शुरूआती जीवन – अजीमुल्ला खान
अजीमुल्ला खान 1857 के युद्ध के प्रमुख नायकों में से एक थे. इतिहास की अनेक पुस्तकों में उनके एक मुस्लिम पठान परिवार में पैदा होने का तो जिक्र है लेकिन उनका जन्म कब हुआ, इसे लेकर कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है. उनके जीवन की स्पष्ट जानकारी साल 1837-1938 में गंगा एवं यमुना के दोआब में पड़े भीषण अकाल के दौरान मिलती है, तब उन्हें और उनकी माँ को बचाकर कानपुर के एक अनाथालय में जगह दी गयी थी. उसके बाद, उनकी माँ वहां एक आया के रूप में काम करने लगी थी.
स्फूर्तिऔर आकर्षक व्यक्तित्व वाले अजीमुल्ला खान ने जीवन के शुरूआती दिनों में एक एंग्लो-इंडियन परिवार में खिदमतगार (नौकर) के तौर पर काम किया. उन्होंने कानपुर के ईसाई मिशनरी विद्यालय में 10 सालों तक पढाई कर इंग्लिश एवं फ्रेंच भाषा पर अच्छी पकड़ बना ली थी. बाद में, वे वही अध्यापन का कार्य करने लगे. दो साल बाद, वे ब्रिगेडियर स्कौट के साथ मुंशी के तौर पर जुड़ गए.
नाना साहब पेशवा से मुलाकात
कानपुर से लगभग 23 किलोमीटर दूर, बिठूर नाम का एक छोटा सा शहर मराठा पेशवाओं का गढ़ बना हुआ था. इसी शहर में पहली बार नाना पेशवा और अजीमुल्लाह की मुलाकात हुई. इस भेंट का वास्तविक प्रयोजन और दिनांक दोनों स्पष्ट नहीं है लेकिन पहली ही मुलाकात में युवा अजीमुल्लाह खान ने अपनी बुद्धिमानी और समझदारी की छाप पेशवा पर छोड़ दी थी. इसलिए पेशवा उन्हें वापस कानपुर नहीं जाने देना चाहते थे.जल्दी ही वे नाना पेशवा के करीबी सलाहकार बन गए.
वैसे इस मुलाकात का तार्किक कारण यह था किनाना पेशवा के पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध संघर्ष में समर्पण कर दिया था. बदले में उन्हें और उनके परिवार को कंपनी से आठ लाख रूपए की सालाना पेंशन दी जाती थी. 1 जून 1818 को संधि की शर्तों के अनुसार पेशवा को पूना छोड़कर बिठूर में रहने के लिए एक जागीर दी गयी. पेशवा की दो रानियाँ – मैना बाई और साई बाई थी, जिनसे उन्हें दो बेटियां – जोगा बाई और कुसुमा बाई का जन्म हुआ. एक पुत्र का जन्म भी हुआ लेकिन उसका बाल्यकाल में निधन हो गया. अपनी वंश परंपरा, आश्रितों की देखभाल और पेशवाई की गद्दी की सूनी होने की चिंता के चलते उन्होंने 1827 में तीन वर्ष के धोंडू पन्त (नाना साहब) को अपना दत्तक पुत्र बनाया. नानासाहब के अलावा उन्होंने सदाशिव राव (दादा साहब) और गंगाधर को भी पुत्र के रूप में और रावसाहब पांडुरंगवाह को पौत्र के रूप में गोद लिया था.
28 जनवरी 1851 को पेशवा बाजीराव ने अपने निधन से पहले ही नाना साहब को अपना ज्येष्ठ पुत्र मानते हुए उत्तराधिकारी एवं प्रतिनिधि घोषित कर दिया था. हालाँकि, कंपनी के तत्कालीन गवर्नर-जनरल, डलहौजी ने पेशवा बाजीराव को मिलने वाली पेंशन को नाना पेशवा को देने से इनकार कर दिया.
असल में तो कंपनी की नजर नाना साहब की जागीर को हड़पने पर थी. पेंशन न देने के लिए बहाने बनाए जाने लगे जैसे कि ‘पेशवा ने पहले ही बहुत सी धन-संपत्ति अर्जित की हुई है’. इस सन्दर्भ में इतिहासकार लिखते है, “The Court of Directors of theEast India Company were hard as a rock, and by no means to be moved to compassion.They had already expressed an opinion that the savings of the Peishwah were sufficient for the maintenance of his heirs, and dependents.”
