बाबा कारंथ का सिनेमा

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विजय मनोहर तिवारी

अजित राय सिनेमा और थिएटर के चलते-फिरते विश्वकोष हैं। उन्हें पढ़ना-सुनना विश्व सिनेमा का विहंगावलोकन है। वे कन्नड़ की किसी मूवी का सिरा पकड़ेंगे और सिनेमा के संसार की सैर करा देंगे। भारत भवन में उनका व्याख्यान बाबा कारंथ के सिनेमा पर था, जिस पर गूगल पर कुछ नहीं मिलेगा और किताबें भी न के बराबर है। पहली ही बार कारंथ स्मृति समारोह में ये विषय रखा गया। भारत भवन के निर्माण और उसमें 1981 में ही रंगमंडल की स्थापना के रूप में कारंथ का योगदान अविस्मरणीय है। उनके कर कमलों से बना यह मंच अब तक विभिन्न नाटकों के दो हजार से अधिक मंचन कर चुका है। इनमें कई विश्व प्रसिद्ध नाटककारों की लोकप्रिय कृतियाँ भी शामिल हैं।

बाबा कारंथ का अधिकांश परिचय थिएटर के दायरे में है। उनके सिनेमा के बारे में और सिनेमा में उनकी दृष्टि के बारे में बहुत कम सुना या बोला गया है, खासकर मध्यप्रदेश में या भारत भवन में ही। किंतु आदरांजलि में कारंथ के कृतित्व और व्यक्तित्व के ऐसे ही अनछुए पहलुओं पर अनुभव संपन्न अध्येताओं को सुनने का अपना आनंद है और उनके सिनेमा पक्ष पर अजित राय उनमें से एक हैं। वे कहते हैं कि बंगाल और महाराष्ट्र के बाद कारंथ ने ही सिनेमा के जरिए कर्नाटक में नवजागरण का शुभारंभ किया। उनके इस योगदान पर चर्चा न के बराबर हो पाई क्योंकि थिएटर की उनकी महानता ने सिनेमा के पक्ष को ढक दिया। वे उस कालखंड में कर्नाटक में सिनेमा रच रहे थे जब बंगाल में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक जैसे कल्पनाशील सृजनकार सक्रिय थे। वह भारत में समांतर सिनेमा की शुरुआत का समय है, जब गोविंद निहलानी जैसे बाद के नामी निर्देशक एक रंगऋषि बाबा कारंथ की शरण में आए।

अजितजी ने कारंथ की तीन फिल्मों पर यह चर्चा केंद्रित की, जिनसे कारंथ की विलक्षण दृष्टि की एक झलक मिलती है। वे कहते हैं कि यशस्वी फिल्मकारों ने साहित्य पर फिल्में रचीं। 1977 में कन्नड़ में घटश्राद्ध एक ऐसी ही फिल्म है, जिसमें कारंथ का संगीत है और इस फिल्म के लिए मिले तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में से एक कारंथ को उनके संगीत के लिए ही दिया गया था। यह यूआर अनंतमूर्ति की प्रसिद्ध कहानी पर बनी एक सामाजिक फिल्म है। यह कहानी एक ब्राह्मण परिवार की कथा है, जिसकी विधवा बेटी गुरुकुल के ही एक शिष्य से गर्भवती हो जाती है। गाँव में सबको यह पता चलता है। बाहर गया पिता जब लौटता है तो वह अपनी जीवित बेटी का श्राद्ध करता है। 1982 तक ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ जाती है। इस दृष्टि से कारंथ पर अभी बहुत शोध और अध्ययन की आवश्यकता है।

कन्नड़ उपन्यासकार कोटा शिवराम कारंथ की कहानी चोमनाडुडी पर कारंथ के निर्देशन में 1975 में बनी फिल्म निचली जातियों में धर्मांतरण का महत्वपूर्ण विषय लेकर आती है। यह चोमा के परिवार की कहानी है, जिसके साथ जातीय भेदभाव की पराकाष्ठा है। ईसाई मिशनरी वाले उसके संपर्क में आते हैं किंतु वह अपने पुरखों का धर्म छोड़ने की ताकत नहीं जुटा पाता। उसका एक बेटा ईसाई हो जाता है। दूसरा नदी में डूबने से इसलिए मर जाता है क्योंकि अछूत होने से कोई उसे बचा नहीं पाता। उसकी बेटी बलात्कार का शिकार होती है और वह अपने भीतर समाए भय से मुक्ति के लिए घर में खुद को बंद करके बहुत जोर-जोर से ढोल बजाता है किंतु अपना धर्म नहीं छोड़ता। चोमनाडुडी कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं करती। वह ह्दय परिवर्तन के कोमल भावों और सामाजिक भेदभाव की भयावह वेदना को परदे पर खींचती है।

