दिल्ली । लगातार हर मौके पर विपक्ष के नेता अपनी नाकामयाबियों का ठीकरा इलेक्शन कमीशन के गलियारे में जाकर फोड़ते हैं। हर चुनाव से पहले विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं। TN शेषन के बाद चुनाव आयोग एक सक्रिय और सख्त रवैया अपनाता रहा है। चुनाव भी अब छह सात फेज में होने लगे हैं।
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साल 2014 से भारत का चुनाव आयोग (ECI) लगातार विवादों के तूफ़ान में घिरा हुआ है। विपक्षी पार्टियाँ — कांग्रेस, आम आदमी पार्टी (AAP), तृणमूल कांग्रेस (TMC) व अन्य — बार-बार आरोप लगाती रही हैं कि आयोग सरकार के दबाव में है, निष्पक्ष नहीं, और कभी-कभी जानबूझकर नियमों को तोड़ता-मरोड़ता है।
सबसे ज़्यादा सवाल EVM मशीनों की विश्वसनीयता, वोटर लिस्ट में गड़बड़ियाँ, आचार संहिता (Model Code of Conduct) के पालन और आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की दख़लअंदाज़ी को लेकर उठे हैं। पिछले दस सालों में विपक्षी दलों ने पचास से ज़्यादा बार बयान, धरने और याचिकाएँ दायर की हैं। आयोग हर बार कहता रहा कि वो पूरी तरह क़ानून और पारदर्शिता के तहत काम करता है, लेकिन अविश्वास की परछाई फिर भी बनी हुई है।
2017 के उत्तर प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों में EVM की “हेराफेरी” चर्चा का बड़ा मुद्दा बना। कांग्रेस और दूसरे दलों ने दावा किया कि मशीनें हैक की जा सकती हैं और इससे बीजेपी को फ़ायदा हुआ। अक्टूबर 2017 में कांग्रेस ने आरोप लगाया कि गुजरात चुनाव की तारीखें सरकार के दबाव में टाली गईं ताकि बीजेपी को प्रचार का समय मिल सके।
2018 में कर्नाटक चुनाव में भी कांग्रेस ने आयोग पर समय से पहले झुकने का इल्ज़ाम लगाया। बाद में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी ऐसे ही आरोप लगे और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया।
2019 के लोकसभा चुनावों में तो बहस अपने चरम पर थी। विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री और बीजेपी नेताओं पर आचार संहिता उल्लंघन के आरोप लगाए—ख़ासकर धर्म और सेना के नाम पर वोट माँगने को लेकर। मगर आयोग की प्रतिक्रिया “धीमी और पक्षपातपूर्ण” बताई गई।
कई पूर्व नौकरशाहों और जजों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर कहा कि “आयोग की साख पर संकट है।”
2021 में बंगाल चुनाव के दौरान, प्रशांत किशोर ने आयोग को “बीजेपी का विस्तार कार्यालय” तक कह दिया।
और 2024 में, आयोग की नियुक्ति प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश को हटाने के क़ानून ने फिर यह सवाल खड़ा किया कि क्या आयोग अब सरकार से स्वतंत्र है या नहीं।
पत्रकारों, विशेषज्ञों और टेक्नोलॉजी जानकारों का मानना है कि आयोग की पारदर्शिता और विश्वसनीयता घट रही है, और कार्यपालिका का प्रभाव बढ़ गया है।
लेकिन इन तमाम विवादों के बावजूद, यही आयोग हर पाँच साल में दुनिया का सबसे बड़ा चुनावी आयोजन सफलतापूर्वक कराता है।
2024 में करीब 96.88 करोड़ मतदाता पंजीकृत थे — यानी लगभग एक अरब भारतीय!
करीब 1.5 करोड़ अधिकारी और सुरक्षा कर्मी तैनात किए गए।
पहाड़ों से लेकर रेगिस्तानों तक, सीमावर्ती इलाकों से लेकर महानगरों तक, हर जगह मतदान हुआ — एक तय समय-सारिणी में, शांति से।
स्वतंत्रता के बाद से आज तक कभी भी सत्ता परिवर्तन इस प्रक्रिया के बाहर नहीं हुआ। यही भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त है।
आयोग ने कई नई तकनीकी पहलें की हैं —
2024 लोकसभा चुनाव के लिए 42 विस्तृत सांख्यिकीय रिपोर्टें जारी कीं, डिजिटल डैशबोर्ड शुरू किया, और उम्मीदवारों के खर्च पर रीयल-टाइम निगरानी प्रणाली लागू की।
अब उम्मीदवारों को पूरा आर्थिक लेखा-जोखा ऑनलाइन देना होता है और नकद दान पर सीमा तय की गई है, ताकि चुनावी फंडिंग पारदर्शी हो।
पहुंच और समावेशन के मोर्चे पर भी प्रगति हुई है।
बिहार 2025 चुनावों के लिए हर बूथ पर रैंप, व्हीलचेयर सुविधा, और दृष्टिबाधित मतदाताओं के लिए ब्रेल बैलेट की व्यवस्था अनिवार्य की गई है।
85 वर्ष से ऊपर या दिव्यांग मतदाता घर से मतदान कर सकते हैं, जिसकी वीडियो रिकॉर्डिंग और उम्मीदवार प्रतिनिधियों की मौजूदगी में पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।
दिव्यांग कर्मियों द्वारा संचालित विशेष मतदान केंद्र भी आयोग की “नो वोटर लेफ्ट बिहाइंड” नीति को साकार करते हैं।
इन सबके बावजूद आलोचकों की बात भी ग़लत नहीं कि विश्वास एक बार टूट जाए तो उसे लौटाना मुश्किल होता है। इसीलिए ज़रूरी है कि आयोग नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी बनाए, सारे मतदान आँकड़े सार्वजनिक करे, और 100% VVPAT मिलान लागू करे।
हालाँकि तकनीकी सुधार, पारदर्शिता और समावेशन के प्रयास जारी हैं, पर असली चुनौती है — जनता के दिलों में निष्पक्षता का यक़ीन दोबारा कायम करना। हर नज़र उस पर टिकी है, फिर भी उसी से उम्मीद है कि वो भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी अद्भुत मिसाल पेश करेगा। बहस जारी है — स्वतंत्रता बनाम प्रभाव, पारदर्शिता बनाम शक़ —मगर लोकतंत्र की धड़कन अभी भी उसी पर टिकी है। क्योंकि भारत में शांतिपूर्ण, समय पर और जनसहभागी चुनाव ही वह धागा हैं, जो इस विशाल लोकतंत्र को जोड़कर रखते हैं —और यही ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग कभी नहीं भूल सकता।