बावजूद इसके, नाना ने पेंशन फिर से जारी करवाने के लिए कई असफल प्रयास किये. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक मेमोरियल भी भेजा, जिसका जवाब इस प्रकार था, “Inform the memorialist that the pension of his adoptive father wasnot hereditary, that he has no claim whatever to it, and that his application is wholly inadmissible.”
साल 1852 में उन्होंने रानी विक्टोरिया के लन्दन स्थित कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स में भी अपील की लेकिन समाधान नाना के पक्ष में नहीं आया. कुछ सालों तक लगातार कोशिश करने के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ. चूँकि, अजीमुल्लाह की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी, तो नाना पेशवा ने अपनी ओर से उन्हें लन्दन भेजा.उनके साथ मोहम्मद अली खान नाम का एक सहायक भी था.
लन्दन में अजीमुल्ला और रंगो बापूजी गुप्ते की मुलाकात
रंगो बापूजी गुप्ते का भी सम्बन्ध मराठाओं से था. दरअसल वे सतारा के छत्रपति के यहाँ काम करते थे. वे लन्दन में कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के समक्ष अपने छत्रपति का पक्ष रखने के सिलसिले में 1840 से वहां मौजूद थे. जब 1854 में अजीमुल्लाह कलकत्ता से लन्दन पहुंचे, तो उनकी मुलाकात रंगो बापूजी से हुई.
वीर सावरकर लिखते है, “Rango Bapuji and Azimullah Khan holding secret interviews with each other in some London rooms. Though history cannot record the exact conversation the Brahmin of Satara held with the Khan Sahib of Brahmavarta, still, it is as certain as anything can be that the map of the rising was being prepared by these two in London. After leaving London, Rango Bapuji went straight to Satara, but it was not possible for Azimullah Khan to go direct to Hindusthan.”
हालाँकि, इन मुलाकातों से यह स्पष्ट है कि दोनों ने भारत लौटने से पहले भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी से स्वतंत्र कराने का निश्चय कर लिया था. अंग्रेजों ने भी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखा है, “That the first year of Lord Canning’s administration found Rungo-Bapojee as active for evil in the South as Azim-oollah was in the North. Both able and unscrupulous men, and hating the English with a deadlier hatred for the very kindness that had been shown to them.”
साल 1856 तक दोनों भारत लौट लाये थे, रंगो बापूजी सीधे सतारा पहुंचे जबकि अजीमुल्ला टर्की, क्रीमिया एवं रूस होते हुए बिठूर लौटे.
रंगो बापूजीका व्यक्तित्व
“Able and energetic, he had pushed his suit with a laborious, untiring conscientiousness, rarely seen in a Native envoy; but though aided by much soundness of argument and much fluency of rhetoric expended by others than hired advocates.”
शुरूआती जीवन – रंगो बापूजी
रंगोजी के जन्म की निश्चित दिनांक उपलब्ध नहीं है. उनके पिता, मावल इलाके के कारी गाँव (वर्तमान पुणे शहर की भोर तहसील में स्थित) से थे. वेसतारा के छत्रपति, प्रताप सिंह के यहाँ काम करते थे. साल 1836 में छत्रपति ने उन्हें बम्बई का अपना प्रतिनिधि बनाया था.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने सतारा को हथियाने के लिए प्रताप सिंह को 1839 में गद्दी से हटाकर उनकी शक्तियों और व्यक्तिगत संपत्ति को छीन लिया. बदले में उन्हें निर्वासित कर बनारस में कैद कर दिया गया. भरण-पोषण के लिए 10 हजार रुपए महीने का एक निश्चित भत्ता दिया जाने लगा, जबकि सतारा के राजा रहते हुए उनकी कमाई 30 लाख रुपए थी.
रंगो बापूजी की लन्दन यात्रा
महाराजा का पक्ष रंगो बापूजी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के समक्ष रखा. वे 30 जून 1840 को लन्दन पहुंचे थे. जब वे लन्दन में थे, इसी बीच प्रताप सिंह का 14 अक्टूबर 1847 को निधन हो गया. अतः 4 जून 1850 कोगवर्नर-जनरल डलहौजी ने सतारा की महारानी को उनके राज्य के अपने दावों को त्यागने के लिए मजबूर कर दिया और सतारा पर कब्जा कर लिया.
