस फैसले से एक नये सियासी घटनाक्रम की शुरुआत हुई। इसने भारतीय संविधान के लिए गंभीर प्रश्न खड़े कर दिये।
एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति संविधान के दायरे में ही होती है। पर, क्या होगा यदि राजनीति निहित स्वार्थों के लिए संविधान को ही कुचलने लगे? ऐसी स्थिति किसी जागरूक मुल्क के लिए चिंताजनक होगी। पर, आपातकाल तो जन्मा ही संविधान को दरकिनार कर के। 25 जून, 1975 की आधी रात से चंद मिनटों पहले राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा की।
संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत। तब देश में पहले से ही आपातकाल लागू था। 3 दिसंबर, 1971 को भारत-पाक युद्ध के कारण देशव्यापी आपातकाल लागू कर दिया गया था। ऐसे में एक आपातकाल के रहते, क्या दूसरा आपातकाल लागू किया जा सकता है? यह अपने आप में असंवैधानिक स्थिति थी। तत्कालीन गृहमंत्री ने भी इस सवाल को उठाया। आपातकाल के लिए गृहमंत्री की संस्तुति जरूरी है। तत्कालीन गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी पर इसकी संस्तुति के लिए जबरन दस्तखत करने का दबाव डाला गया, ताकि राष्ट्रपति को वह भेजा जा सके। पर, असल मसला, तो आंतरिक सुरक्षा के लिए आपातकालीन अधिकारों को हथियाने का ही था। 1971 वाले आपातकाल से बात न बनती। आपातकाल में संविधान के साथ ये पहला खिलवाड़ था।
राष्ट्रपति द्वारा 25 तारीख की रात में आपातकाल की संस्तुति करने से पहले, संविधान के अनुच्छेद 352(3) के अनुसार कैबिनेट की बैठक नहीं की गई। राष्ट्रपति से अनुच्छेद 352(1) के अनुसार अपनी ‘स्व-संतुष्टि’ के आधार पर आपातकाल की अधिसूचना पर दस्तखत करने को कहा गया। राष्ट्रपति के तत्कालीन सचिव ने सही संवैधानिक स्थिति के विषय में उन्हें सलाह दी। बताया कैबिनेट की सिफारिश जरूरी है। ऐसे में राष्ट्रपति द्वारा ‘स्व-संतुष्टि’ के आधार पर निर्णय लेने की गुंजाइश ही नहीं है। बावजूद इसके राष्ट्रपति पर दबाव बनाया गया। आपातकाल की अधिसूचना पर दस्तखत करवाया गया।
उल्लेखनीय है कि महीने भर बाद ही 01 अगस्त, 1975 से 38वां संविधान संशोधन लागू किया गया। इसके तहत प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के संतुष्ट होने पर उनके द्वारा किये गए फैसलों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। आपातकाल की घोषणा के लिए राष्ट्रपति की संतुष्टि अंतिम मानी गई। यानी कैबिनेट से मंजूरी की संवैधानिक आवश्यकता ही खत्म कर दी गयी। ऐसे में राष्ट्रपति के निरंकुश होने की संभावना बढ़ी। ऐसे हालात में कैबिनेट कोई विचार करके किसी निर्णय पर कैसे पहुंचती, जब खुद गृहमंत्री ब्रहमानंद रेड्डी को ही आखिर तक अंधकार में रखा गया। उन्हें तो कुछ मालूम ही नहीं था।
जब आपातकाल लागू किया गया, उस समय गृह मंत्रालय या गुप्तचर एजेंसियों द्वारा आंतरिक अव्यवस्था की कोई रिपोर्ट नहीं दी गई थी। न ही गृह मंत्रालय की तरफ से ऐसे किसी आंतरिक उथल-पुथल (Internal Disturbance) से निपटने की कोई तैयारी की जा रही थी।
याद रखें, आपातकाल की घोषणा के लिए गृह मंत्रालय ही संबद्ध मंत्रालय होता है। पर, आपातकाल की घोषणा के पूरे घटनाक्रम में न तो गृह सचिव, न कैबिनेट सचिव, न प्रधानमंत्री के सचिव को ही संबद्ध किया गया। बस, प्रधानमंत्री के अपर निजी सचिव आर. के. धवन ही पूरी प्रक्रिया में शामिल थे। वही प्रधानमंत्री का संदेश ले कर राष्ट्रपति के पास गए।
यदि महात्मा गांधी साधन और साध्य, दोनों की शुचिता पर बल देते थे, तो आपातकाल के नवगांधीवादियों ने इस गांधी दर्शन को ही उलट दिया। हर गलत काम कागज़ पर सही तरीके से किया गया। फिर गलत उद्देश्य को भी कानूनी रूप से सही साबित करने की कोशिशें हुईं।
