दिल्ली। ‘वीर बाल दिवस’भारतकेइतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और भावनात्मक स्मृति से जुड़ा हुआ दिन है।यह वीरता, बलिदान और देशभक्ति की भावना को समर्पित है। यह दिन विशेष रूप से गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे पुत्रों – साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह जी और साहिबज़ादा फतेह सिंह जी के बलिदान की याद में मनाया जाता है।
इन दोनों साहिबज़ादों ने बहुत कम आयु (क्रमशः 9 वर्षऔर 6 वर्ष) मेंअपने धर्म और आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए इस्लाम स्वीकार करने से मना किया और दीवार में जिंदा चुनवा दिए जाने जैसी भीषण यातना को भी सहर्ष स्वीकार किया।
भारतके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 26 दिसंबर 2022 कोघोषणा की थी कि हर वर्ष 26दिसंबर को “वीर बाल दिवस” के रूप में मनाया जाएगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
श्रीगुरु गोबिंद सिंह जी दशगुरुपरंपराके दसवें गुरु थे।उन्होंने निर्मलापंथऔरसेवापंथकेबादखालसा पंथ की स्थापना की, ताकि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ जनता को संगठित किया जा सके।1704 में, जब मुग़ल शासक और सिरहिंद के नवाब वज़ीर खान ने गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके परिवार पर आक्रमण किया, जिसमेंगुरुजीकेबड़ेपुत्रसाहिबज़ादाअजितसिंहऔरसाहिबज़ादाजुजहारसिंहजीशहीदहोगए, तब परिवार बिछड़ गया।साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह अपनी दादी माता गुजरी जी के साथ सिरहिंद पहुंचे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।वज़ीर खान ने उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने का प्रस्ताव दिया, लेकिन दोनों बालकों ने निडर होकर कहा कि ‘हम अपने धर्म से नहीं हटेंगे’।
उनकी इस अटल निष्ठा के कारण उन्हें दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया, जो भारतकेइतिहास का एक अभूतपूर्व बलिदान है।
औरंगज़ेब की क्रूरता
औरंगज़ेब (1618–1707) मुग़ल साम्राज्य का सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाला बादशाह था।वह धार्मिक रूप से बहुत कट्टर था और उसने इस्लाम के नाम पर कई अत्याचार किए।
· धर्मांतरण (Conversion) का दबाव -औरंगज़ेब ने शासन के अंतर्गत आने वाले गैर-मुस्लिमों पर इस्लाम स्वीकारकरने का दबाव बनाया।कई क्षेत्रों में धर्मांतरण के लिए पुरस्कार दिए जाते थे।जिन अधिकारियों ने अधिक धर्मांतरण करवाए, उन्हें पदोन्नति दी जाती थी।
· गुरु तेग़बहादुर जी की हत्या -धर्म औरकश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाने पर, उन्हें दिल्ली में शहीद कर दिया गया।
· मंदिरों का विध्वंस और मस्जिद निर्माण -औरंगज़ेब के शासनकाल में सैकड़ों प्रमुख हिन्दू मंदिर तोड़े गए,जैसे — काशी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी), केशव देव मंदिर (मथुरा) आदि।उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाई गईं।इन कार्रवाइयों का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि स्थानीय विरोधी राजाओं की शक्ति कम करना भी था।
· जज़िया कर की पुनः स्थापना -अकबर ने यह कर समाप्त कर दिया था, पर औरंगज़ेब ने गैर-मुसलमानों पर पुनः जज़िया लगाया। यह इस बात का प्रतीक था कि अब शासन ‘इस्लामी राज’अथवा‘शरीअत’ के सिद्धांत पर आधारित है।
· गुरुपरंपरापर अत्याचार -गुरु गोबिंद सिंह जी के परिवार को सताना और उनके बेटों को निर्दयतापूर्वक मारना इसी नीति का हिस्सा था।
गैर-मुसलमानोंके प्रति नीति
गुरु तेग़ बहादुर जी की शहादत – कश्मीर के पंडितों पर धर्मांतरण का दबाव औरंगज़ेब की नीतियों का परिणाम था।उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए गुरु तेग बहादुर जी से सहायता मांगी।गुरु जी ने इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई,जिसके परिणामस्वरूप उन्हें दिल्ली में शहीद कर दिया गया।यह घटना भारतीय इतिहास में धार्मिक स्वतंत्रता के लिए पहला सार्वजनिक बलिदान मानी जाती है।