परिणामस्वरुप, 1854 में वे भारत लौट आए. हालाँकि, जिस उद्देश्य से वे वहां गए थे वह सफल नही हुआ क्योंकि कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने प्रताप सिंह को उनकी संपत्ति और गद्दी दोनों न लौटने का फैसला कर लिया था.
अजीमुल्ला की विदेश यात्रा
अजीमुल्ला खानभीरंगो बापूजी गुप्ते की तरह एक ही उद्देश्य के लिए लन्दन आये थे, और उन्हें भी असफलता मिली. वे दो साल लन्दन में रहे लेकिन कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने नाना पेशवा की पेंशन न देने का मन बना लिया था. अजीमुल्लाह ने उसे फिर से शुरू करवाने की बहुत कोशिश की, रानी विक्टोरिया से मिले, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ.
इस दौरान, लन्दन में उनकी एक भारतीय राजकुमार के रूप में ख्याति हो गयी थी. अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का ज्ञान होने के कारण महिलाओं में बहुत घुल-मिल गए. ठीक इसी समय यूरोप में क्रीमिया युद्ध शुरू हो गया. अंग्रेजी और फ़्रांसिसी सेनाओं ने रूस सैनिकों से टक्कर ली. अतंतः रूस की विजय हो गयी. अजीमुल्लाह खान को आभास हुआ कि अगर रूस ब्रिटेन को हरा सकता है तो ऐसा ही कुछ भारत में ही किया जा सकता है. इसलिए उन्होंने रूस की तैयारियों का जायजा लेने का मन बना लिया. वे उन ‘रुसी रुस्तमों’ को देखना चाहते थे, जिन्होंने अंग्रेजों को परस्त कर दिया था.
भारत लौटने से पहले, वे फ्रांस और इटली होते हुए टर्की गए और वहां से क्रीमिया युद्ध के मोर्चे पर पहुंचे. अजीमुल्ला को रूस की जीत की खबर 18 जून 1855 को माल्टा में मिली और वही से वे Constantinople (वर्तमान इस्तांबुल शहर) जाने की तैयारी कर रहे थे.उन्होंने टर्की के खलीफा उमर पाशा को भी पत्र लिखे. उनकी इस यात्रा में उन्हें डोयन और डब्लू. एच. रसेल नाम के दो व्यक्तियों का सहयोग मिला. रसेल उस दौरान, लन्दन टाइम्स समाचारपत्र के विशेष संवाददाता थे. उन्होंने अपनी पुस्तक में अजीमुल्लाह की यात्रा का वर्णन दिया है.
रूस जाने का रसेल से जिक्र : “[I] want to see this famous city, and those great Roostums, the Russians, who have beatenFrench and English together.”
अतः वे रसेल की सहयता से क्रीमिया में बाल्कलवा की उन खाड़ियों तक पहुँच गए जहाँ से रुसी तोपों की गोलाबारी दिखाई दे सकती थी. रसेल उस समय युद्ध के मोर्चे पर ही थी. दोनों पहले भी एकबार किसी होटल कें मिल चुके थे. इस यात्रा की पृष्ठभूमि पर रसेल लिखते है, “अजीमुल्ला के साथ पहली मुलाकात के बाद कई हफ़्तों तक वे उनसे नहीं मिले, तभी एक व्यक्ति मेरे शिविर में डोयन के एक पत्र के साथ आया. उन्होंने अपने मित्र अजीमुल्ला की सहायता के लिए मेरे से सिफारिश की थी.”