आपातकाल अपने आप में संविधान के लिए बड़ी चुनौती था। इसलिए तत्कालीन सरकार ने आपातकाल की आड़ में संविधान को ही बदलना शुरू कर दिया।
19 महीनों में संविधान, पांच बार बदला गया। इनमें से तीन संशोधनों में सत्ता के केन्द्रीकरण के प्रावधान शामिल किए गए। राजनीतिक सत्ता निरापद हो गयी। न्यायालयों के अधिकार सीमित कर दिये गए। नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर तो कुठाराघात ही हुआ। 1 अगस्त, 1975 से संविधान का 38वां संशोधन लागू हुआ। राष्ट्रपति व राज्यपालों को खुद संतुष्ट होने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार दे दिया गया। राष्ट्रपति का संतुष्ट होना, किसी अध्यादेश या आपातकाल लागू करने की आखिरी शर्त थी। इसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। 25 जून, 1975 को आपातकाल बिना कैबिनेट कि मंजूरी के महज प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति की ‘तथाकथित संतुष्टि’ के आधार पर ही लगवाया गया था। जबकि राष्ट्रपति के सचिव ने इसे संविधान के विरुद्ध माना था। उन्हें आगाह भी किया था।
नौ दिन बाद ही, 10 अगस्त 1975 को फिर से 39वां संशोधन लागू किया गया। इससे राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, स्पीकर के चुनावों को अदालतों में चुनौती नहीं दी सकती थी। बल्कि इनके लिए संसद एक अलग व्यवस्था करती।
18 दिसम्बर, 1976 को 42वां संशोधन लागू किया गया। इसके माध्यम से संविधान में व्यापक 59 परिवर्तन किए गए। संविधान के Preamble में ‘Secular’ और ‘socialist’ शब्द जोड़े गए। ‘देश की एकता’ के साथ ‘अखंडता’ को भी जोड़ा गया। सातवीं अनुसूची में संशोधन कर, शिक्षा, वन एवं पर्यावरण और न्याय सहित पांच विषयों को राज्य सूची से निकाल कर ‘Concurrent List’ में डाल दिया गया। आपातकालीन प्रावधानों के तहत केंद्र सरकार को राज्यों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए, केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को भेजने का अधिकार मिल गया। अनुच्छेद 51A जोड़ा गया। इसमें दस मौलिक कर्तव्य जोड़े गए।
अब राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह से बाध्य किया गया। जबकि एक साल पहले के 38वें संशोधन में राष्ट्रपति अपनी संतुष्टि पर ही फैसला ले सकते थे, जो कि अंतिम होता। बीते एक साल में यह सुनिश्चित कर लिया गया कि सत्ता, सरकार और पार्टी पर अब श्रीमती गांधी का पूरा अधिकार या वर्चस्व रहे। दूर-दूर तक उन्हें कोई चुनौती देने वाला नहीं था। इसलिए राष्ट्रपति से वैसे अधिकार वापस ले लिए गए, जो उन्हें 38वें संशोधन में दिये गए थे। राष्ट्रपति के अधिकारों की ऐसी अवमानना आपातकाल में ही संभव थी।
इतना ही नहीं राज्य के नीति—निर्देशक तत्वों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों से अधिक तरजीह दिये जाने की तैयारी थी। यानी नीति—निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए मौलिक हकों की बलि ली जा सकती थी। इस विषय में संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को अदालत में चुनौती भी नहीं दी जा सकती थी। साथ ही नीति निर्देशक तत्वों की संख्या भी बढ़ा दी गयी। आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये जाने थे। उच्च न्यायालयों के न्यायिक समीक्षा का अधिकार छीना गया।