गुरु गोबिंद सिंह जी और मुग़लोंसेसंघर्ष – गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की,जिसका उद्देश्य अन्याय के विरुद्ध धर्म और स्वाभिमान की रक्षा करना था।यह औरंगज़ेब की नीतियों के सीधे विरोध में था।परिणामस्वरूप, गुरु जी के परिवार, विशेषकर साहिबज़ादों और माता गुजरी जी, पर अत्याचार किए गए।औरंगज़ेब का प्रतिनिधि नवाब वज़ीर खान ने उनके निर्दोष पुत्रों की हत्या करवाई।
‘जफरनामा’ में गुरु गोविन्द सिंह काऔरंगजेब को दो टूक जवाव
मूल रूप से फारसी भाषा में लिखा गया ‘जफरनामा’ गुरु गोविन्द सिंह द्वारा मुगल आक्रान्ता औरंगज़ेब को लिखा गया वह ‘विजय पत्र’ है जो उन्होंने अपने चारों पुत्रों और सैकड़ों साथियों के बलिदान के उपरांत आनन्दपुर छोड़ने के बाद 1706 में तब लिखा था जब औरंगज़ेब दक्षिण भारत के अहमदनगर किले में अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रहा था।
फारसी में लिखे इस पत्र में कुल 134 काव्यमय पदों में खालसा पंथ की स्थापना, आनंदपुर साहिब छोड़ना, फतेहगढ़ की घटना, 40 सिखों के साथ अपने चार पुत्रों के बलिदान तथा चमकौर के संघर्ष के साथ मराठों तथा राजपूतों द्वारा औरंगजेब की करारी हार का वृत्तांत ऐसी शौर्यपूर्ण तथा रोमांचकारी शैली में मिलता है जो किसी भी राष्ट्रभक्त की भुजाओं में नवजीवन का संचार करने के लिए पर्याप्त है।
भारतीय इतिहासकारों के मुताबिक ’जफरनामा’ में गुरु गोविन्द सिंह द्वारा औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध मुखर विरोध अभिव्यक्त होता है। इस पत्र में दशम गुरु पूरी निर्भीकता से औरंगज़ेब की झूठी कसमों एवं उसके कुशासन की चर्चा के साथ उसकी क्रूर व बर्बर सोच की भर्त्सना करते हैं।
जफरनामा में गुरु गोविन्द सिंह औरंगजेब को ललकारते हुए ओजस्वी भाषा में लिखते हैं, “औरंगज़ेब! तू धर्म से कोसों दूर है जो अपने भाइयों व बाप की हत्या करके अल्लाह की इबादत करने का ‘ढोंग’ रचता है। तूने कुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लड़ाई नहीं करूंगा पर तू अव्वल दर्जे का ‘धूर्त’, ‘फरेबी’ और ‘मक्कार’ है।“
तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गूँथा और उस खून से सनी मिट्टी से अपने राज्य की नींव रखी है और अपना आलीशान महल तैयार किया है–
शहंशाहे औरंगज़ेबे लईन।
ज़ि दारा ए दूरस्त दूरस्त दीन॥११३॥[1]
(ऐ औरंगजेब ! तू शहन्शाह होकर भी धिक्कार का पात्र है। क्योंकि तू न्याय से दूर है तथा धर्म से भी दूर है।)
औरंगज़ेब द्वारा अपने दो छोटे साहिबजादों की निर्मम हत्या पर गुरु गोबिन्द सिंह जी औरंगज़ेब से कहते हैं–
चि शुद गर शिगाले व मकरो रिया।
हमीं कुश्त दो बच्च ए शेर रा॥१४॥[2]
(हिंदी अनुवाद – क्या हुआ यदि सियार ने छल और कपट से इस तरह शेर के दो बच्चों को मार दिया।)अर्थात क्या हुआ (परवाह नहीं) अगर तूने छल और कपट से मेरे दो छोटे पुत्रों को मार दिया।)
‘जफरनामा’ में एक और स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी औरंगजेब को ललकारते हुए कहते हैं-
चिहा शुद कि चूँ बच्चगाँ कुश्त चार।
कि बाकी बिमाँदन्द पेचीदा मार॥६८॥[3]
(हिंदी अनुवाद- क्या हुआ अगर चार बच्चे (साहबज़ादेअजीतसिंह, साहबज़ादेजुझारसिंह, साहबज़ादेजोरावरसिंह, साहबज़ादेफतहसिंह) मारे गये। अभी कुण्डल वाले महाविष सर्प शेष बचे हुए हैं।)
चुं शेरे जियाँ जिन्दा मानद हमें।
जि तो इन्तकामे सितानद हमे॥१५॥[4]
(हिंदी अनुवाद- जबकि वीर शेर जीवित रहता है तो वह तुझसे प्रतिशोध लेगा।)
चि कुरआँ कसम रा कुनम ऐतवार।
बगरने तो गोई मन ई रा चिकार॥४७॥[5]
(हिंदी अनुवाद- (तेरी) कुरान की कसम का मैं क्या विश्वास करूँ। तू अन्यथा (काम निकालने पर) कह देता है कि मुझे इससे क्या काम।)
