-डाॅ. ओ.पी. त्रिपाठी
बांग्लादेश में शेख हसीना का राज खत्म हो गया। आरक्षण विरोधी प्रदर्शन से शुरू हुआ तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है। उन्होंने इसी साल चुनाव जीतकर सरकार बनाई थी। 2009 से उनकी सरकार का यह लगातार चैथा कार्यकाल था। बदले हालात में बांग्लादेश के साफ संकेत हैं कि अब वहां कट्टरपंथियों और भारत-विरोधी ताकतों का वर्चस्व होगा। आतंकवाद का खतरा बढ़ेगा। बांग्लादेश में भी तालिबान सक्रिय होंगे। वहां के प्रधानमंत्री आवास को आम जनता के लिए इस कदर खोल रखा गया है मानो कोई मेला लगा हो! कुछ युवा चेहरों की अश्लील, असभ्य, विद्रूप मानसिकता सार्वजनिक हुई है, जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की ब्रा और अंतर्वस्त्र सरेआम लहराए हैं। ऐसे युवा कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन आंदोलनकारी छात्र नहीं हो सकते। वे बेशर्म जमात भी हो सकते हैं, लेकिन अपने ही मुल्क का अपमान कर रहे हैं।
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमात-ए-इस्लामी दोनों ही कट्टरवादी दल हैं और पाक परस्त भी हैं। अंतरिम सरकार बनने से पहले ही दोनों दलों के करीब 9000 कार्यकर्ताओं को जेलों से रिहा कर दिया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया और उनके पुत्र तारिक रहमान की सरपरस्ती में इन दलों ने आम जनसभा को संबोधित भी किया है। तारिक हत्या के तीन मामलों में उम्रकैद के सजायाफ्ता हैं, लेकिन वह लंदन में स्वनिर्वासन में थे। अभी ढाका लौट कर आए हैं, तो अदालतें फिलहाल खामोश और निष्क्रिय हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार में मंत्री रहे 10 और अन्य बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है।
दरअसल बीएनपी और जमात के साथ पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने ‘सौदेबाजी’ की है कि शेख मुजीब की सियासी विरासत की प्रतीक ‘अवामी लीग’ पार्टी का नामोनिशां ही मिटा दिया जाए, ताकि 1971 की बगावत की मुकम्मल सजा दी जा सके। हसीना के बांग्लादेश छोड़ कर चले जाने के साथ ही शेख मुजीब की सियासी विरासत तो समाप्त हो गई। पाकिस्तानी फौज गदगद है और लड्डू खा रही है।
ऐसी सूचनाएं भी हैं कि आईएसआई लंदन में तारिक रहमान और जमात के नेतृत्व के साथ 2018 से ही ‘तख्तापलट’ की साजिश रच रही थी, लेकिन अभी तक नाकाम रही थी। मौजूदा आंदोलन का आवरण छात्रों का था, लेकिन उनकी आड़ में जमात और बीएनपी के कार्यकर्ताओं ने ही आंदोलन को ‘तख्तापलट’ का रूप दिया था।
जमात का छात्र संगठन ही आंदोलन और बगावत के पीछे सक्रिय था। बेशक शेख हसीना को मुल्क छोड़े तीन दिन गुजर चुके हैं, लेकिन बांग्लादेश के हालात अब भी सामान्य नहीं हुए हैं। करीब 125 लोग बीते एक दिन में मारे गए हैं। कुल मौतों की संख्या 450 से अधिक हो गई है। चूंकि प्रधानमंत्री के तौर पर हसीना भारत-समर्थक थीं। दोनों देशों ने कई साझा परियोजनाएं शुरू कीं और पुराने विवादों को भी खत्म किया। अब अंतरिम सरकार के दौर में कट्टरपंथी और भारत-विरोधी ताकतें ऐलानिया कह रही हैं कि उन परियोजनाओं की जांच और समीक्षा की जाएगी।
हालांकि, लगातार चौथी बार सरकार बनाने वाली शेख हसीना के खिलाफ उपजे आक्रोश के मूल में तात्कालिक कारण अतार्किक आरक्षण ही रहा, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दल व उनके आनुषंगिक संगठन सरकार को उखाड़ने के लिये बाकायदा मुहिम चलाये हुए थे। दरअसल, वर्ष 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान के दमनकारी शासन से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के रिश्तेदारों के लिये उच्च सरकारी पदों वाली नौकरियों में तीस प्रतिशत आरक्षण का विरोध छात्रों ने किया। उनका तर्क था कि उनकी कई पीढ़ियां आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं, फलतरू बेरोजगारों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। लेकिन इस आंदोलन को हसीना सरकार ढंग से संभाल नहीं पायी। आंदोलनकारियों से निबटने के लिये की गई सख्ती से आंदोलन लगातार उग्र होता गया। जिसका विपक्षी राजनीतिक दलों ने भरपूर लाभ उठाया। हालांकि,सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को घटाकर पांच प्रतिशत कर दिया था, लेकिन सरकार इस संदेश को जनता में सही ढंग से नहीं पहुंचा सकी। फिर छात्र नेताओं की गिरफ्तारी ने आंदोलन को उग्र बना दिया। बड़ी संख्या में आंदोलनकारी सड़कों पर उतरे। उन्होंने हसीना सरकार के खिलाफ मजबूत मोर्चा खोल दिया।
