‘अम्बेडकर और गाँधी’ नाटक की बेहतरीन प्रस्तुति पर एक नातिदीर्घ टिप्पणी

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अनिल अनलहतु

अरविंद गौड़ निर्देशित नाटक ‘अंबेडकर और गाँधी’ का मंचन श्रीराम सेंटर में देखा और अभिभूत हो गया, इतना पावर पैक्ड और दमदार प्रस्तुति कि दर्शक सांस रोके देखते रहे।

खचाखच भरे सभागार में तिल धरने की जगह नहीं थी लेकिन फिर भी पिन ड्रॉप साइलेंस। यह एक गंभीर विमर्शात्मक नाटक था, जिसमें थॉट प्रोवोकिंग संवाद थे और नाटकीय तनाव अपने चरम पर था। मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि इस तरह के विमर्श मूलक बौद्धिक नाटक के मंचन में भी सभागार हाउस फूल रहेगा क्योंकि इस नाटक में घटनाएँ या इवेंट्स नहीं के बराबर थे और न ही किसी अतिनाटकीयता की कहीं कोई गुंजाइश थी। फिर भी सभागार का यूं खचाखच भरा रहना और दर्शकों का ऐसा जुड़ाव और स्नेह ! मैं सोचने लगा कि आखिर अरविंद गौड़ के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो हर तरह के दर्शक से अपना संबंध बना लेता है? एलिट वर्ग से लेकर श्रमजीवी वर्ग तक का दर्शक उनसे और उनके नाटकों से बड़ी सहजता के साथ कनेक्ट कर लेता है। तो वह है अरविंद गौड़ का पारदर्शी व्यक्तित्व जिसमें से आप पारदर्शक शीशे की भांति आर-पार देख सकते हैं। उनके पास छुपाने को कुछ नहीं है और न छुपाने का कोई कारण। उनका व्यक्तित्व और ज़िंदगी खुली किताब की तरह है जिसे हर कोई पढ़ सकता है। जैसा मैंने पहले भी कहा है नाटक का मंचन प्रथमत: और अंतत: निर्देशक की अभिव्यक्ति का माध्यम होता है जैसे कविता कवि का और कहानी कहानीकार का। एक निर्देशक अपनी भीतरी बेचैनी, पीड़ा, दुख, अवसाद और यंत्रणा को नाटक के मंचन के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, इसीलिए यद्यपि नाटक का लेखक कोई और होता है किन्तु नाटक का मंचन लेखक का न होकर निर्देशक का होता है।

रचना की अपनी स्वायत्त भूमि होती है, जो प्रकाशित होते ही रचनाकार के प्रभाव क्षेत्र से बाहर हो जाती है । इसीलिए एक समर्थ निर्देशक जब किसी रचना का मंचन करता है तो वह मूल रचना की पृष्ठभूमि पर एक दूसरी स्वतंत्र कृति रच रहा होता है । इसीलिए एक ही रचना या कृति का अलग अलग निर्देशकों द्वारा भिन्न-भिन्न मंचन होता है। दरअसल किसी नाट्यकृति का मंचन अपने –आप में एक अलग और स्वतंत्र रचना होती है जो यद्यपि मूल रचना पर आधारित होती है किन्तु साथ ही उससे मुक्त भी होती है । इन मायनों में देखें तो नाटक का मंचन एक रचना की पुनर्रचना सदृश होता है और जो पूरी तरह से निर्देशक पर निर्भर करता है क्योंकि अभिव्यक्ति का माध्यम बदलते ही रचना का स्वरूप भी बदल जाता है। इसीलिए राजेश कुमार का लिखा नाटक “अंबेडकर और गाँधी” को जब आप अरविंद गौड़ के मंचन में देखते हैं तो आप राजेश कुमार का नहीं बल्कि अरविंद गौड़ का नाटक देखते हैं।

