अपनी पहचान के लिए संघर्षरत आगरा को कब मिलेगा विरासत का ताज?

3-11.jpeg

आगरा, केवल एक शहर नहीं, बल्कि सदियों की मुहब्बत की जीती-जागती निशानी है। यह वह धरती है जिसने ताजमहल को अपनी गोद में पाला है, जो हिंदुस्तान की मिश्रित संस्कृति की अद्वितीय गाथा कहता है। यहाँ सिर्फ़ एक अजूबा नहीं बसता, बल्कि आगरा किला और फतेहपुर सीकरी जैसे तीन-तीन यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल इसकी ऐतिहासिक गहराई को बयान करते हैं। और इनके अलावा? हेरिटेज रेलवे स्टेशन, अनगिनत प्राचीन इमारतें, शिव मंदिरों की पवित्र श्रृंखला, ऐतिहासिक गुरुद्वारे, ईसाई समुदाय के गिरिजाघर और शांत कब्रिस्तान, राधा स्वामी धर्म का आध्यात्मिक केंद्र, विश्व प्रसिद्ध पैठे की मिठास और मेहनतकश हाथों से तैयार होते जूतों का उद्योग, हुनरमंदों का पच्चीकारी कौशल – इतनी विविधता और विशिष्टता भला किस शहर में एक साथ मिलेगी?

फिर भी, एक प्रश्न दिल में कांटे की तरह चुभता है, एक पीड़ा बनकर उभरता है: आगरा को अब तक “वैश्विक विरासत शहर” की प्रतिष्ठित पहचान क्यों नहीं मिल पाई? क्या हमारी अनमोल धरोहरें इतनी उपेक्षित रहने की हकदार हैं?

आगरा की नैसर्गिक सुंदरता और ऐतिहासिक महत्व किसी से छिपा नहीं है। मुग़ल काल में यह शहर दुनिया के सबसे वैभवशाली नगरों में गिना जाता था, जिसकी भव्यता लंदन और पेरिस जैसे महानगरों को भी मात देती थी। मगर आज? आज यह शहर बेलगाम शहरीकरण के बोझ तले कराह रहा है, अतिक्रमण के मकड़जाल में फँसता जा रहा है, और सबसे दुखद यह है कि अपने ही शहर के प्रति स्थानीय लोगों की उदासीनता इसे और गहरा घाव दे रही है।

टूरिज्म सेक्टर के डॉ मुकुल पांड्या कहते हैं, “ताजमहल, प्रेम का अमर प्रतीक, हर साल लाखों पर्यटकों को अपनी ओर खींचता है। आगरा किला और फतेहपुर सीकरी मुग़ल बादशाहों की शानदार जीवनशैली और हुकूमत की कहानियाँ सुनाते हैं। लेकिन, क्या इन शानदार विरासतों का यही नसीब है कि इनके चारों ओर अतिक्रमण का क्रूर घेरा बढ़ता जाए? दिल्ली गेट हो या ताजगंज, सिकंदरा हो या एत्मादुद्दौला – हर ऐतिहासिक ढाँचा खतरे की घंटी बजा रहा है। मानो हमारी विरासतें दम तोड़ रही हैं और हम बेबस होकर तमाशा देख रहे हैं।”

यमुना, जिसे कभी आगरा की आत्मा कहा जाता था, आज एक बीमार और बेजान शरीर बनकर रह गई है। कभी कलकल करती बहती नदी अब सूखी रेत और गाद का ढेर बन चुकी है, जो हवा में उड़कर शहर की साँसों में ज़हर घोल रही है। शहर का वायु गुणवत्ता सूचकांक (Air Quality Index) खतरनाक स्तरों को पार कर गया है। क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इस प्रदूषित हवा में साँस लेंगी? क्या हम उन्हें एक स्वस्थ और सुंदर आगरा सौंप नहीं सकते?

यह देखकर हैरानी और पीड़ा होती है कि करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद हालात सुधरने के बजाय और बिगड़ते जा रहे हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन (TTZ) के लिए एक दूरदर्शी दस्तावेज़ की बात की थी, मगर वह आज भी फाइलों की धूल चाट रहा है। क्या हमारी न्यायपालिका के आदेशों का भी कोई मोल नहीं? क्या हमारी धरोहरों का भविष्य सिर्फ कागज़ों में सिमट कर रह जाएगा?