पर, बात अभी खत्म नहीं हुई थी। यह तो वह था, जो दिख रहा था। पर, अंदरखाने कुछ और भी पक रहा था। वह कहीं ज्यादा गंभीर और दीर्घकालिक था। पर, आखिर वह क्या था! इस पर आपातकाल के बाद भी चर्चा नहीं हुई। हाल ही में आपातकाल पर आधुनिक राजनीति के प्रसिद्ध इतिहासकार श्रीनाथ राघवन की किताब आयी है। ‘इंदिरा गांधी एंड द इयर्स, दैट ट्रांसफार्म्ड इंडिया।’ इसमें तथ्यों के साथ उन्होंने विस्तार से बताया है। कैसे आपातकाल के दौरान भारत में संसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की तैयारी थी? संविधान परिवर्तन के इस प्रोजेक्ट का खाका तैयार करने का काम वरिष्ठ आईसीएस अधिकारी और लंदन में भारत के उच्चायुक्त बी.के. नेहरू कर रहे थे। राघवन ने अपनी किताब में इस विषय पर बी.के. नेहरू और इन्दिरा गांधी के बीच पत्राचार का उल्लेख किया है। जाहिर है कि बी.के. नेहरू ऐसी कोशिश, श्रीमती गांधी की जानकारी में और उनकी सहमति से ही कर रहे थे।
राघवन लिखते हैं कि इलाहबाद हाइकोर्ट के निर्णय के बाद तीन तरह के ग्रुप प्रधानमंत्री के समर्थन में आए। पहला ग्रुप वैसे ‘चापलूस’ लोगों का था, जो न्यायपालिका को उसकी हैसियत बताना चाहते थे। दूसरे, सरकार और पार्टी के वह नेता, जो संविधान को बदलने के संसद के अधिकार पर न्यायपालिका की अड़ंगेबाजी को समाप्त करना चाहते थे। तीसरे खेमे में नौकरशाह थे, सलाहकार। उन्हें सरकार चलाने का काफी अनुभव रहा था। अगस्त 1975 तक संविधान में बदलाव की जरूरत को ले कर तरह-तरह की चर्चाओं का बाजार गरम होने लगा था। 16 अगस्त, 1975 को ‘ब्लिट्ज’ के संपादक रूसी करंजिया को दिए अपने इंटरव्यू में श्रीमती गांधी ने स्पष्ट किया कि ‘मैं संविधान सभा या नये संविधान के बारे में नहीं सोच रही। पुनरावलोकन का मतलब वैकल्पिक संविधान नहीं है’ फिर भी ‘हमें हमारे उन प्रावधानों और प्रक्रियाओं को एक बार देखना चाहिए।’
टी.एन. कॉल अमरीका में भारत के राजदूत थे। श्रीमती गांधी के करीबी। उन्होंने 12 जुलाई, 1975 को श्रीमती गांधी को पत्र में लिखा कि भारत में संसद सिर्फ एक-एक महीने के बजट और शीत सत्र के लिए बैठे, बाकी साल भर संसद की विभिन्न कमेटियां ही समय-समय पर बैठकें करें। उनके हिसाब से यह एक विचारणीय प्रस्ताव था। इसके लिए संविधान संशोधन जरूरी भी हुआ, तो प्रधानमंत्री उसे पारित करवा ही लेंगी। उल्लेखनीय है कि ऐसा ही प्रस्ताव लोकसभा के तत्कालीन महासचिव श्री श्यामलाल शकधर (जो बाद में भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त भी बने), ने प्रधानमंत्री के सचिव श्री पी.एन. धर को दिया था।
ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त, बी.के. नेहरू आपातकाल के प्रबल समर्थक थे। जेपी और मोरारजी देसाई के कटु आलोचक। अपनी किताब, ‘नाइस गाइज फिनिश सेकेंड’ में उन्होंने बताया है कि वे पूरी तरह से आपातकाल का समर्थन करते थे। 9 सितंबर, 1975 को श्रीमती गांधी को भेजे गए अपने पत्र में वह लिखते हैं, ‘आपके मुश्किल फैसले ने तबाही की तरफ तेजी से बढ़ते देश को थाम लिया।’ उन्होंने आगे श्रीमती गांधी को सुझाव दिया कि ‘अब जबकि फौरी संकट टाल दिया गया है, तब आपके द्वारा शुरू की गई, इस क्रांति को संस्थागत बनाया जाना चाहिए।’
बी.के. नेहरू का मानना था कि ब्रिटिश वेस्टमिंस्टर मॉडल भारत की जरूरतों का प्रतिनिधित्व करने में नाकाम रहा है। इसमें नौकरशाही, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर हमेशा निर्भर रहती है, जो हमेशा लोकप्रियता के पीछे भागते रहते हैं। कड़े फैसले लेने से कतराते हैं।