मैं युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा और मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पूरे देशमें उसे बुझाने वाला तथा तुझे पानी पिलानेवाला एक न मिलेगा। मैंने देशमें तेरी पराजय की पूरी व्यवस्था कर ली है। फिर इसके आगे गुरु गोविंद सिंह औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं कि तू अपनी मन की आँखों से देखकर विचार कर कि भारत को जीतने का सपना देखने वाले सिकंदर और शेरशाह; तैमूर और बाबर, हुमायूं और अकबर आज कहां हैं –
कुजा शाह इस्कन्दरों शेरशाह।
कि यक हम न माँदस्त जिन्दा बजाह॥१२९॥[6]
(सिकन्दर बादशाह कहाँ है, शेरशाह कहां है। एक भी जीवित और स्थान पर आसीन नहीं है।)
कुजा शाहे तैमूरों बाबर कुजास्त।
हुमायूँ कुजा, शाह अकबर कुजास्त ||१३०[7]
(आज तैमूर कहाँ है, बाबर कहाँ है, हुमायूँ कहाँ है और अकबर बादशाह कहाँ है? अर्थात् उनकी क्या दुर्गति हुए,ये बात तू…औरंगजेब ध्यान में रख।)
तु गर जब्र आजिज खराशी कुनी।
कसम रा बतेशा तराशी कुनी ॥१३२॥[8]
(और तू यदि दीन-दुबल को सताता है तो भगवान की कसम को आरी से चीरता है।)
न जेबद तुरा नामे औरंगजेब।
ज़ि औरंगज़ेबाँ न याबद फ़रेब॥५॥[9]
(तुझे औरंगजेब (आसन शोभा) नाम शोभा नहीं देता (क्योंकि) औरंगजेबों से (राजाओं से) छल नहीं मिलता।)
फिर आगे इस संदेश पत्र में गुरु गोविंद सिंह औरंगज़ेब को चेतावनी देते हुए कहते हैं-
हमाँ कू तुरा पादशाही बिदाद।
बमा दौलते दीं पनाही बिदाद॥३॥[10]
(औरंगज़ेब ! तू मेरी यह बात ध्यान से सुन कि जिस ईश्वर ने तुझे इस मुल्क की बादशाहत दी है, उसी ने मुझे धर्म और मेरे देश की रक्षा का जिम्मा सौंपकर वह शक्ति दी है कि मैं धर्म और सत्य का परचम बुलंद करूं।)वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का जफरनामा एक पत्र नहीं बल्कि भारतीय जनमानस की भावनाओं का प्रखर प्रकटीकरण है। अतीत से वर्तमान तक न जाने कितने ही देशभक्तों ने उनके इस पत्र से प्रेरणा ली है।
मुगल दरबार में वीर गुरुपुत्रोंका साहस और पराक्रम
करतार सिंह जी अपनी पुस्तक ‘लाइफ ऑफ गुरु गोबिन्द सिंह’ के 23वें अध्याय जिसका शीर्षक है‘Murder of the innocent’में साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेहसिंह के साहस और पराक्रम के बारे में विस्तार से बताया है। मुगल दरबार में जब इन दोनों गुरुपुत्रोंको प्रस्तुत किया गया और सिर झुकाकर सलाम करने को कहा गया तो इन वीरो का जवाब अद्भुत साहस से भरा हुआ था। करतार सिंह जी मुगल शासन में इन निर्दोष वीर बालकों की निर्मम हत्या और साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेहसिंह के साहस और पराक्रम का उल्लेख करते हुएलिखते हैं-
“A Minister of his, Sucha Nand by name, advised the little princes to bow down before the great Nawab,“Not we.” replied Zorawar Singh, the elder of the two, “We have been taught to bow to none but God and Guru.[11]
This daring reply astonished all. The Nawab told them that their father and two elder brothers had been killed a few days back.“They were infidels,” added he, “and merited death. Good luck has brought you to an Islamic darbar. Your souls will be washed of infidelity and made fit for paradise in the life to come. In this world you will be given all comforts and luxury which honour, rank, and wealth can bring. When you grow up, we shall marry you to beautiful princesses of royal descent. And from this earthly paradise you will, in due course, be ushered by angels to that genuine paradise where Hazrat Mohammad sits deputy to the Mighty Allah. If you say no to my proposal, you will be treated as kafirs are treated.”
