बैलेट की लूट और लोकतंत्र की मासूमियत: 1984 से जुड़ा मनोज मलयानिल का एक संस्मरण

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नोएडा। मनोज मलयानिल की सोशल मीडिया पोस्ट में 1984 के लोकसभा चुनाव की एक ऐसी कहानी सामने आती है, जो व्यंग्य और कटाक्ष के रंग में रंगी है। उनकी यह कहानी उस समय के कथित चुनावी भ्रष्टाचार, खासकर बूथ लूट, की ओर इशारा करती है, जिसके बल पर कांग्रेस ने 400 से अधिक सीटें जीतीं। मनोज का यह संस्मरण केवल एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि उस दौर की राजनीतिक प्रथाओं का एक काला चिट्ठा है, जो हास्य के आवरण में लिपटा हुआ है।

मनोज बताते हैं कि स्कूल के दिन थे, और वह अपने मोहल्ले के “भैया लोगों” के साथ मतदान केंद्र पहुंचे थे। उनकी जिम्मेदारी थी बैलेट पेपर पर ‘हाथ’ के निशान पर मुहर लगाना। उनके दोस्तों को बैलेट मोड़ने और बक्से में डालने का काम सौंपा गया। मनोज का दावा है कि उन्होंने “खूब मजे” के साथ 100 बैलेट पेपर पर मुहर लगाई। यह एक बच्चे की मासूमियत और उत्साह की कहानी नहीं, बल्कि बूथ लूट जैसे गंभीर चुनावी भ्रष्टाचार का व्यंग्यात्मक चित्रण है। उस दौर में बूथ लूट, या बूथ कैप्चरिंग, एक आम प्रथा थी, जिसमें पार्टी कार्यकर्ता या किराए के लोग मतदान केंद्रों पर कब्जा कर लेते थे और अपने पक्ष में वोट डालते थे।

1984 का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए इस चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 414 सीटें जीतीं, जो आज तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। लेकिन इस जीत के पीछे सहानुभूति लहर के साथ-साथ बूथ लूट जैसे कदाचारों की कहानियां भी जुड़ी हैं। मनोज की पोस्ट उस समय की उन प्रथाओं को उजागर करती है, जब मतदान केंद्रों पर धमकी, हिंसा और धांधली आम थी। उनकी कहानी में हास्य का पुट है, लेकिन यह गंभीर सवाल उठाता है कि क्या उस दौर की जीत पूरी तरह से जनादेश थी, या इसमें भ्रष्टाचार की भी भूमिका थी?

राहुल गांधी का अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में 80 के दशक की यादों का जिक्र, जहां वह और प्रियंका पोस्टर चिपकाते थे, एक विपरीत तस्वीर पेश करता है। जहां एक तरफ वह मासूमियत भरे कार्यों की बात करते हैं, वहीं मनोज का व्यंग्य उस दौर की कड़वी सच्चाई को सामने लाता है। यह विडंबना दर्शाती है कि कैसे एक ही समय में दो अलग-अलग अनुभव—एक मासूम और दूसरा भ्रष्ट—लोकतंत्र के इस महापर्व का हिस्सा थे।

मनोज का यह भी कहना कि मतदान के बाद “जमकर भोज” हुआ, उस समय की सामाजिकता के साथ-साथ भ्रष्टाचार की स्वीकार्यता को भी दर्शाता है। यह एक ऐसा दौर था, जब बूथ लूट को कुछ हद तक सामान्य माना जाता था। आज के डिजिटल युग में, जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों और सख्त निगरानी ने ऐसी प्रथाओं को कम किया है, मनोज की कहानी हमें उस समय की कमजोरियों की याद दिलाती है।

यह संस्मरण हमें सोचने पर मजबूर करता है कि लोकतंत्र की नींव कितनी नाजुक हो सकती है, जब उसे भ्रष्टाचार की दीमक खा रही हो। मनोज का व्यंग्य न केवल 1984 की एक कड़वी सच्चाई को सामने लाता है, बल्कि हमें आज के लोकतंत्र को और मजबूत करने की प्रेरणा भी देता है।

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