रसेल और अजीमुल्ला की बातचीत का विवरण : “I found Azimoola had retreated inside the cemetery, and was looking with marked interest at the fire of the Russian guns. I told him what he was to do, and regretted my inability to accompany him, as I was going out to dinner at a mess in theLight Division. “Oh,” said he, “this is a beautiful place to see from; I can see everything, and, as it is late, I will ask you to come some other day, and will watch here till it is time to go home.” He said, laughingly, “I think you will never take that strong place;” and in reply to me, when I asked him to come to dine with me at my friend’s, where I was sure he would be welcome, he said, with a kind of sneer, “Thank you, but recollect I am a good Mahomedan!” “But,” said I, “you dined at Missirie’s?” “Oh, yes: I was joking. I am not such a fool as to believe in these foolish things. I am of no religion.” When I came home that night I found he was asleep in my camp-bed, and my servant told me he had enjoyed my stores very freely. In the morning he was up and off, ere I was awake. On my table I found a piece of paper – “Azimoola Khan Presents his compliments to Russell, Esquire, and begs to thank him most truly for his kind attentions, for which I am most obliged.”
रसेल के शिविर में एक रात रूककर अजीमुल्ला भारत लौट आये और नाना साहब को अपने प्रयासों, विफलताओं और साहसी यात्राओं का विवरण दिया. इस विदेश यात्रा द्वारा अजीमुल्ला को अंग्रेजों की वास्तविक हालत, ढोल की पोल, तथा स्वतंत्र जीवन का आभास मिला गया. यही से 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी थी.
अजीमुल्ला का व्यक्तित्व
“A handsome slim young man, of dark-olive complexion, dressed in an Oriental costume which was new to me, and covered with rings and finery. He spoke French and English, dined at the table d’hote, and, as far as I could make out, was an Indian prince, who was on his way back from the prosecution of an unsuccessful claim against the East India Company in London.”
भारत में स्वतंत्रता संग्राम में अजीमुल्ला का योगदान
सबसे पहले, अजीमुल्ला ने नाना साहब के नाम से देशभर के हिन्दू और मुसलमान राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए पत्र लिखवाये. यह सभी पत्र उन्होंने अपने विश्वस्त प्रतिनिधियों के माध्यम से भारत के सभी राजाओं को भेजे.
वीर सावरकर लिखते है, “The broad features of the policy of Nana Sahib and Azimullah was that the Hindus and the Mahomedans should unite and fight shoulder to shoulder for the independence of their country and that, when freedom was gained, the United States of India should be formed under the Indian rulers and princes.”
साल 1856 में ‘Payam-e-Azadi’ नाम से अजीमुल्ला ने एक पत्रिका का शुरू की. जिसमे क्रन्तिकारी गतिविधियों से सम्बंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज एवं तथ्य उपलब्ध रहते थे.
मार्च 1857 में दोनों ने मिलकर कई धार्मिक स्थानों के गुप्त दौरे किये.अप्रैल के अंत में, नाना साहब और अजीमुल्ला स्वतंत्रता संग्राम में जरुरी एकजुटता लाने के लिए उत्तरी भारत के सभी प्रमुख शहरों की यात्रा कर चुके थे. अब वे सही समय का इंतजार कर रहे थे.
तभी अचानक मेरठ में सिपाहियों द्वारा दिल्ली कूच कर दिया गया. नाना साहब और अजीमुल्ला दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम को सफलता दिलाने के उद्देश्य से हरसंभव प्रयास करने शुरू कर दिए. वीर सावरकार अपनी पुस्तक में उन दिनों का एक उदाहरण पेश करते हुए लिखते है, “On the evening of the 1st of June, Nana Sahib, accompanied by his brother Bala Sahib and his minister Azimullah Khan, came down to the banks of the sacred Ganges. There stood Subahdar Tikka Singh and the heads of the Secret Society awaiting him. The whole company then got into a boat. They entered the fair waters of the holy Ganges; everyone there took an oath, with the water of the Ganges in his hands that he would participate in the bloody war for his country’s liberty.”
कानपुर में एक युद्ध के दौरान नानाजी पेशवा और अजीमुल्ला के नेतृत्व में कंपनी को हार स्वीकार करनी पड़ गयी थी. कंपनी के सैनिक बुरी तरह से घिर गए और उन्होंने संधि का प्रस्ताव भेजा. मराठाओं ने कई अंग्रेजों को जेलों में कैद कर लिया था. संधि के लिए नाना ने जेल में कैद एक महिला अंग्रेज को जनरल व्हीलर के पास क्विन विक्टोरिया की जनता को सम्बंधित करते हुए एक सन्देश भेजा, “जिनका डलहौजी की नीतियों से सम्बन्ध नहीं है और जो हथियार समर्पण करना कहते है उन्हें सुरक्षित इलाहबाद पहुंचा दिया जायेगा.” यह सन्देश अजीमुल्ला द्वारा ही लिखा गया था.
