अरावली का क्षरण: उत्तर भारत में पीढ़ियों के भविष्य से खिलवाड़

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प्रणय विक्रम सिंह

जयपुर : अरावली केवल पत्थरों की पंक्ति नहीं, भारत की प्राचीन प्राणरेखा है। यह उत्तर भारत की जल-जननी, थार के सामने खड़ी हरित हरकारा और सदियों से जीवन की रक्षा करती मौन प्रहरी है। आज नई परिभाषाओं के नाम पर जब अरावली के बड़े हिस्से को ‘भूभाग मात्र’ कहकर खनन के हवाले किया जा रहा है, तब यह प्रश्न केवल पर्यावरण का नहीं रहता। यह जनजीवन, जल–जंगल–जमीन और आने वाली पीढ़ियों का प्रश्न बन जाता है।

इतिहास हमें बार-बार समझाता है कि जहां पहाड़ कटे, वहां पानी खिसका; जहां वन उजड़े, वहां वर्षा रूठी; और जहां प्रकृति पर प्रहार हुआ, वहां मनुष्य पलायन को विवश हुआ। अरावली उसी इतिहास की जीवित चेतावनी है। वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक इस पर्वतमाला ने राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली की धरती को संतुलन, संवर्धन और संजीवनी दी। इसे कमजोर करना भूगोल से छेड़छाड़ नहीं, बल्कि इतिहास से विश्वासघात और भविष्य से खिलवाड़ है।

अरावली केवल पर्यावरण की रक्षक नहीं रही, वह भारत की स्वाधीन चेतना की सहचरी भी रही है। इसी अरावली की कंदराओं, घाटियों और घने वनों ने महाराणा प्रताप को वह आश्रय दिया, जहां से उन्होंने अकबर की साम्राज्यवादी शक्ति को चुनौती दी। हल्दीघाटी के बाद यही अरावली महाराणा प्रताप की ढाल बनी; जहां पहाड़ों ने उनकी पीड़ा सुनी, वनों ने उनके घाव ढांपे और प्रकृति ने स्वतंत्रता के संकल्प को जीवित रखा। अरावली उस काल में केवल पर्वतमाला नहीं थी, वह स्वाभिमान की शिला और स्वराज्य की शरणस्थली थी। आज यदि उसी अरावली को लालच की रेत में दबाया जा रहा है, तो यह केवल पर्यावरण का नहीं, राष्ट्रीय स्मृति और आत्मसम्मान का भी अपमान है।

अरावली थार रेगिस्तान के सामने खड़ी प्राकृतिक दीवार है। एक ऐसी दीवार जो पत्थर से नहीं, पर्यावरणीय विवेक से बनी है। इसके कमजोर होते ही रेत की रफ्तार बढ़ेगी, तपिश का तांडव फैलेगा, रेगिस्तान की रेत पूर्व की ओर बढ़ेगी। राजस्थान के जयपुर, अलवर, सीकर, दौसा जैसे क्षेत्र, जो आज अर्ध-शुष्क हैं, कल पूर्ण शुष्कता की ओर बढ़ सकते हैं। भूजल स्तर, जो पहले ही भयावह गिरावट पर है, और नीचे जाएगा। कुएं सूखेंगे, ट्यूबवेल थकेंगे और खेत बंजर होंगे। खेती घटेगी, किसान टूटेगा और पलायन बढ़ेगा। यह केवल पर्यावरणीय संकट नहीं, आर्थिक और सामाजिक विस्थापन की पटकथा होगी।

यहां समझना जरूरी है कि जल संकट केवल पानी की कमी नहीं, आर्थिक अस्थिरता का संकेत होता है। जब पानी घटता है, तब फसल घटती है; जब फसल घटती है, तब आय घटती है; और जब आय घटती है, तब पलायन बढ़ता है। अरावली का क्षरण इस पूरी शृंखला को तेजी से आगे बढ़ाएगा। यह एक पहाड़ के टूटने का नहीं, पूरे सामाजिक ताने-बाने के ढहने का संकेत है।