जनाक्रोश के चरम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आक्रामक भीड़ ने मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान की मूर्ति तक को तोड़ दिया। निस्संदेह, सत्ता से चिपके रहने के लिये किए जाने वाले निरंकुश शासन की परिणति जनाक्रोश के चरम के रूप में सामने आती है। यह घटनाक्रम श्रीलंका में 2022 के विरोध प्रदर्शन की याद ताजा कर गया, जिसमें वहां राजपक्षे बंधुओं को सत्ता से उतरकर विदेश भागने को मजबूर होना पड़ा था। हालांकि, फिलहाल बांग्लादेश में सेना ने कमान अपने हाथ में ली है लेकिन आने वाली सरकार को उच्च बेरोजगारी, आर्थिक अस्थिरता, मुद्रास्फीति जैसे ज्वलंत मुद्दों का समाधान करना होगा। हालांकि, भारत के हसीना सरकार से मधुर संबंध थे, लेकिन हालिया उथल-पुथल को देखते हुए हमें अपनी रणनीति में बदलाव करना होगा। पाकिस्तान परस्त बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की आसन्न वापसी से भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति सावधान रहने की जरूरत होगी।
बांग्लादेश के एक तबके का भारत-विरोध इनसे स्पष्ट होता है कि बीते तीन दिनों में ही 50 हिंदू मंदिर तोड़ दिए गए। उनमें आस्था की देव-मूर्तियों को भी खंडित कर ध्वस्त किया गया। मंदिरों में आग लगा दी गई। हिंदुओं के 300 से अधिक घर और उनकी दुकानें भी तोड़ी गईं और आगजनी भी की गई। बीते कुछ सालों के दौरान करीब 3600 हिंदू मंदिरों को तोड़ा जा चुका है और उन्हें आग के हवाले किया जाता रहा है। क्या बांग्लादेश हिंदू-विरोधी भी हो रहा है?
बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी अब मात्र 7.9 फीसदी है, जबकि 1971 में देश-निर्माण के वक्त यह आबादी करीब 23 फीसदी थी। बेशक हिंदू घोर अल्पसंख्यक हैं। क्या मोदी सरकार प्रभावी हस्तक्षेप करेगी? बीएनपी की सरकार पहले भी बांग्लादेश में रही है। जमात भी भारत का विरोध करती रही है। जमात तो 1971 में भी पाकिस्तान परस्त था और बांग्लादेश बनाने के अभियान के खिलाफ था।
हसीना का सत्ता से बाहर होना भारत के लिए कई मोर्चों पर झटका है। सबसे महत्त्वपूर्ण है दक्षिण एशिया में भरोसेमंद साझेदार को खोना। अस्थिरता और हिंसा से भरा बांग्लादेश भारत के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र में सिरदर्द बढ़ा देगा। चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान को रक्षा आपूर्ति करता है। आइएसआइ निश्चित रूप से अपनी मौजूदगी और गतिविधियां बढ़ाने की कोशिश करेगी जो भारतीय हितों के खिलाफ है। इस राजनीतिक हिंसा और आर्थिक अनिश्चितता से भारत में घुसपैठ बड़ी चुनौती बन सकती है। यह भी हकीकत है कि बांग्लादेश कई मामलों में भारत के भरोसे रहा है। हकीकत यह भी है कि अब बांग्लादेश में करीब 80 फीसदी सैन्य हथियार चीन से आते हैं।
क्या नई सरकार चीन के साथ अपने संबंध मजबूत करेगी और भारत का खुलेआम विरोध करेगी? भारत के लिए घुसपैठ और शरणार्थियों का आना भी बेहद गंभीर चुनौती है। उसे किस तरह नियंत्रित किया जा सकता है? बहरहाल अभी तो निगाहें बांग्लादेश के घटनाक्रम पर टिकी रहेंगी। शेख हसीना किस देश में जाना चाहेंगी, यह भी चिंतित सवाल है। हिंदुओं पर हो रहे हमले भी चिंता पैदा करते हैं। वहीं अस्थिरता और हिंसा से भरा बांग्लादेश भारत के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र में सिरदर्द बढ़ा देगा। चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान को रक्षा आपूर्ति करता है। आइएसआइ निश्चित रूप से अपनी मौजूदगी और गतिविधियां बढ़ाने की कोशिश करेगी जो भारतीय हितों के खिलाफ है। इस राजनीतिक हिंसा और आर्थिक अनिश्चितता से भारत में घुसपैठ बड़ी चुनौती बन सकती है।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं एवं लखनऊ रहते हैं)