अपराधबोध से ग्रसित कवि की सफाई

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पंकज कुमार झा

कवि नरेश सक्सेना जी की सफाई जो उन्होंने महान नेता और इस युग के चावल वाले बाबा कहे जाने वाले डॉ. रमण सिंह जी से मिल लेने पर पैदा कर दिए गए कथित अपराधबोध से सफाई देते हुए लिखा है।

यह कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी कि मुख्यमंत्री रहते हुए डॉक्टर साहब ने जिस संवेदना से चावल वितरण योजना प्रारंभ की थी, उस पर संवेदना वाले कवियों की लाखों कविताएं कुर्बान। ऐसे व्यक्तित्व से मिलना सौभाग्य नहीं तो प्रसन्नता की बात अवश्य है। साहित्य की क्षुधा तृप्ति होती है ऐसी मुलाकातों से।

भूखे को भोजन देने से बड़ा साहित्य ने अभी तक जन्म नहीं लिया है। ऐसी सैकड़ों उपलब्धियों की जन्मदाता ‘राजनीति’ कभी साहित्य का कम से कम विलोम तो नहीं ही कहीं जा सकती, न ही ऐसे राजनेता कभी अस्पृश्य कहे जा सकते। ऐसा समझने वाले लोग साहित्य का हमेशा की तरह अहित ही करेंगे। अस्तु।

सक्सेना जी के अपराधबोध नुमा सफाई पर अपना जवाब पुनः पोस्ट कर रहा।

एक नए तरह की छूआछूत से प्रभावित हैं आप सभी। भाजपा है तो मञ्च पर कैसे रह सकते हैं आप लोग? यह अधिक खतरनाक ‘ब्राह्मणवाद’ है, जहां बहुसंख्यकों (अर्थात् भाजपा) को अछूत समझा जाता है, भले ही वह कितना भी पात्र हो। पुराने सामंतवाद से लड़ते-लड़ते आज के सभी ‘नरेश’ किस तरह के छूआछूत वादी हो गए, यह सोच कर वितृष्णा सी होती है।

साहित्य के इस नयी तरह के जातिवाद के विरुद्ध कौन आवाज उठायेगा? निःसंदेह साहित्यकारों का यह श्रेष्ठि वर्ग किसी भी पुराने श्रेष्ठताबोध वाले समूहों से अधिक सुपरियारिटी कॉम्प्लेक्स से भरे हैं। यह किसी भी असभ्यता से अधिक असभ्य आचरण है, जहां वरिष्ठ कवि को इसलिए सफाई देनी पड़ जाती है क्योंकि कोई भाजपा का व्यक्ति किसी आयोजन में आ गया। इतनी हिम्मत कैसे कर सकता है कोई भला! है न? देवगण जहां सशरीर विराजमान हों, वहाँ किसी ऐसा कोई तुच्छ प्राणी पहुंचने का दुस्साहस कर लेगा? घोर पाप! पुरा युग में शायद कानों में पिघल सीसा लिए ऐसे ही लोग खड़े रहते रहे होंगे या कि अंगूठा काटने को बेताब अगर कोई अपात्र-कुजात इनके ज्ञान को सुन भी ले तो। नमन ही नवद्रोण आपको। आपका कौरव पक्ष आपको मुबारक।

ऐसी आपत्तियां देख कर यही अनुभूत होता है कि समाज में शेष सभी ने जातिवाद और छुआछूत से मुक्ति ले ली सिवा साहित्यकार के रूप में चिन्हित इन नव सामंतों को छोड़ कर। यह इस युग का सबसे बड़ा शर्म है जिससे निःसंदेह शर्म भी शर्मसार हो जाय। इक्कीसवीं सदी में भी सत्रहवीं सदी वाले इस छूआछूत पर, इस प्रतिगामी समुदाय का सहिष्णु होना अभी शेष है। ये नए देसी फिरंगी हैं जिन्हें अपनी रियाया (अर्थात् पाठक) से पर्याप्त दूरी रखनी है। जिन्हें लोकतंत्र में लोक प्रतिनिधि समूह अर्थात् भाजपा के लोगों से टच हो जाने पर वोल्गा स्नान का प्रायश्चित करने का विधान रचना है। इस शर्म से शर्मसार होना चाहिए इस समय को। शब्दों में भले आप भावनाओं का ज्वार ला दें किंतु आचरण का यह भाटा इस साहित्य समाज को इतिहास का कलंक घोषित करेगा ही।

स्वयं को लिखने-पढ़ने वालों का अकेला ठेकेदार समझ लेने वाले इस समुदाय का अरण्य रोदन चलता रहेगा, साहित्य कहे जाने वाले इस संप्रदाय की सांप्रदायिकता चलती रहेगी, इधर वास्तविक ‘लोक’ इनकी उपेक्षा कर समरसता का सूत्र लेकर अपनी राह चलता रहेगा।

अशेष सहानुभूति उस समूह को जो लिजलिजे छुआछूत और श्रेष्ठता ग्रंथि का शिकार हो लोकतंत्र के इस युग में विश्व के सबसे बड़े प्रतिनिधि दल को अछूत समझने वाला नव सामंत बना हुआ है। दुखद। यह इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। अफसोस कि आज का साहित्यकार कहा जाने वाला यह समूह स्वयं को मानवता का विलोम बना लेने को आतुर है। मनुर्भव।

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