‘Zorawar Singh turned to his younger brother Fateh Singh, and, in a low voice, asked him what answer he would make. Fateh Singh had seen but seven winters, yet in his veins ran the blood of Guru Arjan, Guru Hargobind, Guru Teg Bahadur, and Guru Gobind Singh. So, he replied, “Brother, no pleasure of palate or sense should induce us to forsake the true faith. We should remember the parting advice of our grandmother. We should never think of clouding the fair name of our brave and holy ancestors. What is there so precious in life that we should hug it at the cost of our souls? What is there so ugly indeath that we should shun it though it may be even coming as a deliverer from the snares of this world? I am prepared to die”.
There was dead silence in the court. So, the words of the two brothers, though uttered inundertones, were heard by quite a large number. All who heard them were filled with awe at the heroism of the children, and trembled at the fate which awaited them.
Zorawar Singh said in a clear, loud, and steady voice, “you say that our father has been killed. We can never believe it. He has yet a good deal of work to do in this world. He is alive and we are sure of that. Know that we are the sons of him, who, at my age, voluntarily sent his father to risk his life in an attempt to cure your Emperor of his bigotry. You know what happened. How can you ever think of our renouncing the faith which has been preserved and developed at such dear costs. We spurn your worldly pleasures. We have no desire for the paradise which you are so fond of. We would not live as renegades. Sweet life-giving death is far better to us. Our choice is made.
The words in themselves were enough to inflame the haughty Nawab. Sucha Nand said, “look here, gentlemen,this is their behaviour in childhood.What will it be when they grow up? Their father alone has given the government a lot of trouble. What will be the result when these two grow up and take his place?
The Nawabassented and looked round for someone to second what his minister had proposed. All sat with their heads bent lowand their eyes fixed on the ground. Ofcourse, the Qazis, the Islamic law-givers,were alert and clamorous. At last, the Nawab of Malerkotla spoke out that the holy Quran did not permit the slaughter of innocent helpless children. So, he urged that they should be allowed to go unharmed.
But the Qazis said, “What do you know of the holy law? How can you pretend to know more of it than we? The holy law gives them the choice between Islam and death. Let them choose as they like.
There could, however, be no lack of executioners for kafirs in a Mohammadan court. A part of the outer wall of the town was dismantled and the children were bricked alive. All the time they went on reciting and meditating on the word of the Guru. When they had been buried up to the breast, the Nawab again urged themto accept Islam. They kept their eye and minds fixed on the Lordand shook their heads. At a nod from him, their heads were severed from their bodies. This occurred on 13th of Poh, Sambat 1761. (27th of December, 1704).”[12]
प्रसिद्ध गुरुवाणी टीकाकार सोडी तेजा सिंह जी अपनी पुस्तक ‘जीवन दस गुरू साहिबान’ में लिखते हैं, “सरहिंद पहुँचने पर सूबा वजीर खां के हुक्म से साहिबजादों तथा माता जी को एक बुजे में कैद कर दिया गया था तथा अगले दिन जब वह कचहरी लगी तो सूबे ने साहिबजादों को बुलाकर कहा कि मुसलमान हो जाओ आप का अब कोई वारिस नहीं है, आप के बड़े भाई तथा पिता तथा और सिख सब लड़ाई में मारे गए हैं, परन्तु जब शाहजादों ने सूबे की मुसलमान हो जाने वाली बात न मानी तो उसने उनको नीवों में चिनकर शहीद कर देने का आदेश दिया। सूबे के आदेशानुसार साहिबजादों को 13 पोह को नींवों में चिनकर कत्ल कर दिया। इनकी शहीदी की खबर सुनकर माता जी भी इस ह्रदय विदारक बात को न सह सकी तथा शरीर त्याग कर परलोक सिधार गई।“[13]
