ऋषभ कुमार
दिल्ली । तलाक़ तलाक़ तलाक़,
क्या है ये? ये मात्र शब्द हैं या कुछ और?
कोई इसे तीन तलाक़ कहता है, तो कोई कहता है, ‘तलाक-ए-बिद्दत’। फिर आसान भाषा में कहें तो तलाक़ है तो एक शब्द और जो तीन बार बोल दिया तो एक औरत का बसा बसाया घर एकदम से उजाड़ हो जाता है। अब वैसे कहें तो इस देश में नियम ओ कानून का शासन है और पूरी आजादी भी है कि आप किसी के भी साथ रह सकते हैं पर आपकी आजादी किसी और की आज़ादी से जो टकराई तो फिर यह आपकी मनमानी बन जाती है। और इस मनमानी का ही एक रूप तीन तलाक़ की शक्ल में निकल के आता है। न जाने कितनी ही खबरें हमें और आपको सुनने को मिलती रहीं हैं कि किसी से खाने से थोड़ा नमक ज्यादा हो गया तो दे दिया तीन तलाक़, किसी को लड़का नहीं हो रहा तो दे दिया तीन तलाक़, किसी को दूसरी बेगम से इश्क़ फरमाना है तो दे दिया तीन तलाक़ छोटी से छोटी बातों पर तीन तलाक़ दे दिया जाता रहा है। और ऐसे में इसका शिकार बनती हैं मुस्लिम समाज की न जाने कितनी ही औरतें। अब अगर तीन तलाक़ के बाद अपने शौहर को फिर से पाना है तो हलाला होगा। एक और प्रक्रिया जो किसी भी औरत की आत्मा पर एक नासूर छोड़ जाता है। तो ऐसे में उनके पास क्या रास्ता है? अगर कहूं तो किसी भी सभ्य समाज में इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिए पर होती रहीं हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ के नाम पर। और उन सारी औरतों का क्या जिन पर यह बीतती है? उन में से न जाने कितनी तो सिसक कर रह जाती होंगी, शायद कुछ चीखतीं भी होंगी और किसी-किसी ने गुस्से में अपने हाथ भी भींचे होंगे। इन्हीं में से एक औरत निकली और उसने न्याय के उन सारे मंदिरों पर दस्तक दी। ताकि वो अपना ‘हक़’ पा सके। और उसने इस देश के कानून निर्माताओं और न्यायमूर्तिओं को इस विषय पर सोचने के लिए मजबुर किया। अब तीन तलाक़ के मुद्दे को आधार बनाकर एक फिल्म आई है, ‘हक़’। फिल्म आधारित है, शाहबानो के फेमस केस पर जिसने फिर एकबार इस देश की दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि शाज़िया बानो का विवाह होता है, अब्बास खान से जो पेशे वकील हैं। शुरू में दोनों में खूब प्रेम रहता है। शेर ओ शायरी में बात होती है। शाज़िया बानो की हर बात अब्बास की सर आंखों पर रहती है। समय बीतता है परिवार बढ़ता है और साथ ही बढ़ती हैं जिम्मेदारियां। बातें खुशनुमा से जिम्मेदारी नुमा हो जाती हैं। अब्बास खीझने लगता है। जो बीवी उसे जान से प्यारी थी अब वो उसकी बातों पर भी ध्यान नहीं देता है। पाकिस्तान जाता है तो लौटते हुए दूसरी बीवी ले आता है, जिससे पानी शाज़िया बानो के सर से ऊपर चला जाता है। और तब बेगम से शुरू हुआ यह सफर बानो तक पहुंचता है और विवाद बढ़ते-बढ़ते सेशन कोर्ट, हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक जाता है। और एक औरत के हक़ की लड़ाई के विरोध में पूरी कौम खड़ी हो जाती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उसे गद्दार घोषित करने में लग जाता है, आस-पास के मुस्लिम उनका विरोध करते हैं, अपने बच्चों को उनके अब्बा मौलबी साहब के यहां पढ़ाने से मना कर देते हैं यहां तक कि कौम के नाम पर उनको मारने की कोशिशें भी होती हैं। इतना सब होने के बाद भी शाज़िया बानो के पिता हर क़दम पर उसका साथ देते हैं। तब लगता है कि मुस्लिम समाज को उन जैसे रेशनल मौलवी की आवश्यकता है।
फिल्म को लिखा है रेशू नाथ ने जो बोस: डेड/अलाइव और इल्लीगल जैसी बेहतरीन सीरीज का लेखन कर चुके हैं, यहां भी उनकी कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग की तारीफ बनती है। वो संकेतों में अब्बास की मनोवृत्ति को समझाते हुए कहानी के प्लॉट को सेट करते हैं, चाहें वह एक कुकर के थोड़े से खराब हो जाने पर उसे सही करवाने की जगह दूसरा कुकर ले आना हो, शेर ओ शायरी से जब बातें जिम्मेदारी से भरी हो तो उनसे दूरी बनाना हो और तो और चाहे वह अपने मातहत के बड़े भाई की दूसरी शादी के जिक्र पर अब्बास की आंखों में चमक का आना हो। यह सभी दृश्य आगे की घटनाओं की ओर संकेतों में इशारा करते नज़र आते हैं। इल्लीगल जैसी उम्दा कोर्ट रूम ड्रामा सीरीज को उन्होंने जिस शानदार तरीके से अभिव्यक्त किया था तो यहां भी उनसे यही उम्मीद थी जिस पर वो पूरी तरह खरे उतरे हैं। फिल्म के डायलॉग की बात करें तो बहुत से डायलॉग फिल्म के प्रभाव को गाढ़ा करते हैं । जैसे
