भ्रामक खबरों से राजशाही की ओर

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राकेश उपाध्याय

एक अच्छा सा शीर्षक दीजिए

दिल्ली: नेपाल के बारे में कई भ्रामक खबरें भारत के कुछ समाचार चैनलों ने प्रसारित की हैं, हालांकि बाद में उन्होंने उसे हटा लिया। उदाहरण के लिए, पशुपतिनाथ मंदिर में तोड़फोड़ की न कोई घटना हुई और न ही वायरल वीडियो का संबंध मौजूदा घटनाक्रम से है।

नेपाल में मेरे अनेक विद्यार्थियों ने मुझे सूचित किया है कि वीडियो तीन साल पुराना है, एक उत्सव का है, जिसमें मंदिर का गेट बंद हो जाने पर उसे खोलने के प्रयास में कुछ उत्साही भक्त उस पर चढ़ गए हैं। लेकिन इसी वीडियो को वायरल कर बताया जा रहा है कि मंदिर में तोड़-फोड़ की कोशिश हुई है। नितांत गलत और झूठी खबर है।

दूसरा मुद्दा जाति को लेकर आया है। नेपाल के मेरे एक छात्र जिन्होंने मेरे मार्गदर्शन में पीएचडी उपाधि प्राप्त की है, उनका कहना है कि कम्युनिस्ट नेता यदि जाति मानते होते तो इतनी दुर्गति के शिकार नेपाल में नहीं होते। जाति को न मानने के कारण ही उन्हें बचाने कोई भी नेपाल में सामने नहीं आया। असलियत यही है कि नेपाल का कोई भी भला आदमी किसी कम्युनिस्ट को ब्राह्मण मानता ही नहीं है, और कम्युनिस्ट तो हैं ही इस बात के लिए बदनाम कि धर्म और जाति सब उनके लिए अफीम के सिवाय कुछ नहीं। यही तो वामपंथ की ट्रेनिंग है। आजतक सीपीआई और सीपीएम के पोलित ब्यूरो में उनके नेताओं की जाति गणना से संबंधित कोई रिपोर्ट भारत के किसी चैनल में क्यों नहीं चलाई गई, आखिर इसका जवाब कौन वामी पत्रकार दे सकता है?

तो ऐसे लोगों की जाति गिनने वाले बिना बुद्धि के मूर्खपेटजीवी के अतिरिक्त और कौन हो सकते हैं भला। राजनीतिक आकाओं के संकेत और उनसे कुछ बजट पाकर नेवारो टाइप बकवास करने वाले पत्रकारों को आखिर कौन और कब तक सुने? भारत में कुछ वामपंथी समाजवादी मिजाज के लोगों ने कम्युनिस्ट नेताओं को वैसे ही ब्राह्मण बताना शुरु किया है, जैसे ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारों को लगता है कि रशिया का सारा पेट्रोल ब्राह्मण गटक जा रहे हैं। खैर, सबको बोलने की आजादी है।
तीसरा मुद्दा कि नेपाल का भविष्य क्या है? इस पर महाराजा कर्ण सिंह ने नेपाल की राजशाही और तत्कालीन पीएम गिरजा प्रसाद कोइराला से बातचीत कर साल 2007 में एक रास्ता निकाला था कि राजा ज्ञानेंद्र पद छोड़ दें और उनके उस समय 5 साल के शिशु पौत्र ह्रदयेंद्र बीर बिक्रम शाह देव को सेरेमोनियल राष्ट्रप्रमुख के पद पर आसीन किया जाए। शेष, ब्रिटेन की तरह लोकतंत्र फले-फुले, चुनाव से प्रधानमंत्री और संसद का गठन हो।

लेकिन उस समय होनी को यह मंजूर नहीं था। प्रचंड समेत तमाम कम्युनिस्ट नेताओं ने इस प्रस्ताव को मानने से इन्कार कर दिया। बात वहीं पर खत्म हो गई। बाद में नेपाल के संविधान में बदलाव कर सदा के लिए राजशाही का रास्ता भी बंद किया गया।

लेकिन अब वह सूत्र पुनः बड़ी खामोशी से नेपाल के जन-मन में आगे बढ़ता दिख रहा है। राजा ज्ञानेंद्र के पौत्र ह्रदयेंद्र बीर बिक्रम शाह देव नेपाल में चुपचाप अनेक सामाजिक सेवा कार्यों से जुड़कर अपनी उपस्थित जनता के बीच दर्ज कराते रहे हैं।

ह्रदयेंद्र की लोकप्रियता नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं को चुभती रही है। केपी ओली ने तो एक बार यहां तक धमकी दी थी कि ह्रदयेंद्र राजा बनने का सपना देखना छोड़ दें। उन्हें जनता के बीच जाने की कोई जरूरत नहीं है। ह्रदयेंद्र के नाम से कम्युनिस्ट नेताओं की छाती में दर्द बार बार उठते रहने का एक और कारण है। कारण है ह्रदयेंद्र की मां का राजस्थान के शेखावत वंश से संबंधित होना। कम्युनिस्ट नेताओं ने चीन के अपने वैचारिक आकाओं के संकेत पर ह्रदयेंद्र को तब नेपाल का नायक बनने से रोक दिया था।

यह तानाशाही भी नेपाल के लोगों को अखरने लगी थी। सूत्र ने बताया है कि ह्रदयेंद्र सुशील और विनम्र हैं। ह्रदयेंद्र का जन्म महाराजा बीर बीरेंद्र की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के ठीक एक वर्ष बाद जुलाई 2002 में हुआ था। तब अनेक पंडितों ने उनकी जन्मकुंडली देखकर भविष्यवाणी भी की थी कि नेपाल के महाराजा वापस आ गए हैं। जाहिर तौर पर, आज की परिस्थिति में यदि वह आगे बढ़कर नेपाल की बागडोर संभालते हैं तो महाराजा कर्ण सिंह का 2007 में दिया गया सुझाव और स्वप्न साकार हो सकता है। और जिस जेन-जी के सर पर नेपाल में बदलाव का मुकुट पहनाया जा रहा है, उस जेन-जी की जरूरतों को समझने वाले उनके बीच के नायक की कमी भी पूरी हो सकेगी।

दूसरी तरफ, राष्ट्रपति अथवा राजपद पर ह्रदयेंद्र की शपथ होते ही नेपाल के हिंदू राष्ट्र घोषित होने का रास्ता भी साफ हो जाएगा, क्योंकि सदियों तक नेपाल में राजा को ही ईश्वर के प्रतीक स्वरूप में देखकर विकेंद्रित प्रणाली से स्वराज और स्वशासन चलाने की व्यवस्था चलती रही है।
देखना लाजिमी है कि नेपाल का भविष्य आखिर किस करवट बैठता है।

(सोशल मीडिया से साभार)

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