वंशवृक्ष 1971 में बनी एक ऐसी फिल्म है, जो प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक भैरप्पा की कहानी पर आधारित है। इस फिल्म का निर्माण जीवी अय्यर ने किया। निर्देशन कारंथ और गिरीश कर्नाड ने मिलकर किया है। यह एक श्रोत्रिय ब्राह्मण परिवार की कहानी है, जिसे सेंसर बोर्ड ने इस डर से रोक दिया था कि इससे कर्नाटक के ब्राह्मण नाराज हो जाएंगे। हालांकि इस फिल्म के सारे कर्णधार स्वयं ब्राह्मण थे। अय्यर की शर्त थी कि इसे कारंथ ही निर्देशित करेंगे और वे कर्नाड के साथ कारंथ के सामने यह प्रस्ताव लेकर गए थे। तब तक कारंथ का कुल अनुभव थिएटर का था। सीधे सरल और अपनी कला को संपूर्ण समर्पित कारंथ बहुत शीघ्रता में आ गए कि कल से फिल्म शुरू करते हैं। गिरीश कर्नाड ने उन्हें बताया कि पटकथा लेखन, स्टोरी बोर्ड, कलाकारों का चयन और लोकेशन के साथ शूटिंग के लिए अनुकूल मौसम की पायदानों से गुजरकर ही फिल्म का असल काम शुरू होता है!

कारंथ के निर्देशन में बनी गोधूलि भी भैरप्पा की कृति पर आधारित एक और फिल्म है, जिसके भावनात्मक पक्ष को रेखांकित करते हुए अजित राय ने 1953 की टोकियो स्टोरी का स्मरण किया। एक ऐसी मार्मिक फिल्म जिसे देखकर कलेजा फट जाए। जापान के एक गाँव के एक ऐसे परिवार की कहानी है, जिसका बेटा शहर में एक अति व्यस्त कमाऊ डॉक्टर है। वह उन्हें अपने पास बुला लेता है, किंतु उसके पास अपने मां-बाप के लिए बिल्कुल ही समय नहीं है। इलाज के अभाव में एक दिन उसके पिता की मौत केवल इसीलिए हो जाती है क्योंकि बेटा अपनी शहरी दुनिया में धन कमाने में व्यस्त था। यह स्वार्थ से भरे मानवीय रिश्तों की चीरफाड़ है, जिसे परदे पर बहुत संवेदना के साथ प्रस्तुत किया गया। यह आज के भारत के हर गांव-कस्बे में एकाकी जीवन जी रहे लाखों परिवारों की कहानी लगती है, जिनके बच्चे पढ़-लिखकर बड़े शहरों या विदेशों में जा बसे।

कन्नड़ में ऐसे विषयों पर सिनेमा रचने के बाद कारंथ को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा दिल्ली का निदेशक बनाया गया और फिर वे एक दिन भारत भवन के निर्माण में हाथ बटाने 1981 में भोपाल बुलाए गए। अजित राय कहते हैं कि केवल दो ही मुख्यमंत्री ऐसे हुए हैं, जिन्होंने रंगकर्म से जुड़ी हस्तियों को अपने यहाँ स्वतंत्र रूप से कुछ करने का सीधा आमंत्रण स्वयं दिया। कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े, जिन्होंने बाबा कारंथ को बुलाया और सुशील कुमार शिंदे, जिन्होंने वामन केंद्रे को मुंबई विश्वविद्यालय में एक विभाग की नींव डालने का न्यौता दिया। कारंथ और केंद्रे दोनों ही एनएसडी के प्रमुख रहे। अजितजी के व्याख्यान में केंद्रे भी आए, जो इस समय भारत भवन न्यास के अध्यक्ष भी हैं। जाने माने रंगकर्मी और अभिनेता राजीव वर्मा ने सत्र की अध्यक्षता की।

(साभार)

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