अंबानी बनाम अरामको: तेल की जंग- सऊदी अरब- ट्रंप की परेशानी

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अनुराग पुनेठा

दिल्ली । साल 2021 में सऊदी अरब की तेल कंपनी अरामको और भारत के रिलायंस जामनगर रिफ़ाइनरी के बीच एक ऐतिहासिक समझौते की तैयारी थी। दो साल से बात चल रही थी, योजना थी कि अरामको जामनगर की फैक्ट्री में 20% हिस्सेदारी खरीदेगा। लेकिन बातचीत कीमत पर आकर अटक गई। यह डील नहीं हो सकी। देखने में तो यह एक साधारण बिज़नेस नेगोशिएशन था, जो हत्थे नही चढा, लेकिन असली कहानी यहीं से शुरू होती है।
2022 आते-आते रूस–यूक्रेन युद्ध छिड़ गया। पश्चिमी देशों ने रूस पर कड़े Sanctions ठोक दिये, । नतीजा -रूस ने भारत को सस्ते दामों पर तेल बेचना शुरू किया। अंबानी ने इस मौके को भांपा और रूस से बड़ी मात्रा में तेल खरीदना शुरू किया। जो मिडल ईस्ट की सप्लाई से 6–से 12 डालर प्रति बैरल सस्ता था।

पहले जहाँ रिलायंस की तेल खपत में रूसी हिस्सा मामूली था, लगभग 1%, धीरे-धीरे यह बढ़कर 35% से 50% तक पहुँच गया। इसके उलट, सऊदी अरब से खरीदे जाने वाले तेल का हिस्सा जो पहले करीब 35% था, घटकर केवल 11% रह गया।

यानी भारत, जो कभी सऊदी अरब का सबसे स्थिर ग्राहक माना जाता था, अचानक रूस की ओर झुक गया। सऊदी अरब को न केवल भारत का तेल बाज़ार खोना पड़ा, बल्कि उसका यूरोप में भी बड़ा नुकसान हुआ।

दरअसल, जामनगर की रिफ़ाइनरी ने रूसी कच्चे तेल को प्रोसेस करके उच्च गुणवत्ता का फ्यूल तैयार किया और उसे यूरोप को बेचने लगी। यूरोपीय कंपनियाँ यह ईंधन इसलिए ख़रीद रही थीं क्योंकि यह सऊदी तेल से सस्ता था, नतीजा यह हुआ कि अंबानी को डबल मुनाफ़ा मिलने लगा—एक तो रूस से सस्ते दाम पर कच्चा तेल और दूसरा रिफ़ाइंड फ्यूल यूरोप को बेचकर बाज़ार कीमत वसूलना. व्यापार के हिसाब से यह उचित कदम है, लेकिन अरामको और अमेरिका को यह पंसद नही आया, यह उस समय हुआ जब सऊदी अमेरिका से रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहा था, और भारत–रूस के रिश्ते यूरोप में उसकी पोज़िशन कमज़ोर कर रहे थे।

यहीं से असली ‘गेम’ शुरू होता है। अमेरिका, जो पहले भारत द्वारा रूस से तेल ख़रीदने को लेकर सहज था, अब असहज दिखने लगा। जबकि सच यह है कि ट्रंप प्रशासन और उसके बाद बाइडन प्रशासन ने शुरुआती दौर में भारत की इस रणनीति की तारीफ़ भी की थी कि भारत ने वैश्विक ऊर्जा बाज़ार को स्थिर रखने में भूमिका निभाई।

लेकिन 2024 के बाद तस्वीर बदलने लगी। अमेरिका और सऊदी अरब को महसूस हुआ कि भारत की यह ऊर्जा रणनीति न केवल उनकी पकड़ ढीली कर रही है, बल्कि दुनिया में तेल के भू-राजनीतिक समीकरण भी बदल रही है।

क्राउन प्रिंस MBS (मोहम्मद बिन सलमान) ने अमेरिका से $1 ट्रिलियन निवेश का वादा किया। अरामको और PIF (यासिर अल-रुमैयान) ने 2021 में जारेड कुश्नर के प्राइवेट इक्विटी फंड में $2 बिलियन लगाए, ताकि ट्रंप खेमे में सीधी पहुँच मिले।

वहाबी ऑयल लॉबी वॉशिंगटन में दबाव बनाने के लिए पूरी ताक़त से काम कर रही है।

भारत के रूसी तेल सौदे को डॉलर सिस्टम की सुरक्षा और अमेरिकी हित के नाम पर चुनौती दी जा रही है।

एक और काम हुआ है, भारत और रूस के बीच व्यापार का बड़ा हिस्सा अब डॉलर से बाहर हो रहा है—भुगतान रुपये, दिरहम या युआन में हो रहा है। यह डॉलर प्रभुत्व पर सीधा हमला है, जिसे वॉशिंगटन “अक्षम्य अपराध” मान रहा है। याद कीजिये ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान ट्रंप का बयान याद कीजिये, “यह विचार कि ब्रिक्स देश डॉलर से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि हम चुपचाप खड़े होकर देख रहे हैं, अब खत्म हो चुका है। हम इन देशों से एक प्रतिबद्धता की मांग करने जा रहे हैं कि वे न तो कोई नई ब्रिक्स मुद्रा बनाएंगे, और न ही ताकतवर अमेरिकी डॉलर को बदलने के लिए किसी अन्य मुद्रा का समर्थन करेंगे, अन्यथा उन्हें 100% टैरिफ का सामना करना पड़ेगा, और उन्हें शानदार अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपना माल बेचना बंद करना पड़ेगा। वे किसी और कमजोर राष्ट्र को खोज सकते हैं। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय व्यापार या कहीं भी अमेरिकी डॉलर की जगह ले पाएगा, और जो भी देश ऐसा करने की कोशिश करेगा, उसे टैरिफ का स्वागत करना चाहिए, और अमेरिका को अलविदा कहना चाहिए”

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