सवाल यह है कि ऐसी क्या मजबूरी थी? यदि मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देना ही था, तो क्या बिहार में साफ-सुथरे चरित्र वाले मुस्लिम नेताओं की कमी पड़ गई कि शाहबुद्दीन के बेटे को मैदान में उतारा गया?
मान लिया जाए कि ओसामा ने कोई अपराध नहीं किया, जैसा कि उनके समर्थक और सोशल मीडिया पर उनके पक्ष में तर्क देने वाले दावा करते हैं। लेकिन क्या यह मान लिया जाए कि ओसामा ने अपने पिता की आपराधिक विरासत से खुद को पूरी तरह अलग कर लिया है? क्या वह अपने पिता के कृत्यों पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं?
शाहबुद्दीन भले ही दुनिया से चले गए हों, लेकिन सिवान, गोपालगंज से लेकर किशनगंज तक उनके खौफ का साया अब भी कायम है। शायद यही कारण है कि राजद ने उनके बेटे को टिकट दिया। बिहार ने लालू प्रसाद के गुंडाराज से मुक्ति पाई थी, लेकिन अब तेजस्वी प्रसाद उस दौर को फिर से लौटाने की कोशिश करते दिख रहे हैं।
इसके बावजूद, कुछ लोग बेशर्मी से तेजस्वी का समर्थन कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, सीपीएम के दीपांकर, जो शाहबुद्दीन के बेटे को टिकट दिए जाने के बाद भी तेजस्वी के पीछे-पीछे घूम रहे हैं। ऐसे में सीपीएम अब किस मुंह से बिहार में ब्राह्मणवाद और गुंडाराज के खिलाफ बोलेगी? क्या उन्हें जरा भी शर्म नहीं आएगी?