बी.के. नेहरू के दिमाग में फ्रांस का ‘ फिफ्थ रिपब्लिक’ मॉडल था। 1958 में चार्ल डी गाल द्वारा समस्याग्रस्त और कमजोर ‘फोर्थ रिपब्लिक’ के तख्ता पलट के बाद इसे लागू किया गया था। इसमें राष्ट्रपति को सीधे जनता द्वारा चुना जाना था। बी.के. नेहरू के मॉडल में राष्ट्रपति, सात साल के सिर्फ एक टर्म के लिए चुना जाना था। संसद आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत चुनी जानी थी न कि वर्तमान ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ के सिस्टम के हिसाब से। मंत्री, सांसदों में से नहीं बल्कि राष्ट्रपति द्वारा चुने जाने थे। राज्यों के राज्यपाल भी केवल एक टर्म के लिए ही केंद्र के एजेंट के रूप में नियुक्त किए जाने थे। न्यायपालिका के लिए उन्होंने अमरीकी व्यवस्था अपनाने का सुझाव दिया। इसमें सुप्रीम कोर्ट के जजों को आजीवन के लिए नियुक्त किया जाना था। साथ ही वे न्यायपालिका की ‘रिट’ अधिकार को सीमित करना चाहते थे। उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि क्या मौलिक अधिकारों को ‘नॉन जस्टिसियेबल’ बनाया जा सकता है? यानी मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए अब न्यायालय का रास्ता बंद। मीडिया पर नियंत्रण के लिए उनकी राय थी। ‘दूसरे देशों की तरह यहां भी प्रेस कानून हों, ताकि प्रेस को अधिक जिम्मेदार बनाया जा सके।’
उन्होंने अवमानना कानूनों को और सख्त बनाने की सलाह दी। सरकार के खिलाफ अवमानना व नफरत फैलाने को और सख्ती से परिभाषित करने की जरूरत बताई। ताकि बिना किसी साक्ष्यों के किसी भी प्रेस रिपोर्ट या व्यक्तव्य के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की जा सके। बी. के. नेहरू ने संविधान, न्यायपालिका और प्रेस के संबंध में तीन कमीशन नियुक्त करने की सिफारिश की। इन्हें चार महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी। आगामी गर्मी में संसद इन सिफारिशों पर चर्चा करती। उसके बाद श्रीमती गांधी, संसद को भंग करके सितंबर-अक्टूबर, 1976 तक नए चुनाव करा सकती थी। उन्होंने श्रीमती गांधी से अपील की। कहा, ‘आज आपके पास संसद में दो तिहाई बहुमत है। ऐसे में आप संविधान में मूलभूत बदलाव कर सकती हैं। इनसे भी अधिक क्रांतिकारी कदम पहले भी उठा चुकी हैं’।
बी.के. नेहरू की इन सिफारिशों को प्रधानमंत्री के सचिव पी.एन. धर का पूरा समर्थन था। उनके अनुसार एक ही ‘राम बाण’ से कई समस्याओं का हल निकल रहा था। एक तो केंद्र और राज्य सरकारों में स्थायित्व सुनिश्चित होता। बेहतर लोग मंत्री बनते। उनकी गुणवक्ता सुधरती। कार्यपालिका को शक्ति मिलती। वह विकास के लिए कुछ कठोर कदम उठाने का साहस करती। इससे कानून का राज एक बार फिर से स्थापित होता।
श्रीमती गांधी को भी इन सिफारिशों से कोई परहेज नहीं था। उन्होंने लिखा भी, ‘भारत में जैसी अराजकता की स्थिति फैली हुई है, लगभग वैसी ही स्थिति 1958 के फ्रांस में भी थी जब डि गाल सत्ता में आए।’
अब सवाल था कि इन सिफारिशों पर पार्टी के भीतर और बाहर व्यापक सहमति कैसे बने? श्रीमती गांधी ने बी.के. नेहरू को राजनीतिक सहमति बनाने की अनुमति दी। पर, साथ ही यह शर्त भी लगाया। कहीं से भी यह न लगे कि इन सिफारिशों को प्रधानमंत्री की सहमति प्राप्त है।