इस सन्देश के बाद, व्हीलर ने कैप्टन मुर और व्हिटिंग को विचार करने के लिए कहा. दोनों अधिकारियों ने आत्मसमर्पण का निश्चय किया और अगले दिन नाना पेशवा की तरफ से ज्वाला प्रसाद और अजीमुल्ला खान; कंपनी की तरफ से मूर, व्हिटिंग और रोचे मिले. कंपनी ने अपनी सभी तोपें और हथियार नाना को सौंप दिए और उन्हें भोजन उपलब्ध कराकर इलाहबाद भेज दिया.
भारत में स्वतंत्रता संग्राम में रंगो बापूजी का योगदान
रंगोजी भी नाना साहब के भी लगातार संपर्क में थे.[43] लगभग एक वर्ष तक उन्होंने उत्तर भारत का दौरा किया. 1855 में, कानपुर मेंउनकी मुलाकात तात्या टोपे से हुई, और दोनों ने नाना साहब पेशवा के साथ बिठूर में एक सम्मेलन में भी हिस्सा लिया. सतारा वापस लौटकर उन्होंने ब्रिटिश विरोधी तत्वों को संगठित करने की कोशिश शुरू कर दी.
30 जून 1857 से कुछ दिनों पहले सतारा किले के पीछे परली नाम के स्थानपर एक डाका डाला गया. इसके पीछे बड़ी संख्या वाले एक गिरोह का हाथ था जोकि आसपास के जंगलों से एकत्रित हुए थे. पड़ताल करने पर पता चला कि इस गिरोह के मुखिया रंगो बापूजी गुप्ते थे.
इस गिरोह का उद्देश्य था कि सतारा पर हमले के साथ-साथ यावातेश्वर, और महाबलेश्वर में सभी यूरोपियन की हत्या करना और खजाने को लूटना. इसकी तैयारियां जनवरी 1857 से ही शुरू हो गयी थी. हमले के लिए हथियारों को इक्कठा करना भी शुरू हो गया था. सतारा के एक ही घर में 820 बुलेट्स मिली. कुछ दस्तावेजों के अनुसार लगभग 2000 लोगों की एक छोटी सेना भी तैयार हो चुकी थी और जेल में कैद 300 लोगों को भी शामिल करवाने की योजना बन चुकी थी. भारी मात्रा में हथियार जमा होने शुरू हो गए थे. प्रताप सिंह के दत्तक पुत्र, साहू और उनके सेनापति का दत्तक पुत्र, दुर्गा सिंह जैसे युवाओं को सेना का नेतृत्व दिया गया. स्थानीय पुलिस के मुखिया अन्ताजी राजे शिर्के (बाबासाहब) ने भी अपने माध्यम से पुलिस को एकदम निष्क्रिय कर दिया था. बेलगाँव और कोल्हापुर से भी हजारों की संख्या में लोगों को सतारा लाने के लिए रंगो बापूजी ने व्यवस्था कर ली थी.
तभी उनके एक सहयोगी कृष्ण राव सदाशिव सिंदकर के विश्वासघात कर इन सभी तैयारियों की जानकारी कंपनी को दे दी. परिणामस्वरूप जुलाई 1857 में कई लोगों को गिरफ्तार कर ग्वालियर में कैद कर दिया गया. अतः सतारा षड़यंत्र का आरोप लगाकर 17 लोगों को 8 सितंबर 1857 को फांसी पर लटका दिया गया था, जिसमें रंगो बापूजी का बेटा सीतारामऔर साला केशव नीलकंठ चित्रेशामिल थे. हालाँकि रंगो बापूजी स्वयं कंपनी की जेल से भागने में सफल हो गए थे.
अजीमुल्ला खान और रंगो बापूजी का निधन
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, अजीमुल्ला और नाना साहब नेपाल चले गए और वही 1859 में बिमारी से अजीमुल्ला का निधन हो गया. रंगो बापूजी 1857 के बाद से गायब हो गए और कब निधन हुआ इसकी कोई तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध नहीं है.