बीते दस सालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के किसी बड़े अधिकारी को लेकर जितने तरह के विवाद खड़े करने के प्रयास किए गए। उसमें कोई एक अवसर नहीं मिलता, जहां संघ में बड़ी बेचैनी दिखी हो कि इस तरह के विवाद से संघ पर ‘स्वयंसेवकों’ का विश्वास कहीं कम होगा। हुआ उलटा, बीते सौ सालों में संघ पर जितना हमला हुआ, संघ उतना ही मजबूत हुआ है। बढ़ता गया।
हाल में जब आरएसएस के सबसे बड़े अधिकारी कार्यकर्ता ने जब मंदिर और मस्जिद पर एक बयान दिया तो सबसे अधिक ठेस उन्हें पहुंची जो संघ की एक छवि बनाकर बैठे हैं। उन्होंने तय किया हुआ है कि संघ को ऐसा ही होना चाहिए। जबकि जो नियमित शाखा जा रहे हैं, ऐसे स्वयंसेवकों से बातचीत से पता चलता है कि उनके मन में कोई शंका नहीं है। ना उस वक्तव्य पर कोई संदेह है। स्वयंसेवक पूछ रहे हैं कि क्या गलत कहा उन्होंने?
अब प्रश्न है कि इस वक्तव्य से सबसे अधिक परेशान कौन है? परेशान वे लोग हैं जिन्होंने बीते सौ सालों से प्रयासपूर्वक संघ की एक छवि बना रखी है। एक ऐसी छवि, जैसा संघ है नहीं। अब जैसा संघ है, वह संघ समाज के बीच जाना और पहचाना जा रहा है तो संघ का कुल जमा ज्ञान ‘बंच आफ थॉट्स’ से लेने वाला वर्ग विशेष बेचैन होगा ही।
बंच आफ थॉट्स 1966 में प्रकाशित हुई। जिसे गुरूजी ने लिखा नहीं है। उनके भाषणों का संकलन है। इसका अर्थ है कि उसमें 1966 से पूर्व में दिए गए भाषण शामिल किए गए हैं। अब संघ को जो लोग समझते हैं, वे बताते हैं। जब गुरूजी ने 1947 के आस पास के वर्षों में जो कहा, वह उस समय की आवश्यकता थी। आज जो भागवतजी कह रहे हैं, वह आज के भारत की आवश्यकता है। मतलब संघ में ठहराव नहीं है। वह संवाद और परिवर्तन के लिए सदा तैयार है।
यह जानना कई लोगों के लिए दिलचस्प होगा कि आज के समय में कई लोग जो रात—दिन संघ की आलोचना करते हैं। उनकी कट्टरता के लिए भी सवाल संघ से ही पूछा जाता है। यदि कोई व्यक्ति संघ के बताए रास्ते पर चल नही रहा, संघ की नीतियों पर उसका विश्वास ना हो फिर उसके द्वारा किए गए किसी व्यवहार के लिए संघ कैसे जिम्मेवार हो सकता है?
हार्पर कॉलिन से पिछले दिनों कुणाल पुरोहित की एक किताब आई, ‘H-Pop: The Secretive World of Hindutva Pop Stars’। कहने के लिए कुणाल हिन्दुत्व पर किताब लिख रहे थे लेकिन उनके निशाने पर आएसएस ही था। लेकिन उनकी केस स्टडी में कोई स्वयंसेवक नहीं था। वह इसलिए क्योंकि हार्पर से जिस तरह की सुपारी लेकर वे किताब लिखने निकले थे, वह स्वयंसेवकों पर केन्द्रित किताब लिखने से सधता नहीं।
कुछ सालों से हिन्दुत्व पर बोलने वालों की संख्या सोशल मीडिया पर अचानक बढ़ी है। यह अच्छी बात है कि इससे अलग—अलग मतों को अवसर मिल रहा है, अपनी बात रखने का लेकिन ऐसे सभी सोशल मीडिया विचारकों को संघ से जोर दिया जाता है। ऐसे में यह भी ठीक है कि संघ ने अपनी बात साफ शब्दों में समाज के बीच रख दी है। अब समाज को संघी और गैर संघी के बीच अंतर में करने में कठिनाई नहीं होगी।
शेष हिन्दु समाज की बात करने का अधिकार इस देश में रहने वाले 140 करोड़ लोगों को है। लेकिन हिन्दु समाज पर बात करने वाला एक—एक व्यक्ति संघी है। ऐसा नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में भी मराठी में दिए गए संघ के माननीय सरसंघचालक के वक्तव्य को देखना चाहिए।