हर अभिव्यक्ति के माध्यम की एक सत्ता होती है। जब एक अनुवादक एक रचना को एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद कर रहा होता है तो वह वस्तुत: दूसरी भाषा में एक नई रचना रच रहा होता है, बहुत संभव है कि वह पहली भाषा में रची गई मूल रचना से अपने फॉर्म और कंटेन्ट दोनों में ही भिन्न हो। यही नहीं बहुत बार प्रूफ रीडर तक रचना को बदल देते हैं।
बहरहाल अब आते हैं इस नाटक के मंचन पर । एक बेहतरीन और कसी हुई चुस्त प्रस्तुति ने मन मोह लिया। कुछ नाटक ऐसे होते हैं जिन्हें आप देखते हैं, उन्हें एंजॉय करते हैं और सभागार से बाहर निकलते ही भूल जाते हैं। ऐसे नाटकों की यात्रा सभागार तक की ही होती है।

सभागार से बाहर निकले ही उनकी यात्रा खत्म हो जाती है और दर्शकों के मन-मस्तिष्क से वे उतर जाते हैं। लेकिन कुछ नाटक ऐसे भी होते हैं जिनकी यात्रा सभागार के बाद खत्म नहीं होती बल्कि जारी रहती है, जो आपके साथ-साथ आपके घर तक पहुँचते हैं , जो आपके स्वप्न और अवचेतन तक पहुँच जाते हैं। ऐसे नाटक आपको परेशान करते हैं, बेचैन करते हैं,आपकी सोच को बदल देते हैं और अंतत: आपके व्यक्तित्व का परिमार्जन करते हैं। कहना न होगा कि यह नाटक ऐसा ही है जिसे देखने के बाद दलित समुदाय के प्रति आपकी सोच ही नहीं बदल जाती है बल्कि आप भी बदल जाते हैं।गांधी और अम्बेडकर के प्रति आपकी धारणा और विचार भी बदल जाते हैं। आपके बहुत सारे पूर्वग्रह टूटते हैं। गाँधी और अम्बेडकर को आप एक नए नज़रिये से देखने लगते हैं। इस नाटक की प्रस्तुति महज मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि मनोमार्जन के लिए भी है। अरविंद गौड़ का जैसा अपना पारदर्शक व्यक्तित्व है वैसा ही यह नाटक भी अपने कथ्य में बिलकुल पारदर्शक है।कहीं कोई उलझाव या एम्बीगुइटी नहीं है। निर्देशक का लोकेशन(Location) और गेज (Gaze) बहुत ही स्पष्ट और क्लियर है। कहना न होगा कि इस मंचन में निर्देशक का लोकेशन बाबा साहब अम्बेडकर के साथ है और उसका गेज (Gaze) गाँधी पर है। पूरे नाटक के दरम्यान निर्देशक लगातार अम्बेडकर के साथ बना रहता है और उसकी नज़र (Gaze) गाँधी जी की गतिविधियों पर रहती है। यह निर्देशक का च्वाइस होता है कि वह अपनी लोकेशन तय करे, कि वह किस पात्र के साथ रहे और उसकी दृष्टि किसपर रहे। निर्देशक के चयन की यह आज़ादी ही नाटक को निर्देशक की सोच के मुताबिक मोड़ देती है। यह नाटक गाँधी जी और अंबेडकर के हिन्दू समाज में मौजूद अस्पृश्यता, वर्ण-व्यवस्था और जातिगत शोषण जैसे विषयों पर डिस्कशन है, वाद-विवाद और संवाद की स्थितियाँ हैं। यहाँ गाँधी की तुलना में अम्बेडकर कहीं अधिक प्रगतिशील और आधुनिक दिख पड़ते हैं। इतिहास की पुस्तकों में ( जो ज़ाहिरन कांग्रेसी इतिहास है ) गाँधी जी और अम्बेडकर के इस विवाद को ज्यादा तरजीह नहीं दी गई है , हाँ इतिहास में गाँधी जी के उपवास और पूना पैक्ट की चर्चा अवश्य है। इस नाटक को देखकर अम्बेडकर के बारे में प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियाँ और पूर्वग्रह दूर होते हैं ।गाँधी और महामना मालवीय जी की भाषा जहां मैनीपुलेटिव और चतुराई से भरी हुई है वहीं अम्बेडकर की भाषा स्ट्रेट फॉरवर्ड और सीधी है इसीलिए अम्बेडकर की भाषा तीखी और तिक्त है । यह नाटक इसके पीछे की वजहें भी बताता है । अम्बेडकर का जीवन जिन कड़वे और अपमानजनक स्थितियों से गुज़रा था उसने उनके भीतर इस जातिवादी और छुआछूत मानने वाले समाज के प्रति गुस्सा और कड़वाहट से भर दिया था। अम्बेडकर गाँधी को अपने जीवन की इन त्रासद और अपमान जनक स्थितियों को बताते हैं। यह नाटक गाँधी जी के दलित प्रेम की कलई खोल देता है । आम तौर पर भारतीय यह मानते हैं कि गाँधी दलितों और अल्पसंख्यकों के पक्षधर रहे हैं।लेकिन यह नाटक हमें अम्बेडकर की नज़रों से गांधी और कांग्रेस के दलित प्रेम के छद्म को अनावृत कर उसकी सच्चाई सामने ला देता है। अम्बेडकर से संवाद के दरम्यान ही हमे यह पता चलता है कि गाँधी जी वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषक थे और उसी व्यवस्था के भीतर अस्पृश्यता का निवारण चाहते थे। जबकि अंबेडकर आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे, वे वर्ण व्यवस्था का ही उन्मूलन चाहते थे।

