भारत के नकली बाबा आस्था उद्योग को कैश मशीन बना रहे हैं!!!

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दिल्ली । शाम ढलते ही टेंट भीतर से भट्टी की तरह चमक उठता है। अगरबत्तियों का गाढ़ा धुआँ हवा में तैर रहा है, ढोल-नगाड़ों की थाप दिल की धड़कनों से होड़ ले रही है। बीचोंबीच ऊँचे सिंहासन पर बैठा है एक शख़्स, गेरूआ, रेशमी कपड़े, आँखें बंद, हथेलियाँ आसमान की ओर। आधा संत, आधा सेल्समैन।

एक-एक कर टूटे, हारे, थके लोग उसके सामने से गुज़रते हैं। वह उम्मीद में लिपटे जुमले फेंकता है, ताबीज़, भभूत और चमचमाते “चमत्कारी” सामान लहराता है, और इन्हें ‘आशीर्वाद’ कहकर थमाता है। “कैंसर भाग जाएगा। कर्ज़ खत्म हो जाएगा। भगवान ने तुम्हें चुन लिया है।”

भीड़ सिसकती है, आँखें नम होती हैं, और उसी रफ्तार से जेबें भी हल्की होती जाती हैं। कहीं मंत्र और कहीं मनी-काउंटर के बीच, आस्था का खनन हो रहा है। जब लाइटें बुझती हैं और “चमत्कार” का पर्दा गिरता है, ऐसे ठग बाबाओं की तिजोरियाँ भर चुकी होती हैं, और भक्त की जेब खाली।

भारत के आध्यात्मिक परिदृश्य में यह कोई इक्का-दुक्का मामला नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक सड़न है, नकली बाबाओं का तेज़ी से फैलता चलन। ये वे शोषक हैं जो मजबूर लोगों की बेबसी पर पलते हैं और श्रद्धा को गंदी कमाई का ज़रिया बना देते हैं। ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा और सरकारी नाकामी से जूझ रहे समाज में ये खुद को ईश्वर का दूत बताकर उतरते हैं।

क़र्ज़ में डूबा किसान, इलाज के लिए भटकती माँ, परिवार से ठुकराई विधवा, या महानगर की झुग्गी में फँसा बेरोज़गार नौजवान , यही इनके सबसे आसान शिकार होते हैं। इनकी टूटन को हथियार बनाकर उसे अंधभक्ति में बदला जाता है। नेताओं का वरद हस्त, मीडिया का सहयोग, लोगों की मजबूरियाँ, राज्य और समाज की नाकामी, इन ठगों के लिए उर्वर ज़मीन तैयार करती है।

ऐसे कई स्वयंभू गुरु इस विकृति की मिसाल बन चुके हैं, जिनकी चमकदार सल्तनतें झूठ, डर और धोखे पर खड़ी रहीं। मगर ये सिर्फ़ चेहरे हैं। असली बीमारी है “गुरुगिरी” का यह उन्माद, जो एक खतरनाक सामाजिक लत की तरह पूरे देश में फैल चुका है।
आख़िर यह नकली रूहानियत इतना बड़ा कारोबार कैसे बन गई? इसकी जड़ में हैं भारत की गहरी असमानताएँ। तेज़ शहरीकरण, ग्लोबलाइज़ेशन और टूटती पारंपरिक संरचनाओं ने लोगों को भीतर से खाली कर दिया है। गाँव उजड़ रहे हैं, मोहल्ले बिखर रहे हैं, संयुक्त परिवार इतिहास बनते जा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की बदहाली, अनिश्चित नौकरियाँ और गिग इकॉनमी का असुरक्षित भविष्य, सब मिलकर इंसान को बेबस बना देते हैं।
यहीं से बाबाओं की एंट्री होती है। जहाँ विज्ञान और सरकार जवाब दे देते हैं, वहाँ ये “झटपट समाधान” बेचते हैं , कैंसर के लिए भभूत, शादी के लिए मंत्र, नौकरी और दौलत के लिए अनुष्ठान। यह आध्यात्म नहीं, बल्कि मजबूरी की मार्केटिंग है, पुरानी रहस्यमयी बातों को आसान, फ़ील-गुड नशे की तरह परोसना।

सोशल मीडिया ने इस फरेब को पंख लगा दिए हैं। आज के नकली बाबा टेक-सैवी शोमैन हैं , यूट्यूब लाइव “चमत्कार”, इंस्टाग्राम पर रील्स, ऑनलाइन दर्शन, दान के ऐप, ब्रांडेड माला-कड़ा और टी-शर्ट। आश्रम अब कॉरपोरेट ऑफिस बन चुके हैं और श्रद्धा एक सब्सक्रिप्शन मॉडल।

राजनीतिक संरक्षण इस आग में घी का काम करता है। कई बाबा नेताओं के लिए वोट-बैंक बन जाते हैं और बदले में मिलती है जांच से छूट। स्कैंडल सालों तक लटकते रहते हैं, इंसाफ़ रेंगता रहता है।

लेकिन यहाँ एक फर्क साफ़ करना ज़रूरी है। भारत की परंपरा में असली आध्यात्मिक नेतृत्व भी है , शंकराचार्य, प्राचीन मठों और अखाड़ों के प्रमुख, कुंभ और वाराणसी जैसी परंपराओं के संरक्षक। ये लोग तमाशा नहीं करते, चमत्कार नहीं बेचते। इनकी सत्ता वंश, तपस्या और शास्त्र से आती है, सेल्फ-प्रमोशन से नहीं। शिक्षा, सेवा और समाज इनके केंद्र में रहता है।

इसके उलट नकली बाबा अक्सर रातों-रात पैदा होते हैं , कल तक बिज़नेसमैन, कलाकार या चालबाज़, और आज “अवतार”। ये व्यक्ति-पूजा का कल्ट खड़ा करते हैं, सवाल पूछने पर पाबंदी लगाते हैं, परिवारों से तोड़ते हैं और पैसा निचोड़ते हैं।

यह आध्यात्म नहीं, बल्कि कई बार पोंज़ी स्कीम जैसा धंधा बन जाता है, जो अक्सर भगदड़, हिंसा और तबाही पर खत्म होता है।
अब वक्त है जागने का। आस्था और अंधविश्वास के फर्क को समझने का। इन शोषक नकली बाबाओं को बेनकाब करने का, कमज़ोरों को शिक्षा, विज्ञान और न्याय से मज़बूत करने का।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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