आज विकास की दौड़ में आगे हरियाणा के दक्षिणी जिले गुरुग्राम, नूंह, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ अरावली की गोद में बसे हैं। यदि यह गोद उजड़ती है, तो इन इलाकों में रेत भरी हवाएं स्थायी मेहमान बन जाएंगी। मिट्टी की नमी समाप्त होगी, खेती की उत्पादकता गिरेगी और भूजल रिचार्ज रुक जाएगा। गर्मी की तीव्रता बढ़ेगी, हीटवेव आम होंगी और जल-जीवन दोनों संकट में पड़ेंगे। यह विकास नहीं, विनाश का विस्तार होगा।

दिल्ली के लिए अरावली केवल दूर की पहाड़ी नहीं, बल्कि हवा का हरित छन्ना है। यही पर्वतमाला धूल को थामती है, ताप को तौलती है, प्रदूषण को पिघलाती है। इसके क्षरण का अर्थ है और अधिक घुटन, और अधिक गर्मी, और अधिक रोग। सांस, हृदय और नेत्र तीनों पर बोझ बढ़ेगा। यह संकट किसी एक वर्ग का नहीं; झुग्गी से गगनचुंबी तक सब इसकी गिरफ्त में होंगे। ध्यान रहे, जब हवा भारी होती है, तब जीवन हल्का पड़ जाता है।

अरावली धरती ही नहीं, आकाश की अनुशासक भी है। यह मानसून की नमी को साधती है, वर्षा को दिशा देती है। इसके कमजोर होने से बारिश बिखरेगी लिहाजा कभी बाढ़, कभी सूखा। तालाब-तलैया सूखेंगे, नदियां सिमटेंगी, जल-चक्र डगमगाएगा। जब पानी भटकता है, तब समाज भी भटकता है और नीति को पछतावा रह जाता है।

इसीलिए अरावली भारत की ग्रीन वॉल है, मरुस्थल को रोकने वाली, मानसून को मोड़ने वाली, भूजल को सहेजने वाली, जैव विविधता को बचाने वाली। यह केवल पर्यावरणीय संरचना नहीं, लोकजीवन की जीवनरेखा है; किसान, पशुपालक, मजदूर, कारीगर और शहरों की करोड़ों धड़कनों से जुड़ी हुई। इसके जंगल केवल पेड़ नहीं, पीढ़ियों की प्यास बुझाने वाले पहरेदार हैं; इसके पत्थर केवल चट्टान नहीं, जल-सुरक्षा की चाबियां हैं।

राजस्थान सरकार को समझना होगा कि परिभाषाओं के सहारे अरावली को खनन-क्षेत्र बनाना नीतिगत चूक नहीं, ऐतिहासिक चूक होगी। विकास का अर्थ यह नहीं कि आने वाली पीढ़ियों से पानी, हवा और धरती छीन ली जाए। राजस्व और रोजगार की दलीलें तब रेत-महल बन जाती हैं, जब रहने योग्य धरती ही न बचे। अल्पकालिक लाभ दीर्घकालिक नुकसान का बहाना नहीं बन सकता।

यह समय टकराव का नहीं, ठहरकर सोचने का है। संरक्षण और विकास को आमने-सामने खड़ा करने के बजाय, संतुलन की सेतु-नीति अपनानी होगी, जहां खनन नहीं, संरक्षण प्राथमिकता हो; जहां स्थानीय समुदाय भागीदार हों; जहां जल-वन-भूमि को एक साथ बचाने की समग्र योजना बने। अरावली को बचाना पर्यावरणवाद नहीं, राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है।

आज यदि शासन नहीं रुका, तो कल न थार रुकेगा, न ताप, न जल-संकट। और तब इतिहास यह नहीं पूछेगा कि कितना खनन हुआ। वह पूछेगा कि जब पहाड़ टूट रहे थे, तब नीति कहां थी।अरावली को बचाइए क्योंकि पहाड़ केवल खड़े नहीं रहते, वे सभ्यताओं को संभालते हैं; और जब वे गिरते हैं, तो केवल चट्टानें नहीं, पीढ़ियों की उम्मीदें ढहती हैं।

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