कहना न होगा कि प्रस्तुत नाटक ने अंबेडकर के प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी सफलता पाई है , और इसके साथ ही कांग्रेस और गांधी की छद्म प्रगतिशीलता और दलित प्रेम के पीछे छिपी घृणा और सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता के मुखौटे को नोचकर असली चेहरे को दिखा दिया है। इस नाटक की जबर्दस्त सफलता में निर्देशक की मेहनत और लगन तो परिलक्षित होती ही है किन्तु दो अभिनेताओं जिन्होने अंबेडकर और गांधी के चरित्रों को मंच पर जिया है, क्रमश: बजरंग बली सिंह और प्रभाकर पांडेय, इन दोनों के बेहतरीन अभिनय का उल्लेख न करूँ तो यह उनके साथ अन्याय होगा। बहुत सारे अभिनेता और निर्देशक किसी किरदार मे प्रवेश करने के लिए उस चरित्र की वेशभूषा, गेटअप और उसकी शारीरिक भंगिमाओं की नकल करते हैं , उन्हें लगता है कि किसी चरित्र वो भी खासकर ऐतिहासिक चरित्रों की वेश-भूषा की नकल करके ही आप उस चरित्र का मंचन कर लेंगे । लेकिन यहाँ यह कहना उचित होगा कि अरविंद गौड़ और उनके रंगकर्मी अभिनेतागण, चरित्र के बाहरी आवरण से ज्यादा चरित्र की आत्मा में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। इस नाटक में दोनों ही अभिन्रेताओं बजरंगबली और प्रभाकर पांडेय ने परकाया प्रवेश द्वारा अंबेडकर और गाँधी के चरित्रों को मंच पर जिया है। अंबेडकर के क्षोभ, गुस्से और आक्रोश को जिस तरह से बजरंग बली सिंह ने अभिनीत किया है वह चकित करता है।बजरंग बली सिंह के अभिनय में गज़ब की तटस्थता और निर्वैयक्तिकता है। मंच पर जब वे होते हैं तो खुद को भूलकर मात्र अपने किरदार में होते हैं और यही बात प्रभाकर पांडेय के बारे में भी कही जा सकती है। गाँधी का जैसा सजीव और जीवंत अभिनय उन्होने किया है वह अद्भुत है। वह पीढ़ी जिसने इन ऐतिहासिक चरित्रों को लाइव नहीं देखा हो, वह इस नाटक के जरिए उनकी एक झलक देख सकता है। इस नाटक और इसकी प्रस्तुति पर लंबा आलेख लिखा जा सकता है किन्तु फेसबुक पोस्ट की भी अपने सीमा होती है इसीलिए अब इतिश्री कहते हुए कहूँगा कि एक बेहतरीन नाटक जिसे हर किसी को एकबार अवश्य देखना चाहिए, हमारे बहुत सारे भ्रम, पूर्वाग्रह टूटते हैं और दिमाग के जाले साफ होते हैं।

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