आगरा हेरिटेज लवर्स ग्रुप के कनवीनर गोपाल सिंह के मुताबिक, “अगर आगरा को “विरासत शहर” का बहुमूल्य दर्जा मिल जाए, तो न केवल यहाँ की ऐतिहासिक इमारतों की बेहतर देखभाल सुनिश्चित की जा सकेगी, बल्कि छोटी-बड़ी हवेलियाँ, पुराने जीवंत बाज़ार, लोक संस्कृति की समृद्ध परंपरा और खानपान की विशिष्ट पहचान भी सुरक्षित रह पाएगी। यह स्मार्ट सिटी की तरह केवल कंक्रीट के जंगल और बुनियादी ढांचे पर ध्यान केंद्रित नहीं करेगा, बल्कि शहर की आत्मा, उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को भी जीवित रखेगा। यह हमारे अतीत को वर्तमान से जोड़ेगा और भविष्य के लिए एक मजबूत नींव रखेगा।”

लेकिन, इस सपने को साकार करने में सबसे बड़ी बाधा है – आगरा के लोगों में अपने शहर के प्रति उस गहरे जुड़ाव और गर्व की कमी, जो किसी भी विरासत को बचाने के लिए पहली शर्त होती है। जहाँ जयपुर, उदयपुर, मैसूर और वाराणसी जैसे शहर अपनी विरासत को एक उत्सव की तरह मनाते हैं, वहीं आगरा में हमारे शानदार स्मारक और सदियों पुराना इतिहास आम ज़िंदगी की पृष्ठभूमि बनकर रह गए हैं, मानो वे हमारी रोज़मर्रा की आपाधापी में कहीं खो गए हों। क्या हम अपनी जड़ों को भूल गए हैं? क्या हमें अपनी विरासत की महानता का एहसास नहीं है?

टूरिस्ट गाइड वेद गौतम कहते हैं, “भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) की तरफ से कुछ प्रयास ज़रूर होते हैं – जैसे फोटो प्रदर्शनियाँ आयोजित करना या स्मारकों में मुफ्त प्रवेश देना – मगर ये प्रयास उस विशाल चुनौती के सामने बहुत छोटे और अपर्याप्त हैं। इतिहासकार सही कहते हैं कि अब विभाग में वह जुनून और समझदारी नहीं रही, जो जॉन मार्शल जैसे दूरदर्शी अधिकारियों के समय में हुआ करती थी। क्या हम अपनी संस्थाओं को इतना कमज़ोर होने देंगे कि वे हमारी अनमोल धरोहरों की रक्षा भी न कर सकें?”

सैलानी तो आते हैं, दूर-दूर से खिंचे चले आते हैं, लेकिन शहर की बदहाल स्थिति देखकर निराश और हताश होकर लौटते हैं। न ढंग की सड़कें हैं, न सुगम हवाई संपर्क, और न ही एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण। अगर आगरा की संकरी गलियों में विरासत वॉक टूर शुरू किए जाएं, तो शहर की असली ज़िंदगी, इसकी सदियों पुरानी संस्कृति और इसकी आत्मा दुनिया के सामने आ सकेगी। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति और समर्पण की आवश्यकता है, ये कहना है श्री राजीव गुप्ता का।

कुछ विशेषज्ञ यह बहुमूल्य सुझाव देते हैं कि आगरा को तीन विशिष्ट हिस्सों में बाँटकर – मुग़ल काल, ब्रिटिश काल और आधुनिक काल – संरक्षण और विकास की योजनाएं बनाई जाएं। यह एक दूरदर्शी विचार है जो शहर की बहुस्तरीय पहचान को सुरक्षित रख सकता है। मगर अफ़सोस की बात यह है कि स्थानीय प्रशासन की सुस्ती और लोगों की उदासीनता के कारण यह विचार भी फाइलों में कैद होकर रह गया है। क्या हम अपनी निष्क्रियता के कारण इस सुनहरे अवसर को भी खो देंगे?

रिवर कनेक्ट कैंपेन के सदस्यों के मुताबिक, हक़ीक़त तो यह है कि “विरासत शहर” का प्रतिष्ठित दर्जा आगरा के लिए सिर्फ एक तमगा या अलंकरण नहीं होगा, बल्कि यह इस ऐतिहासिक शहर के लिए एक नई ज़िंदगी का रास्ता खोल सकता है। इससे शहर को पर्यावरणीय सुरक्षा मिलेगी, बेहतर बुनियादी ढांचा विकसित होगा, और सबसे बढ़कर, इसे एक नई वैश्विक पहचान मिलेगी, जो इसकी खोई हुई गरिमा को वापस लाएगी। यह हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा, पर्यटन को नई ऊंचाइयाँ देगा और स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा करेगा।

अब फैसला सरकार को करना है – क्या वह ताज के इस ऐतिहासिक शहर को वाकई उसकी असली शान वापस लौटाएगी? क्या वह हमारी अनमोल विरासत को बचाने के लिए ठोस कदम उठाएगी? या इतिहास, विरासत और संस्कृति यूँ ही सिसकती रहेगी, हमारी आँखों के सामने धीरे-धीरे दम तोड़ती रहेगी?

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top