यामी जब बोलती हैं कि ‘बिरयानी या कोई सीर खोरमा नहीं है जो बांटकर सवाब का काम करूं शौहर हैं आप हमारे’ , ‘ कभी-कभी मोहब्बत पर्याप्त नहीं होती हमें अपनी इज़्ज़त भी चाहिए’ या फिर ‘ पैजामे का पैंगा चढ़ाकर और दाढ़ी बढ़ाकर आप लोगों को सिर्फ जहालियत ही बेंचते हैं’ या ‘ हम सिर्फ मुसलमान औरत नहीं हैं, हम हिंदुस्तान की मुसलमान औरत हैं।’ जैसे डायलॉग ने फिल्म में चार चांद लगाए हैं।
फिल्म के गीत कहानी को और मार्मिक बनाते हैं। फिल्म की शुरुआत में जब शादी का सीन आता है तो क़ुबूल है गीत आता है जो एक दूसरे का सभी गुण और दोषों के साथ कबूल करने की बात करता है। दूसरा गीत अब्बास के दूसरे निकाह के बाद आता है जिसके बोल हैं ‘ओ रब्बा दिल तोड़ गया तूं’ और अंत में बजत है ‘हक़ है मेरा’ जो दर्शकों के हृदय को कंपित कर देता है और उनकी आंखें गीली हो उडती है। कुल मिलाकर कहें तो गीतों ने फिल्म के प्रभाव को बढ़ाने का काम उम्दा तरीके से किया है।
एक्टिंग में यामी गौतम से जिस तरह की एक्टिंग की उम्मीद होती है, उन्होंने बिल्कुल भी निराश नहीं किया है। उन्होंने शाज़िया बानो के दर्द को पर्दे पर ऐसे जिया है कि आप यामी को भूल जाते हैं और शाज़िया के लिए परेशान होने लगते हैं। और उसके हक़ की लड़ाई में आप अपने को उसके साथ खड़ा कर देते हैं। अब्बास का किरदार एक ऐसे व्यक्ति का है जो अपने फायदे और ईगो के लिए मज़हब का कैसे भी इस्तेमाल कर सकता है। अपने गुनाह को छिपाने के लिए कौम को आगे करता है ताकि अपनी लड़ाई को कौम की लड़ाई बना सके। इमरान ने भी अपने किरदार के इस काइयांपन को बखूबी साधा है, घाघ इतने कि कई बार मुस्लिमों को व्यवस्था का शिकार बहुत ही सफाई से बताते दिखे हैं जबकि वो स्वयं की पत्नी के साथ अन्याय कर रहे थे। बेला जैन बनी शीबा चढ्ढा हमें वकील के रूप में आस्वस्त करती हैं।
एक तरह से फिल्म में बढ़िया एक्टिंग देखने को लगती है। पर यामी गौतम सब पर भारी पड़ती ही नज़र आती हैं।
फिल्म आधारित है शाहबानो केस पर जो 1985 का एक ऐतिहासिक भारतीय कानूनी मामला था, जिसमें 62 वर्षीय मुस्लिम महिला शाह बानो को उनके पति द्वारा तलाक दिए जाने के बाद गुजारा भत्ता (भरण-पोषण) के लिए अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ी थी, और सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्ष दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत उनके भरण-पोषण के अधिकार को बरकरार रखा था। यह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला था। पर इससे मुस्लिम पर्सनल लॉ और संवैधानिक अधिकारों के बीच टकराव पैदा हो गया था। अब चूंकि संविधान इस राष्ट्र की सर्वोच्च विधि है तो जब भी कोई विधि संविधान से टकराती है तो वह अप्रभावी हो जाती है। पर पर उस समय की सरकार ने मुस्लिम पुरुषों का पक्ष लेते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कमजोर कर दिया था। जिसके कारण मुस्लिम महिलाओं की स्थिति उन्हें 2019 तक का इंतजार करना पड़ा। तब जाकर मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 बना, जिससे भारत में ‘तलाक-ए-बिद्दत’ (एक बार में तीन तलाक) को गैरकानूनी और अमान्य घोषित कर दिया, इसे एक दंडनीय अपराध बनाया, जिसके तहत पति को 3 साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है, साथ ही पीड़ित पत्नी को भरण-पोषण और बच्चों की हिरासत का अधिकार भी दिया गया।
अगर हम देखें तो पहली मुस्लिम बेगम की स्थिति पर आज तक न तो कोई रिसर्च हुई और न ही इनकी स्थिति जानने समझने में किसी संस्था या सरकार ने कोई दिलचस्पी दिखाई। जबकि तीन तलाक़ के बाद बहुतों को दुनिया जहां के कष्ट सहने पड़ते हैं और हलाला जैसे अमानवीय अनुभवों से गुजरना पड़ता रहा था। फिर भी कोई महिला संगठन उनके पक्ष में कभी खड़ा नहीं हुआ जो इन सबके दोगलेपन को दर्शाता है।
फिल्म के हर विभाग पर कार्य किया गया है । कहानी, गाने, डायलॉग, एक्टिंग या डायरेक्शन सभी हिस्सों को साधा गया है और एक ऐसे मुद्दे को उठाया गया है जो एक समय तक एक समुदाय की महिलाओं के विरुद्ध अन्याय का अस्त्र रहा है। यह फिल्म सार्थक विमर्श को बढ़ावा देती नजर आती है। इस तरह की फिल्में निश्चय ही बनती रहनी चाहिए जो पीड़ितों की आवाजें उठाती हैं।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं)