बी. के. नेहरू, इन प्रस्तावों को लेकर पार्टी के तीन वरिष्ठ नेताओं, जगजीवन राम, वाई.बी. चौहान और सरदार स्वर्ण सिंह से मिले। तीनों का यही मत था कि यदि प्रधानमंत्री खुद चाहती हैं, तो वे भी इन सिफारिशों से सहमत हैं। इसके बाद बी.के. नेहरू, भारतीय लोक दल के एच.एम. पटेल से मिले। उन्हीं की तरह वह भी एक पुराने आईसीएस रह चुके थे। उनकी प्रतिक्रिया भी किसी नौकरशाह की तरह ‘उत्साहवर्धक और सकारात्मक’ थी। बी.के. नेहरू ने अपनी सिफारिशों को कुछ मुख्यमंत्रियों के साथ भी साझा किया। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि को इन सिफारिशों पर संशय था। पर, दूसरे गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुजरात के बाबूभाई पटेल ने उत्साहजनक समर्थन दिया। ‘भारतीय परिस्थितियों के लिए ऐसे संविधान से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता।’ पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह भी प्रधानमंत्री की हां में हां मिलाने को तैयार थे। संजय गांधी के चहेते हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल ने, तो यहां तक कह दिया ‘चुनावों की इस बेवकूफी को बंद करो और सिर्फ हमारी बहन (इंदिरा गांधी) को आजीवन के लिए राष्ट्रपति बना दो। और किसी चीज की जरूरत नहीं है।’ बी.के. नेहरू ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी। उन्होंने उसे कांग्रेस में अपने सलाहकारों की तिकड़ी—पार्टी अध्यक्ष डी.के. बरूआ, बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और कोषाध्यक्ष रजनी पटेल—को बढ़ा दिया। इस सलाहकार तिकड़ी ने एक पेपर लिखा, ‘अ फ्रेश लुक एट आवर कॉन्स्टिट्यूशन : सम सजेशन्स’, (इसे एजी नूरानी ने अपनी पुस्तक द प्रेसिडेंशियल सिस्टम्स : द इंडियन डिबेट’ के परिशिष्ठ में शामिल किया है)। इसमें देश के लिए राष्ट्रपति प्रणाली की सिफ़ारिश की गयी। इस व्यवस्था में राष्ट्रपति ही देश का कार्यकारी मुखिया होता। इसे सीधे जनता द्वारा छह वर्षों के लिए चुना जाता। पर, बी.के. नेहरू की सिफ़ारिश के विपरीत कांग्रेस की सलाहकार मंडली ने कार्यकाल की सीमा नहीं तय की। यानी राष्ट्रपति जितनी बार चुनाव लड़कर राष्ट्रपति बने रह सकते थे। मंत्रीमंडल के आधे सदस्य, संसद सदस्य होने थे। अतः अमरीकी प्रणाली की तरह कार्यपालिका और विधायिका अलग-अलग न होकर, राष्ट्रपति के इर्द-गिर्द रहते। न्यायपालिका पर भी राष्ट्रपति का पूरा अधिकार होता। सारे न्यायाधीश मंत्रीमंडल और राज्य सरकारों की सलाह पर राष्ट्रपति नियुक्त करते।
राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक ‘सुपिरियर काउंसिल ऑफ ज्यूडिश्यरी’ बनाई जानी थी, इसमें मुख्य न्यायाधीश और कानून मंत्री उपाध्यक्ष होते। सर्वोच्च और एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, चार सांसद और राष्ट्रपति द्वारा नामित चार अन्य सदस्य इसमें शामिल होते। यह कानून और संविधान की समीक्षा करती। किसी भी विधेयक की वैधानिकता पर फैसला करती। नजीर के लिए सलाहकारों की इस मंडली ने ग्रीक और ग्वाटेमाला के संविधानों से प्रेरणा ली थी।
जनता की प्रतिक्रिया जांचने के लिए देवकान्त बरुआ ने अपनी ये रिपोर्ट लीक कर दी। जाहिर था, मुल्क में नकारात्मक प्रतिक्रिया आयी। इंदिरा गांधी ने खुद को संविधान बदलने के इस प्रोजेक्ट से अलग कर लिया। हालांकि इन सभी रिपोर्टों को उनका आशीर्वाद प्राप्त था। सब कुछ उनकी जानकारी में, उन्हीं के चुने हुए सलाहकारों द्वारा किया जा रहा था।
फिर भी प्रयास जारी रहे। दिसंबर 1975 में कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में प्रस्ताव पेश किया गया। ‘हमारे संविधान की व्यापक समीक्षा की जाये, जिससे यह तय किया जा सके कि इसमें क्या व्यापक बदलाव किए जाएं, जिससे यह एक जीवंत दस्तावेज़ बना रहे।’ यह प्रस्ताव लाते हुए सिद्धार्थ शंकर रे ने आपातकाल को नैतिक, संवैधानिक और राजनीतिक रूप से न्यायोचित बताया। एक पहले से तैयार योजना के तहत श्रीमती गांधी ने ‘महानतापूर्वक’ संविधान में किसी व्यापक संशोधन की संभावना से इंकार किया। महज कुछ क़ानूनों में परिवर्तन की बात की। सिद्धार्थ शंकर रे ने भी सलाहकारों की तिकड़ी की रिपोर्ट (जिसके वे खुद सदस्य थे) को अफवाह कह कर खारिज कर दिया। फिर भी इस सालाना अधिवेशन में लाये उनके प्रस्ताव का मूल मकसद था कि ‘संसद जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। किसी भी अदालत को ‘तीसरे सदन’ की भूमिका अख़्तियार करने का अधिकार नहीं है।’ याद रखिए यह सब 1973 में केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित ‘बेसिक स्ट्र्क्चर डॉक्टरिन’ के परिप्रेक्ष्य में हो रहा था। इसने संविधान में संशोधन करने के संसद के अधिकारों को सीमित कर दिया था।
फरवरी 1976 में काँग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने संविधान में संशोधन के सवाल पर सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में, एक ग्यारह सदस्यीय समिति का गठन किया। इसमें सिद्धार्थ शंकर रे, अंतुले, रजनी पटेल, गोखले जैसे सदस्य भी थे। कमेटी की सिफ़ारिशों पर एआईसीसी द्वारा मई 1976 में चर्चा की गयी। वहाँ प्रस्ताव पेश करते हुए समिति अध्यक्ष सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा, ‘कांग्रेस ये स्पष्ट कर देना चाहती है कि संविधान संशोधन का एकमात्र अधिकार सिर्फ संसद में निहित है। अदालतों को संसद की सर्वोच्चता पर शक है कि कुछ विषय ऐसे हैं, जिन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह ‘बेसिक’ हैं। इसलिए कमेटी यह सिफ़ारिश करती है कि ‘संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधनों को अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।’
संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित क़ानूनों को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा तब तक असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कम से कम हाईकोर्ट में पांच और सुप्रीम कोर्ट में सात न्यायाधीशों की बेंच दो तिहाई (2/3) के बहुमत से निर्णय न दे। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की पूर्ति के लिए संसद और विधान सभाओं द्वारा पारित क़ानूनों को सिर्फ इसलिए चुनौती नहीं दी जा सकती कि मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। नीति निर्देशक तत्वों और मौलिक अधिकारों के बीच प्राथमिकता तय करना जरूरी है। इसी प्रस्ताव में संविधान की प्रस्तावना में ‘Secular’ और ‘Socialist’ शब्दों को जोड़ने की सिफ़ारिश की गयी। ‘नागरिकों के मूल कर्तव्यों’ को संविधान में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया।
स्वर्ण सिंह के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए सिद्धार्थ शंकर रे ने कहा कि दुनिया के किसी भी संविधान में ‘basic structure’ जैसी कोई चिड़िया नहीं होती, इसके बारे में कोई नहीं जानता। मौलिक अधिकारों के बारे में उन्होंने कहा कि दुनिया में कहीं भी मौलिक अधिकार स्थायी नहीं होते। अतः कोई कारण नहीं कि उनमें संशोधन नहीं किया जाये।
पहले की तरह इस बार भी श्रीमती गांधी ने अपने विश्वस्त सलाहकारों से इतर, ज्यादा उदारतापूर्ण रुख लिया। आश्वासन दिया कि सरकार संविधान के ‘basic structure’ को नहीं बदलेगी।
