आंबेडकरी विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

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दिल्ली। आम आदमी पार्टी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने ग्वालियर के एक कांग्रेसी वकील अनिल मिश्रा पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग की है, क्योंकि उन्होंने बीएन राऊ को संविधान निर्माता माना। यह मांग अतिवादी और गैर-आंबेडकरी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान का मूलभूत अधिकार है। कोई व्यक्ति बीएन राऊ को संविधान निर्माता माने, तो यह उसका वैचारिक अधिकार है, भले ही यह ऐतिहासिक रूप से गलत हो। सत्य स्पष्ट है कि बीएन राऊ संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, पर उनकी और एसएन मुखर्जी की कानूनी विशेषज्ञता को बाबा साहब आंबेडकर ने सराहा था। दोनों ने संविधान निर्माण में सहयोग किया, पर बाबा साहब ही इसके प्रमुख शिल्पी थे।

बीएन राऊ को संविधान निर्माता मानना तथ्यात्मक भूल हो सकती है, लेकिन इसे देशद्रोह कहना अतिशयोक्ति है। देशद्रोह का मुकदमा न केवल कानूनी रूप से कमजोर होगा, बल्कि यह समाज में अशांति भी फैला सकता है। क्या जबरन किसी महान व्यक्ति का सम्मान करवाना लोकतंत्र है? आम आदमी पार्टी पर दलित विरोधी होने का आरोप है, और दिल्ली में हार के बाद शायद यही कारण है कि वे बाबा साहब के प्रति अतिरिक्त भक्ति दिखा रहे हैं। यह कहावत कि “नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है” यहाँ चरितार्थ होती है।

बाबा साहब ने अपने जीवन में आलोचनाओं का जवाब तर्क और लेखन से दिया। उनकी किताबें, जैसे एनिहिलेशन ऑफ कास्ट, उनकी तर्कशक्ति का प्रमाण हैं। उन्होंने ग्रंथों की आलोचना की, लेकिन दयाभाग सिद्धांत का उपयोग कर महिलाओं के संपत्ति अधिकारों का समर्थन भी किया। बौद्ध धम्म और आंबेडकरी विचार में कोई भी व्यक्ति या विचार आलोचना से परे नहीं है, चाहे वह तथागत बुद्ध हों या बाबा साहब। 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में बाबा साहब ने कहा था कि किसी को देवता न बनाएं, क्योंकि इससे लोकतंत्र को खतरा है।

कांग्रेस को अनिल मिश्रा पर कार्रवाई करनी चाहिए, और यदि वे शांति भंग करते हैं, तो बीएनएस की धाराओं के तहत कार्रवाई हो सकती है। लेकिन देशद्रोह जैसे सख्त कानून का दुरुपयोग, जो नेहरू के पहले संविधान संशोधन से प्रचलित हुआ, संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। आंबेडकरी तरीका तर्क और संवाद है, न कि दमन।

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