विष्णु शर्मा
दिल्ली। अक्सर देखा होगा आपने जैसे मुस्लिमों से जुड़ी कोई बात राष्ट्रीय विमर्श में आती है, फौरन बुद्धिजीवियों, नेताओं और पत्रकारों का एक वर्ग दुखी होने लगता है कि जैसे गंगा जमुना संस्कृति में कोई नाला मिलाने आ गया हो.. “अरे दंगे हो जायेंगे, माहौल खराब हो जायेगा. बरसों पुराना भाईचारा खत्म हो जाएगा”.
नई पीढ़ी को हैरत होगी ये जानकर 2014 से पहले मीडिया हाउसेज में ‘मुस्लिम’ शब्द बोलना भी गुनाह सा होता था. लिखना, बोलना भी हो तो वर्ग विशेष या अल्पसंख्यक समुदाय लिखो. दंगा भी होता था कहीं तो ये निर्देश होते थे कि खबर लेते रहो, चलाओ मत. चाहे वहां कत्ल ए आम चलता रहे, तर्क देते थे कि खबर चलाने से दंगा भड़क जायेगा… लव जेहाद में कोई मुस्लिम शामिल है तो उसका नाम नहीं लिखना. एक बार तो अलीगढ़ के अमर उजाला में मैंने एक हेडिंग देखी, ‘एक व्यक्ति को संदिग्ध जानवर ने काट खाया’, खबर पूरी पढ़कर समझ आया कि वो तो सूअर था.
आखिर ये सब क्यों करते थे ये लोग? मुस्लिम कोई एलियन थोड़े ना हैं, लेकिन इन लोगों ने बना दिया. एक खास वोट बैंक की तरह उनका इस्तेमाल किया, अयोध्या विवाद का हल नहीं निकलने दिया और अब दंगे का डर दिखाते हैं. बीजेपी सरकारों की छोड़िए कांग्रेस के समय में या आजादी से पहले ऐसा कोई साल बताएं जब दंगे नहीं हुए, बल्कि मेरी बुक ‘इंदिरा फाइल्स’ में ऐसे दंगे भी आप जानेंगे जिनमें हिंदू समुदाय था ही नहीं, या तो सरकार थी या फिर मुस्लिम.
रही बात तथाकथित गंगा जमुनी संस्कृति की तो ये केवल दो व्यक्तियों के निजी रिश्तों में है या जहां हिंदू बहुतायत में है, वरना राहुल गांधी की भी हिम्मत नहीं कि वायनाड में भगवा तो दूर अपनी पार्टी का तिरंगा भी फहरा लें. कितनी भी किताबों में अकबर महान, जहांगीर की न्याय की जंजीर पढ़ा लो, लोगों से अकबर का चित्तौड़ का कत्ल ए आम और फतहनामा व जहांगीर का किसानों को अगवा करने वाला पिंजरा पता चल ही जाना है. सो प्रोपेगेंडा से रिश्ते नहीं सुधारने वाले, व्यक्तिगत स्तर पर तमाम हिंदू मुस्लिम आपस में दोस्त हैं. मेरे घर भी हर ईद पर कहीं न कहीं से सिवइयां आती ही हैं.
सो इन पूर्व वरिष्ठ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को अब बाज आना चाहिए, उनकी तरकीबों से केवल कांग्रेस का फायदा हुआ, अब प्रतिक्रिया में बीजेपी का हो रहा है. गरीब मुस्लिम और गरीब हो गए. उनके नाम से हौआ बनाना छोड़ दो, खुलकर चर्चा होने दो.. चर्चा होगी तो हल निकलेगा