मई 1976 में प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद भी, कांग्रेस में ये यकीन दृढ़ होता रहा कि संसद में कांग्रेस को दो तिहाई (2/3) बहुमत दे कर जनता ने अपनी राय बता दी है। देवकांत बरुआ और सिद्धार्थ शंकर रे जैसे नेताओं का मानना था कि आपातकाल की उपलब्धियों को स्थायी बनाने के लिए संविधान में संरचनात्मक बदलाव की जरूरत है। ताकि सरकार को जनमत और जन आकांक्षाओं के अनुरूप काम करने से रोका न जा सके। अव्वल तो इसके लिए प्रधानमंत्री पर लगे बंधनों को यथासंभव हटाया जाए और दूसरे सरकार को न्यायिक हस्तक्षेपों से निरापद बनाया जाय। निःसंदेह यह निरंकुशता का फार्मूला था। इससे इंदिरा गांधी सहमत थीं। मई अधिवेशन के बाद बीच अगस्त 1976 तक स्वर्ण सिंह कमिटी ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। तब तक 42 वें संविधान संशोधन विधेयक का मसौदा भी तैयार था। 1 सितंबर, 1976 को 42वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में रखा गया। इसमें स्वर्ण सिंह कमिटी के प्रस्तावों के अलावा भी कई प्रावधान शामिल किए गए। इसके द्वारा संविधान के 59 प्रावधान बदले गए। नीति निर्देशक तत्वों की प्राप्ति के लिए संसद द्वारा बने क़ानूनों को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी गयी। इन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। आपातकालीन शक्तियों के तहत मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये गए। संवैधानिक अदालतों के अधिकार कम कर दिये गए, नागरिकों के मौलिक कर्तव्य जोड़े गए और नीति निर्देशक तत्वों की संख्या भी बढ़ाई गयी।
असल में आपातकाल कभी भी महज आंतरिक सुरक्षा के बारे में था ही नहीं। सच तो ये है कि आंतरिक सुरक्षा कभी मुद्दा रहा ही नहीं। बाद में शाह आयोग ने लिखा भी कि न तो गृह मंत्रालय की तरफ से ऐसी कोई तैयारी की जा रही थी और न ही गुप्तचर एजेंसियों की ऐसी कोई रिपोर्ट थी। न गृह मंत्री, गृह सचिव, कैबिनेट सचिव यहां तक कि प्रधानमंत्री के सचिव से आंतरिक सुरक्षा की असामान्य तैयारियों की कोई चर्चा नहीं की गई थी।
शुरू से ही आपातकाल का उद्देश्य, न्यायपालिका से निपटना और संसद की सत्ता के नाम तत्कालीन प्रधानमंत्री को निरंकुश बनाने के लिए संविधान को बदलना था। इस पूरे कालक्रम में संविधान में विधायिका और न्यायपालिका के बीच, जो महीन संतुलन बनाया गया था, उसे भारी नुकसान पहुंचा। आजादी के बाद और आपातकाल से पहले के तीन दशकों में भी अनेक अवसरों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच तनाव की स्थितियां पैदा की गईं। इसमें संसद को माध्यम या निमित्त मात्र बनाया गया। सत्तर के दशक में न्यायपालिका पर हावी होने के कोशिश की गई। पहले मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में दो बार हस्तक्षेप किया गया। फिर बाद में आपातकाल के दौरान संवैधानिक संशोधनों द्वारा, न्यायपालिका पर दबाव बनाने का स्थाई प्रावधान किया गया।
कहना न होगा कि कांग्रेस शासन में सरकार और न्यायपालिका के बीच संशय की खाई बढ़ती गई है। संसद तो निमित्त मात्र रही। और वह संशय आज भी बरकरार है। राज्य के दो प्रमुख स्तंभों के बीच ये संशय कांग्रेस सरकारों की देन है। आज भी वही असंतुलन की स्थिति बरकरार है। फर्क बस इतना है कि तब सरकार ने अदालतों पर हावी होने की कोशिश की, आज अदालतें अपनी स्वायत्तता को लेकर ज्यादा ही संवेदनशील हैं।
आज संसद द्वारा पारित विधेयकों को विपक्ष के ही सदस्य अदालत में चुनौती देते हैं। तब उन्हें संसद की सर्वोच्च्ता याद नहीं आती, जिसके लिए आपातकाल तक लगा दिया गया था। आपातकाल में भारतीय लोकतंत्र ने वह दिन भी देखे हैं, जब 42वें संशोधन से, संसद द्वारा पारित विधेयकों की वैधानिकता को चुनौती देने का हक ही छीन लिया गया था। ये संसद द्वारा ही पारित किया गया था। संसद पार्टी का एक विस्तार मात्र बन कर रह गई थी और पार्टी एक व्यक्ति का। आप दोनों स्थितियों की तुलना कर के देखिए।