कुलदीपचन्द्र अग्निहोत्री जी गुरु गोबिन्द सिंह जी के पुत्रो पर किए गए अत्याचार के बारे में लिखते हैं- “जोरावरसिंह और फतेहसिंह को इस्लाम धर्म में दीक्षित करने के भरसक प्रयास किए गए लेकिन दोनों गुरु पुत्रों ने हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म में जाना अस्वीकार कर दिया। सरहिन्द के नवाब के तन-बदन में आग लग गई। इनकी यह मजाल, सत्ता से लोहा लेने का हौसला, नजाम की आज्ञा उल्लंघन करने का साहस और फिर नजाम ने आपा खो दिया। “ये इस्लाम कबूल नहीं करते तो दीवारों में चिनवा दो। नवाब का क्रूर आदेश सरहिन्द से उठकर सारे गगन में गूंज गया । विश्व के इतिहास में 13 पोह का दिन अनन्त काल के लिए अंकित हो गया। गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों सुकुमार पुत्र जिन्दा ही ईंटों की दीवारों में चिनवा दिये गए। उनका अपराधकेवल इतना था कि उन्होंने सत्य धर्म का त्याग नहीं किया।[14]
वेणीप्रसाद जी अपनी पुस्तक गुरु गोविन्द सिंह में ‘दो कुमारों की अद्भुत धर्मबलि’ शीर्षक नामक अध्याय में गुरु साहब के पुत्रों के साहस को बताते हैं जिसमें जब गुरु पुत्रों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने को कहा जाता है तो उनका जवाब होता है-
“जोरावर-हमारे गुरु का यही उपदेश है कि “धर्म छोड़कर, यदि स्वर्ग भी मिलता हो तो वह नरक के समान समझना” इसलिये तुम्हारी इस मौज को मैं नरक के समान समझता हूँ।
सूबा–अरे लड़के, तू क्या पागल हो गया है जो बहकी बहकी बातें करता है! मुसलमान नहीं होगा तो क्या जान गवाँवेगा ?
जोराबर -जान क्यों जायेगी ?
सूबा–हमारी किताब का यही हुक्म है कि जो मजहब कबूल न करे उसे मार डालना चाहिए।
जोरावर—क्या मुझसे युद्ध करेगा? ला, दे हाथ में तलवार दे, गुरु का बच्चा युद्ध में जान जाने से नहीं डरता ।
सूबा–अरे बच्चा, तू निरा भोला है, युद्ध नहीं करना होगा। जल्लाद की तलवार तुम्हारा ‘सिर काटकर फेंक देगी। सोच और समझ, अगर अपने को इस आफत से बचना चाहता है तो मुसलमान होकर सारे ऐशो-आराम को भोग,नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी।
जोरावर–अच्छा, तू मेरे हाथ में तलवार नहीं देगा और योंही मेरा सिर कटवाकर मरवा डालेगा ! हाँ, ठीक है माताजी कहती थीं कि मेरे दादा गुरु तेगबहादुर जी भी योंही मारे गए थे; क्योंकि उन्होंने मुसलमान होना मंजूर नहीं किया था। अरे पापी ! लें सुन ले, मैं उसी गुरु का पोता हूँ! मैं भी उसी तरह कत्ल होऊँगा, पर मुसलमान नहीं होऊँगा।[15]
1. गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 225
2 . गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 27
3.गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 195
4गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 29
5गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 93
6गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 257
7गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 259
8गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 263
9गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 9
10गुरु गोविन्द सिंह प्रणीत ‘जफरनामा’ (विजयपत्रम), अनुवादक आचार्य धर्मेन्द्रनाथ, निखिल भारतीय भाषापीठ प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ 5
12Kartar Singh, Life of Guru Gobind Singh, Lahore Book Shop Ludhiana, 1951, P 233-237
13सोडी तेजा सिंह जी प्रसिद्ध गुरवाणी टीकाकार,जीवन दस गुरू साहिबान (सम्पूर्ण इतिहास), प्रकाशक भाई चतर सिंह जीवन सिंह पुस्तकां वाले, अमृतसर,पृष्ठ 411
14कुलदीपचन्द्र अग्निहोत्री, गुरु गोबिन्द सिंह व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व, आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली,पृष्ठ 28
15वेणीप्रसाद, गुरु गोविन्द सिंह, काशी नागरीप्रचारिणी सभा, काशी,पृष्ठ 137



